۱ آذر ۱۴۰۳ |۱۹ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 21, 2024
سپاہ پاسداران انقلاب اسلامی

हौज़ा/शहीद क़ामिस सुलैमानी की दूसरी बरसी पर आईआरजीसी के चीफ़ कमांडर जनरल हुसैन सलामी से बातचीत में शहीद सुलैमानी की ज़िंदगी और उनकी शहादत के असर की समीक्षा की है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,शहीद क़ामिस सुलैमानी की दूसरी बरसी गुज़री तो आज स्थिति यह है कि दुनिया भर में उनका नाम और याद पहले से ज़्यादा फैल चुकी है। आईआरजीसी की क़ुदस फ़ोर्स के कमांडर की हत्या से न सिर्फ़ यह कि उनके मिशन में किसी तरह की कोई रुकावट पैदा नहीं हुयी बल्कि लोगों के दिलों में ऐसी हलचल पैदा हो गयी है जो पूरी इस्लामी दुनिया को साम्राज्यवादियों के नाजायज़ क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने और जेहाद की दावत दे रही है।
इसी संदर्भ में आईआरजीसी के चीफ़ कमांडर जनरल हुसैन सलामी से इंटरव्यू किया जिसमें शहीद क़ासिम सुलैमानी के आठ वर्षीय जंग में ईरान की पवित्र प्रतिरक्षा के दौर के संघर्ष से लेकर बग़दाद एयरपोर्ट पर शहादत तक के दौर शहादत के असर की समीक्षा की गयी है।

सवालः शहीद क़ासिम सुलैमानी की एक ख़ूबी यह थी कि वह अथक रूप से काम करने वाले थे। इस्लामी क्रांति के सुप्रीम लीडर ने भी इस तरफ़ इशारा किया है। आईआरजीसी के चीफ़ कमांडर और शहीद सुलैमानी की कार्यशैली की जानकारी रखने वाले शख़्स की हैसियत से आप शहीद सुलैमानी की अथक कोशिशों के बारे में बताइये।

जवाबः उनका कारनामा यह था कि वह जंग के दौरान फ़ोर्स तैयार कर देते थे; यानी जंग चल रही है, दुश्मन इलाक़े में मौजूद है, क़ासिम सुलैमानी को उसी जगह सशस्त्र बल और फ़ोर्स बनानी है। इसके लिए बहुत ज़्यादा मेहनत की ज़रूरत होती है। हक़ीक़त में ऐसी हालत में जब दुश्मन हर जगह फैल चुका है और महसूस कर रहा है कि वह आख़िरी क़दम उठा रहा है, आप अचानक पूरे मैदान को उलट देते हैं, आत्मविश्वास पैदा कर देते हैं और ताक़तवर ढांचा तैयार कर देते हैं ताकि मैदान को उलट सकें। यह सिर्फ़ एक मैदान या मोर्चा नहीं था बल्कि एक साथ सारे मोर्चे (लेबनान, सीरिया, इराक़, यमन वैग़रह) सक्रिय हो गए थे। इन सभी मोर्चों को एक साथ संभालना सच में बहुत कठिन काम है! जनाब सुलैमानी दिन रात मेहनत करते थे, लगातर एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े जाते रहते थे। यह अथक कोशिश उनके स्वभाव में थी और उनके काम का तक़ाज़ा भी यही था; क्योंकि अगर अथक कोशिश न करते तो मैदान में पीछे रह जाते और इस तरह के काम नहीं कर पाते। क़ासिम सुलैमानी ने कुछ साल में जंग के दौरान कई मज़बूत प्रतिरोधक फ़ोर्सेज़ बनाईं। वह क़ुद्स फ़ोर्स के कमांडर होने के साथ साथ, ईरानी जनता का भी ख़्याल रखते थे और इस्लामी जगत का भी। वह सच में ऐसे ही थे।

सवालः इस बात में शक नहीं कि शहीद सुलैमानी की हिम्मत, बहादुरी और सूझबूझ के बहुत से नमूने आपके ज़ेहन में होंगे। जंग के मैदान में शहीद सुलैमानी की सूझबूझ ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर का रणनीतिकार बना दिया था यहां तक कि उनकी इस ख़ूबी को दुश्मन भी मानते हैं। इस बारे में कुछ बताइए।

जवाबः शहीद सुलैमानी जज़्बात वाले इंसान थे लेकिन वह जज़्बात में कभी बहते नहीं थे। जहाँ ज़रूरत होती वहाँ ग़ुस्से में होते और सही समय पर ग़ुस्सा पी जाते थे। बहुत विचार करते थे, समीक्षा करते थे, लेकिन डरते नहीं थे। ऐसे नहीं थे कि ग़ैर ज़रूरी सोच-विचार में उलझ जाएं, ग़ैर ज़रूरी एहतियात करें, ग़ैर ज़रूरी तौर पर एहतियाती रवैया अपना लें और बिना किसी वजह के डरें, नहीं! वह बंद रास्तों को खोलने वाले थे।

पवित्र प्रतिरक्षा के दौरान जो ऑप्रेशन करते, पूरी योजना और तैयारी के साथ करते। मिसाल के तौर पर जब अरवंद नदी पार करना चाहते थे तो उसमें आने वाले ज्वार-भाटे का भी हिसाब किताब रखते थे ताकि ग़ोताख़ोरों को पार कराने के लिए बेहतरीन मौक़ा हाथ में रहे। किसी एक जान को बचाने के लिए कम से कम नुक़सान उठाने के लिए दसियों विकल्प के बारे में सोचते थे। वाक़ई बहुत ग़ौर करते उसके बाद अपनी इकाई को आप्रेशन के लिए भेजते थे ताकि उनकी युनिट को कम से कम नुक़सान पहुंचे और दुश्मन को भनक भी न लगने पाए। यही वजह है कि वलफ़ज्र-8 ऑप्रेशन में दुश्मन को भनक भी नहीं लगी कि उन्होंने और उनके पास की इकाइयों ने किस तरह कार्यवाही की। दुश्मन पूरी तरह बेख़बर रहता। दुश्मन को बेख़बर रखने के लिए बहुत सटीक योजना व हिसाब किताब की ज़रूरत होती है। इसी ऑप्रेशन में क़ासिम सुलैमानी बहुत तेज़ी से अरवंद नदी को पार करके ख़ोर अब्दुल्लाह तक पहुंच गए। पूरी तरह तरोताज़ा और चौकन्ने कि अपनी फ़ोर्सेज़ को क्या चीज़ खाने को दें और किस तरह उसे आत्मिक व मानसिक नज़र से हमले के लिए तैयार करें। हर काम की योजना बनाते और सभी मामलों पर नज़र रखते थे। जब तक पूरी तरह यक़ीन नहीं हो जाता कोई ऑप्रेशन नहीं करते थे। इसी वजह से वह टिके रहे और जो लोग उनके साथ थे, आख़िर तक उनके साथ रहते थे, क्योंकि उन्हें उनकी सूझबूझ पर भरोसा था। वे जानते थे कि क़ासिम बिना सोचे समझे कोई काम नहीं करते और किसी की जान को बेवजह ख़तरे में नहीं डालते थे। अस्ल में यह शख़्सियत जैसे जैसे परिपक्व होती जाती थी वैसे वैसे उसके वजूद के विभिन्न आयाम निखरते जाते थे।

सवालः मौजूदा हालात से लगता है कि शहीद सुलैमानी, दुश्मन के लिए ज़िन्दा सुलैमानी से ज़्यादा ख़तरनाक हैं। आपने भी एक बार कहा था शहीद सुलैमानी का नाम और उनकी याद उनकी जिस्मानी मौजूदगी से ज़्यादा ख़तरनाक है। जनाब कासिम ने इस तरह की कामयाबी कैसे हासिल की?

जवाबः क़ासिम जब तक ज़िन्दा थे हम उन्हें एक जनरल सुलैमानी के तौर पर पहचानते थे, लेकिन जब शहीद हो गए, तो लोगों के मन में जो क्रांति पैदा हुयी, नए रास्ते खुले, जवानों के ज़ेहन पर जो असर पड़ा और फैलने लगा तो एक क़ासिम सुलैमानी करोड़ों क़ामिस सुलैमानी बन गए। सबके सब बदला लेने की बात कर रहे हैं, तो वह ज़्यादा ख़तरनाक हो गए हैं। आज बदला एक स्ट्रैटेजी, लक्ष्य, मक़सद और प्रेरणादायक बिंदु बन गया है। हक़ीक़त में क़ासिम की शहादत के बाद, जवानों में जेहाद का रुझान ज़्यादा बढ़ा है। यह दुश्मन के लिए ख़तरा पैदा करता है, हम जब भी मौत से न डरे तो दुश्मन के लिए ज़्यादा ख़तरनाक हो जाते हैं।

क़ासिम की कामयाबी का राज़ यह था कि वह मैदान में ख़ुद को इमाम ख़ामेनेई का सिपाही समझते थे। शहादत से पहले की क़ासिम की कामयाबियां और शहादत के बाद उनकी इज़्ज़त सुप्रीम लीडर के निर्देशों के कड़े अनुपालन की वजह से थी। अगर एक जुमले में कहना चाहूं कि हमारे अधिकारियों को किस तरह क़ासिम की तरह बनना चाहिये और वे कैसे वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व का बेहतरीन ढंग से अनुपालन कर सकते हैं, तो यही कहूंगा कि जो कुछ इस्लामी क्रांति के सुप्रीम लीडर कहें, उस पर अमल करें तो निश्चित रूप से क़ासिम जैसी क़िस्मत और अंजाम उन्हें मिलेगा। उनकी कामयाबी का यही राज़ है।

बाक़ी बातें इसी के तहत हैं; यानी निष्ठा, सच्चाई, बहादुरी, मिशन के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना, शहादत व जेहाद से प्रेम ये सब वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व, इमाम और सुप्रीम लीडर का पालन करने से हासिल होगा। हक़ीक़त में अगर हम क़ासिम की कामयाबी का राज़ समझना चाहते हैं तो यही है कि क़ासिम आज्ञापालन के ज़रिए कामयाब हुए

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