हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत हम्ज़ा (अ.स.) वाक़ई पैग़म्बरे इस्लाम के मज़लूम सहाबी हैं। यानि उनका जो रोल रहा है, या अंदाज़ से वह ईमान लाए थे और बुलंद आवाज़ में कह रहे थे कि मैं मुसलमान हो गया हूं। इब्ने असीर के मुताबिक़ अबूजहल की अच्छी ख़ासी पिटाई भी की जैसा कि इब्ने असीर “उसदुल ग़ाबा” किताब में कहते हैं।
या फिर हिजरत के बाद, मदीने जाना और पैग़म्बरे इस्लाम की मर्ज़ी के मुताबिक़ इस्लाम की अज़ीम इमारत बनाने में उन्होंने जो रोल अदा किया या फिर पहली जंग जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने जैसा कि एक रिवायत में बताया गया है कि सब से पहले पैग़म्बरे इस्लाम ने किसी छोटी जंग में जो गुट भेजा उसके सिपहसालार, हज़रत हम्ज़ा थे। उनके लिए एक झंडा भी बनाया और उन्हें लड़ाई के लिए भेजा। उसके बाद बद्र की जंग में जो कुछ उन्होंने किया और फिर ओहद की लड़ाई में, शायद बद्र की लड़ाई की बात है। इस युद्ध के एक जंगी क़ैदी का कहना है कि वो शख़्स जिसके पास जंग के दौरान एक निशानी थी, उसके कपड़े पर एक निशानी थी।
अस्ल में हज़रत हम्ज़ा शायद अपने लिबास में किसी ख़ास निशानी के साथ लड़ाई में शामिल हुए थे। उस कैदी ने पूछा कि निशानी के साथ कौन लड़ रहा था? उसे बताया गया कि वह हम्ज़ा बिन अब्दुलमुत्तलिब थे। उसने कहा हमारी यह दुरगत उन्ही की वजह से हुई है। उन्होंने बद्र की लड़ाई में हमारी फौज की कमर तोड़ दी, यानि इस तरह की हस्ती। इस बड़ी हस्ती को आज तक सही तौर पर पहचाना नहीं गया। उनका नाम ज़्यादा नहीं लिया जाता। उनके बारे में बहुत ज़्यादा मालूमात नहीं है। उनकी फज़ीलतों के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है। सच में उन्हें भुला दिया गया है।
इसी लिए मेरा कहना है कि अल्लाह मुस्तफ़ा अक्क़ाद पर रहमत करे और हमें उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने अपनी फिल्म 'द मैसेज' में इस अज़ीम हस्ती को एक अहम और बड़े अदाकार की मदद से शानदार तरीक़े से फ़िलमाया है। यक़ीनी तौर पर यह फिल्म एक शानदार काम है, ख़ास तौर पर हज़रत हम्ज़ा से मुतल्लिक़ जो रोल है। वैसे उनका रोल करने वाले एक्टर भी गैर मामूली तौर पर मशहूर और अहम अदाकार हैं। यह फिल्म बहुत ख़ास है और किसी हद तक हज़रत हम्ज़ा की ज़िदगी पर रौशनी डालने में कामयाब रही है अलबत्ता किसी हद तक। इस लिए इस तरह के कामों का जारी रहना ज़रूरी है। यही नहीं बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम के दूसरे सहाबियों के सिलसिले में भी यह काम होना चाहिए।
हज़रत अम्मार के बारे में भी यह काम होना चाहिए। हज़रत सलमान के बारे में भी यही काम किया जाना चाहिए। हज़रत मेक़दाद के बारे में भी। हज़रत मेक़दाद को कितने लोग जानते हैं? किसे यह मालूम है कि उन्होंने क्या किया है? या इसी तरह हज़रत जाफ़र, हज़रत जाफ़र इब्ने अबूतालिब तो ख़ास तौर पर क्योंकि उनकी ज़िदगी में जो हालात रहे वह फिल्म वालों की ज़बान में काफी “ड्रामेटिक” हैं। वह उनकी हिजरत और इथोपिया का सफर, जिस तरह से वह गये और फिर जिस तरह से वापस आए यह सब बहुत अहम चीज़ें हैं और इन्हें आर्ट की नज़र से देखा जा सकता है। अच्छी फिल्में बनायी जा सकती हैं।
तो इन सब बातों की बुनियाद पर पहली बात तो यह कह सकते हैं कि हज़रत हम्ज़ा अलैहिस्सलाम मज़लूम हैं और उन्हें वैसे नहीं पहचाना गया जैसे पहचाना जाना चाहिए था। ऐसा लगता है कि जब हज़रत हम्ज़ा शहीद हुए तो खुद पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें नमूना बनाना चाहा। पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें “शहीदों का सरदार” कहा था और फिर जब मदीना गये तो देखा कि ‘अंसार’ (मदीना के मूल निवासियों) की औरतें रो रही हैं। क्योंकि बद्र की लड़ाई में 72 लोग शहीद हुए थे, 4 मुहाजिर थे और 68 अंसार थे। अंसार जो मदीना के थे, उनकी औरतें रो रही थीं, पैग़म्बरे इस्लाम ने ग़ौर से सुना और फिर कहा कि हम्ज़ा पर कोई रोने वाला नहीं है! जब मदीने की औरतों तक यह बात पहुंची तो उन्होंने कहा कि अब हम सब अपने शहीद पर रोने से पहले हम्ज़ा पर रोएंगे।
पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें यह काम करने पर तैयार किया था यानी पूरे मदीने को हज़रत हम्ज़ा के लिए पैग़म्बरे इस्लाम ने अज़ादार बना दिया था। इसका क्या मतलब है? यानी पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत हम्ज़ा की अहमियत ज़ाहिर करना चाहते हैं। वह शहीदों के सरदार हैं और ऐसी हस्ती हैं जिन पर सबको रोना चाहिए। नमूना और मॉडल इसी तरह बनाया जाता है।
इमाम ख़ामेनेई,