रविवार 16 नवंबर 2025 - 06:35
अरब समाज मे महिलाएँ सामाजिक अधिकारो से क्यो महरूम थी?

हौज़ा / इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी सिलसिले का सातवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है:

अरब समाज मे औरत का मक़ाम

अल्लामा तबातबाई लिखते हैं कि अरब समाज में कुछ ऐसे परिवार भी थे जो अपनी बेटियों को शादी के मामले में कुछ हद तक अधिकार देते थे, यानी उनकी रज़ामंदी और पसंद का एहतराम करते थे। यह रवैया ज़्यादातर उन परिवारो में पाया जाता था जो उच्च वर्ग के तरीक़ों से प्रभावित थे।

कुल मिला कर अरबों का औरतों के साथ बर्ताव तहज़ीबयाफ़्ता और वहशी क़बीलों के रवैयों का एक अजीब सा मेल था।

औरतों को क़ानूनी इख़्तियार न देना
उन्हें सियासी और सामाजिक मामलों में — जैसे हुकूमत, जंग, या फिर अपने निकाह पर भी — शामिल न करना, यह सब उन असरात में से था जो अरबों ने रोम और ईरान जैसी ताक़तवर क़ौमों से लिए थे।
जबकि औरतों को क़त्ल करना, ज़िंदा दफ़्न कर देना या उन पर ज़ुल्म ढाना ये रवैये उन्होंने वहशी और बर्बर क़बीलों से अपनाए थे।
तो इस तरह औरत की वंचना का ताल्लुक घर के सरबराह की ख़ुदाई से नहीं था, बल्कि ताक़तवर का कमज़ोर को दबा लेने और अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने का नतीजा था।

क़बीलों का अजीब अक़ीदा “अपने ख़ुदा को खा जाना”
अरब समाज का कुल मिलाकर हाल यह था कि वे बुतपरस्त थे। मर्द और औरत दोनों बुतों की पूजा करते थे। उनका अक़ीदा सितारों और फ़रिश्तों के बारे में वही था जो क़दीम साबियों का था। अलग-अलग क़बीले अपनी पसंद और चाहत के मुताबिक़ अलग-अलग बुत बनाते थे।

कुछ क़बीले सितारों और फ़रिश्तों की (जिन्हें वे ख़ुदा की बेटियाँ समझते थे) मूर्तियाँ बनाते और उनकी पूजा करते थे। बुत कभी पत्थर के, कभी लकड़ी के और कभी मिट्टी के होते थे।

हद तो तब हुई जब क़बीला बनी हनीफ़ा ने क़हत (सूखे) के ज़माने में खजूर, कश्क (सूखा दही), चरबी और आटे से एक बुत बनाया और सालों उसकी पूजा करते रहे। लेकिन जब शदीद भूख लगी तो उन्होंने अपने ही “ख़ुदा” को खा लिया!

इस वाक़े पर एक शायर ने तंज़ किया “क़बीला बनी हनीफ़ा ने क़हत के ज़माने में अपने परवरदिगार को खा लिया; न अपने माबूद से डरे और न ही इस अंजाम-ए-बद से ख़ौफ़ खाया।”

कुछ क़बीले जब नया सुंदर पत्थर देख लेते थे तो पुराने बुत को छोड़कर नए को ख़ुदा बना लेते थे। और अगर कुछ न मिलता तो मिट्टी का ढेला बना लेते, उस पर बकरी का दूध दुहते और उसी के चारों तरफ़ तवाफ़ शुरू कर देते!

औरतों की फ़िक्री कमज़ोरी और ख़ुराफ़ात का फैलाव
इस सामाजिक ज़ुल्म और महरूमी ने औरतों में शदीद ज़हनी कमज़ोरी पैदा कर दी थी। वे तरह-तरह के वहमों, गुमानों और ख़ुराफ़ात का शिकार हो गई थीं। तारीख़ी किताबों में ऐसी बहुत सी मिसालें दर्ज हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर की औरतें हादसों और रोज़मर्रा ज़िंदगी के मामलात के बारे में अजीब-ओ-ग़रीब तसव्वुरात रखती थीं।

यह था ज़माना-ए-जाहिलियत और इस्लाम के ज़ुहूर से पहले मुख़्तलिफ़ क़ौमों के समाजों में औरत की हालत का एक मुख़्तसर ख़ाका।

(जारी है…)

(स्रोत: तरजुमा तफ़्सीर अल-मीज़ान, भाग 2,  पेज 404)

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