۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
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हौज़ा/ हुज्जतुल इस्लाम वन मुस्लिमीन मशहूर आलेमदीन नासिर रफ़ीई ने तेहरान में इमाम ख़ुमैनी र.ह. इमामबाड़े में अपनी तक़रीर में कहां: हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के महान किरदार को बयान किया और इस्लाम में अलग अलग मंचों पर महिलाओं के आदर्श योगदान के बारे में बताया। साथ ही इसकी शर्तों पर भी प्रकाश डाला।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हुज्जतुल इस्लाम वन मुस्लिमीन मशहूर आलेमदीन नासिर रफ़ीई ने तेहरान में इमाम ख़ुमैनी र.ह. इमामबाड़े में अपनी तक़रीर में कहां: हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के महान किरदार को बयान किया और इस्लाम में अलग अलग मंचों पर महिलाओं के आदर्श योगदान के बारे में बताया। साथ ही इसकी शर्तों पर भी प्रकाश डाला।
पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन है, आप फ़रमाते हैः अल्लाह फ़ातेमा के राज़ी होने से राज़ी और फ़ातेमा के क्रोधित होने पर क्रोधित होता है। जब हज़रत फ़ातेमा की मर्ज़ी अल्लाह की मर्ज़ी और उनका क्रोध अल्लाह का क्रोध है तो इसका मतलब कि वे मासूमा हैं। इसलिए ऐसी महान हस्ती को ज़रा भी पीड़ा पहुंचाना बहुत बड़ा गुनाह है। यह हस्ती इतनी महान हैं कि उनका थोड़ा सा अपमान भी, बहुत बड़ा अपमान समझा जाएगा।
आज के ज़माने में समाज में ऐसे लोग बहुत हैं जो अपनी बेटियों से मोहब्बत करते हैं, जबकि पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने में किसी के मुंह से अपनी बेटी के लिए इतना भी नहीं निकलता था कि मैं तुम पर क़ुर्बान, अल्लाह ने ऐसी महान बेटी अपने पैग़म्बर को अता की।

मेरी स्पीच का विषय, महिला के सामाजिक मंच पर सरगर्म होने के क्षेत्र और सीमाएं और फिर फ़ातेमी घराने की ख़ूबियां हैं।

मैंने इस्लाम के आग़ाज़ में महिलाओं की सामाजिक सरगर्मियों की लिस्ट तैयार की है। ख़ैर, इस्लाम के आग़ाज़ में सरगर्मियाँ आज के दौर की तरह इतनी व्यापक नहीं थीं। महिला शायरों का एक ग्रुप है। एक किताब जिसका टाइटल है “मोजमुल-निसा-अलशाएरात-फ़िल-जाहेलीया-वल-इस्लाम”। इस किताब में 504 महिला शायरों के नाम का ज़िक्र है। इन महिला शायरों में एक सौदा हमदानी हैं, जो सिफ़्फ़ीन की जंग में दुश्मन के ख़िलाफ़ और इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के समर्थन में शेर पढ़ती थीं।
दूसरा ग्रुप धर्मशास्त्र, पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या का ज्ञान रखने वाली महिला विद्वानों का है। ‘हयातुअ-सहाबियात’ एक किताब है जिसे अब्दुर्रहमान अलअक और दूसरों ने लिखा है। इब्ने साद ने ‘तबक़ात’ में ऐसी 500 से ज़्यादा सहाबियात का ज़िक्र किया है। इनमें बहुत सी ऐसी महिलाएं थीं जो हदीस, धर्मशास्त्र और पवित्र क़ुरआन के ज्ञान की विद्वान थीं। उन्हीं में से एक नफ़ीसा ख़ातून हैं। यह महिला इमाम हसन अलैहिस्सलाम की पोती और इस्हाक़ मोतमिन की बीवी थीं। ‘अलआलाम’ में ज़िरिकली ने उन्हें हदीस और पवित्र क़ुरआन की व्याख्या का विद्वान बताया है, यहां तक कि अहमद बिन हंबल उनसे ज्ञान की गुत्थियां सुलझाते थे, उनकी क्लास में बैठते थे और शाफ़ई उनकी बातों और हदीसों को सुनते और दूसरों को उनका हवाला देते थे।

एक और ग्रुप नर्सिंग का काम करने वाली महिलाओं का है। उम्मे सेनान असलमी नर्स थीं। वह ख़ैबर जंग के वक़्त पैग़म्बरे इस्लाम के पास आयीं और कहा हे अल्लाह के पैग़म्बर! क्या मैं आपके साथ इस लड़ाई में चल सकती हूं ताकि घायलों का इलाज करूं? पैग़म्बरे इस्लाम ने उनकी दरख़ास्त क़ुबूल की और वह उनके साथ गयीं। एक और मलिहा नर्स हैं जिनका नाम नसीबा है। वह ओहद जंग में मौजूद थीं।

इन सभी महिला शायरों, विद्वानों और नर्सों ने समाज में अपना योगदान दिया। इतिहास में व्यापार में सरगर्म महिलाओं का भी ज़िक्र है जिनमें सबसे प्रमुख नाम हज़रत ख़दीजा सलामुल्लाह अलैहा का है। पैग़म्बरे इस्लाम ने कभी भी इस महान महिला के इस काम को ग़लत नहीं कहा। यह उस ज़माने की महिलाओं की लिस्ट है जो इन क्षेत्रों में सरगर्म रहीं। कुछ तो ऐसी महिलाएं थीं जिन्हें बहुत से आर्ट आते थे जैसे मारिया क़िबतिया।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा मदीना के समाज में सरगर्म थीं। आप सवालों का जवाब देने का तरीक़ा सिखाती थीं; यहाँ तक कि 40 रातें इमाम हसन और इमाम हुसैन के साथ सवारी पर बैठ कर लोगों के घर जातीं और उनकी औरतों से बात करती थीं। वे चाहती थीं कि मर्द लोग हज़रत अली का साथ दें; यहाँ तक कि मस्जिद में गयीं और तक़रीर की। बहुत ही शानदार तक़रीर की, मैं जवानों से सिफ़ारिश करुंगा कि वह एक बार हज़रत ज़हरा की फ़िदक नामी तक़रीर ज़रूर पढ़ें।
देखिए जेहाद, सत्य का पालन, दुश्मन से संघर्ष और शिक्षा वे क्षेत्र हैं जिनमें महिला सामाजिक रोल अदा कर सकती है, लेकिन इसकी कुछ शर्तें हैं। पहली यह कि परिवार को अपनी सामाजिक सरगर्मियों पर क़ुर्बान न कर दे। जी हाँ मेडिकल साइंस महिला के लिए अच्छी फ़ील्ड है। कुछ मौक़ों पर अगर महिला डॉक्टर हो तो मर्द डॉक्टर को दिखाना जायज़ नहीं है; लेकिन सामाजिक क्षेत्रों में महिला की मौजूदगी ऐसी न हो कि वह शादी न करे या माँ न बने।

जब अस्मा बिनते उमैस हबशा से लौटीं तो महिलाओं ने उनसे कहा कि आप 14 साल नहीं थीं, अब जबकि आप लौट आयी हैं तो पैग़म्बरे इस्लाम से कहिए कि औरतों को इस बात का दुख है कि वे जंग के मोर्चे पर जाने से वंचित हैं! उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम से जाकर कहा तो हज़रत ने फ़रमाया कि मैं इन महिलाओं के के जज़्बात का शुक्रिया अदा करता हूं लेकिन उनसे कहना कि औरतों का जेहाद अच्छी शौहरदारी है। यानी अगर सामाजिक मंच पर मौजूदगी के साथ अच्छी शौहरदारी नज़रअंदाज़ हो जाए तो यह ख़तरनाक है। शादी करने और माँ बनने की ओर से लापरवाही नहीं होनी चाहिए। अलबत्ता माँ बनने और सामाजिक मंच पर सरगर्म रहने के बीच किसी तरह का टकराव नहीं है। क्योंकि हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा 4 बच्चों की माँ होने के साथ साथ सामाजिक मंच पर सरगर्म थीं। वह समाज की ज़रूरत भर शिक्षा देती थीं। परिवार की ओर से लापरवाह न होना बड़ी इबादत है। तो समाज में सरगर्म होने की पहली शर्त परिवार पर ध्यान देना है।

दूसरी शर्त अपने पहनावे व वेक़ार की हिफ़ाज़त करना है। जब हम यह कहते हैं कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा मस्जिद गयीं और तक़रीर की तो हमें यह भी पता होना चाहिये कि वह किस तरह, किस पहनावे के साथ मस्जिद गयीं। रवायत में हैः

“लासत ख़ेमारहा अला रासेहा वश्तमलत बे जिलबाबेहा व अक़बलत फ़ी लोमतिन मिन हफ़दतेहा व नेसाए क़ौमेहा।“

ख़ेमार ऐसे स्कार्फ़ को कहते हैं जिससे सामने का सारा बदन और बाज़ू ढका रहता है। जिलबाब उस लंबे लेबास को कहते हैं जिससे शरीर सिर से पैर तक ढंका रहता है। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ऐसे लेबास के साथ कुछ औरतों और सगे रिश्तेदारों के बीच में मस्जिद में जातीं हैं और परदे के पीछे से तक़रीर करती हैं। रिवायत में है कि जब वह रास्ता चलती थीं तो उनके लेबास का एक हिस्सा उनके पैरों के नीचे आता था।

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