हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , आयतुल्लाहिल जवाद़ी आमोली ने अपने एक दर्स-ए-अख़लाक़ में कहा कि सच्ची तौहीद इंसान को ज़ेहनी दबाव, बेचैनी, बदउनवानी, ज़्यादा तनख़्वाह की हवस, रिश्वत, सूद और नाजायज़ कमाई जैसे गुनाहों से महफूज़ रखती है।
उन्होंने इमाम जवाद अ.स.के इस नूरानी फ़रमान की तरफ़ ध्यान दिलाया,
«مَنْ أَصْغی إِلی ناطِق فَقَدْ عَبَدَهُ، فَإِنْ کانَ النّاطِقُ عَنِ اللّهِ فَقَدْ عَبَدَ اللّهَ، وَ إِنْ کانَ النّاطِقُ یَنْطِقُ عَنْ لِسانِ إِبْلیسَ فَقَدْ عَبَدَ إِبْلیسَ».
जो शख़्स किसी की बात ध्यान से सुनता है, वह गोया उसकी इबादत करता है; अगर बोलने वाला अल्लाह की तरफ़ से बोल रहा हो तो उसने अल्लाह की इबादत की, और अगर वह शैतान की ज़बान से बोल रहा हो तो उसने शैतान की इबादत की।
आयतुल्लाह जवाद़ी आमोली ने इस हदीस को आज के मीडिया और सोशल मीडिया के दौर के लिए बहुत अहम बताया। उन्होंने कहा कि जिसे आम तौर पर “वर्चुअल स्पेस” कहा जाता है, वह हक़ीक़त में एक असली फ़ज़ा है, क्योंकि जहाँ ख़यालात पहुँचते हैं, वह फ़ज़ा असली होती है। इसलिए इंसान जो कुछ देखता, सुनता या पढ़ता है, वह उसकी फ़िक्र और रूह पर सीधा असर डालता है।
उन्होंने कहा कि जब कोई शख़्स किताब पढ़ता है, मंज़र देखता है, फ़िल्म देखता है या किसी की बात सुनता है, तो असल में वह उसी सोच की पैरवी कर रहा होता है। अगर यह सब अल्लाह और रसूल (स.ल.) की तालीमात पर हो तो यह इबादत है, और अगर फुज़ूल या गुमराह करने वाला हो तो इंसान अनजाने में उसी का ग़ुलाम बन जाता है।
आयतुल्लाह जवाद़ी आमोली ने हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत अबूज़र (र.) के वाक़िये का हवाला देते हुए कहा कि सच्ची तौहीद इंसान को इतना मज़बूत बना देती है कि वह बहुत सख़्त हालात में भी अल्लाह पर पूरा भरोसा रखता है। अल्लाह चाहे तो ऐसी ज़मीन और ऐसे हालात में भी अपने बंदे को रोज़ी दे सकता है जहाँ ज़ाहिरी साधन ख़त्म हो जाएँ।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि जब इंसान को यक़ीन हो जाए कि हर हलाल रोज़ी अल्लाह के हाथ में है, तो वह हराम रास्तों, रिश्वत, सूद और बदउनवानी की तरफ़ नहीं जाता। यही तौहीद फ़र्द और समाज, दोनों को अख़लाक़ी गिरावट से बचाती है।
आख़िर में आयतुल्लाह जवाद़ी आमोली ने उलेमा और दीनी रहनुमाओं से कहा कि जितना इल्म और ख़ुलूस ज़्यादा होगा, उतना ही बात का असर गहरा होगा। समाज क़ौल और अमल के फर्क़ को समझता है और दीन से बदगुमान नहीं होता, बल्कि गलत अमल करने वालों को अलग मानता है।
उन्होंने ताकीद की कि मस्जिदों को क़ुरआन और अहलेबैत (अ.) की इल्मी तालीमात से आबाद रखा जाए, ताकि दीन का असर इंसान के दिल में भी गहरा हो और समाज में भी मज़बूती से नज़र आए।
माख़ज़: दर्स ए अख़लाक़,
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