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समाचार कोड: 379676
17 अप्रैल 2022 - 08:08
मौलाना अली हाशिम

हौज़ा / मख़लूक़ चाहे इंसान हो या जानवर, इंसान मुसलमान हो या ग़ैर मुसलिम अगर ज़रूरतमंद है तो इस्लाम ने उसकी मदद का हुक्म दिया है! किसी से बदगुमानी और किसी की तौहीन किसी भी हाल में सही नहीं है! लेकिन कभी कभी ख़ामोश रहना भी मुनासिब नहीं है!

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी !

लेखकः हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मौलाना सय्यद अली हाशिम आब्दी

ग़रीबों की मदद, तालीम, एलाज और रोज़गार की फिक्र और उसमें मदद करना जहाँ इंसानियत है वहीं इस्लाम का पैग़ाम भी!
क़ुरआन और हदीस में जहाँ एक अल्लाह की इबादत का हुक्म है वहीं उसकी मख़लूक़ की ख़िदमत का भी हुक्म है! मख़लूक़ चाहे इंसान हो या जानवर, इंसान मुसलमान हो या ग़ैर मुसलिम अगर ज़रूरतमंद है तो इस्लाम ने उसकी मदद का हुक्म दिया है!
लेकिन आज कल इंसानियत का दर्र रखने वाले कुछ इस बारे में अजीब अजीब बात करते हैं! ख़ैर किसी से बदगुमानी और किसी की तौहीन किसी भी हाल में सही नहीं है! लेकिन कभी कभी ख़ामोश रहना भी मुनासिब नहीं है!
कोई कहता है मदरसा, मस्जिद, इमामबाड़ो में पैसे देने के बजाए ग़रीबों को दें, अज़ादारी, दीन, और तालीम के बजाये इन्ही पैसों से ग़रीबों की मदद की जाये!
बेशक मदद होनी चाहिये, खुदा का शुक्र इंसानियत का दर्द रख़ने वाले ज़ाती तौर पर मदद कर रहे हैं! इसी तरह दीनी, तालीमी और फलाही इदारे भी मदद कर रहे हैं! और मदद करनी भी चाहिये यही इस्लाम की तालीम है!
कोविड19 में हम सब इसके गवाह भी हैं! अल्लाह उन सब ख़िदमत करने वालों को सलामत रखे!
लेकिन क्या किसी नेक काम को करने के लिये दूसरे नेक काम को रोकना सही है?
क्या यह मुम्किन नहीं कि हराम को रोक हलाल किया जाये?
क्या यह मुम्किन नहीं कि रिश्वत बंद की जाये?
क्या यह मुम्किन नहीं कि निकाह मैरेज हाल के बजाये मस्जिदों में हों?
क्या यह मुम्किन नहीं कि अपने बच्चे की बर्थडे पर खर्च होने वाले पैसे को किसी ग़रीब बच्चे की तालीम पर खर्च किया जाये?
क्या यह मुम्किन नहीं कि शादी की ग़ैर ज़रूरी रस्मों के बजाये ग़रीब लड़कियों और लड़कों की शादी कराई जाये?
क्या यह मुम्किन नहीं कि कारोबार में काला बाज़ारी के बजाये बे रोज़गारों को रोज़गार कराया जाये?
क्या यह मुम्किन नहीं कि दौलत व शोहरत की पार्टियों के बजाये क़ौम के पढ़ने वाले बच्चों को अच्छी तालीम दिलायी जाये?
क्या यह मुम्किन नहीं कि ज़ाती और घरेलू ग़ैर ज़रूरी ख़र्च के बजाये लोगों के घर आबाद किये जायें?
याद रखिये अगर अज़ादारी को कम करने की कोशिश की गई तो हम दीन से दूर हो जायें गे!
अगर मस्जिदों से लापरवाही की गई तो हम इबादत ख़ास तौर से इज्तेमाई इबादत से दूर हो जायें गे!
अगर मदरसों से लापरवाह हुये तो दीनी तालीम का सिलसिला रुक जाये गा!
नेक काम हो लेकिन किसी दूसरे नेक काम रोक कर नहीं!

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