۱ آذر ۱۴۰۳ |۱۹ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 21, 2024
लखनऊ

हौज़ा / जानशीने फखरुल उलेमा ने इसे अमल में लाए आज वह स्कूल की इमारत तैयार करके क्लासो की मंजिल तक ले आए हैं,यह स्कूल ए आई एम एस (A.I.M.S.) अंग्रेजी मीडियम स्कूल के नाम से जाना और पहचाना जाएगा।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,एक रिपोर्ट के मुताबिक,कुछ साल पहले फखरुल उलमा, हज्जतुल इस्लाम मौलाना मिर्जा मुहम्मद आलम साहब ने एक दीनी मदरसा की स्थापना की थी और उन्होंने इस मदरसे के विकास के चरणों को निर्धारित करने के लिए दिन रात पसीना बहाया था।
उन्होंने इस दीनी मदरसे की स्थापना के लिए जान तोड़ मेहनत की इस मदरसे को मदरसा जमीयत-उल-तब्लीग़ या मदरसा आलम साहब" के नाम से जाना जाता हैं।

फखरुल उलमा हज्जतुल इस्लाम मौलाना मिर्जा मुहम्मद आलम साहब के निधन के बाद ज्ञान का यह क्षेत्र विभिन्न विद्वानों और रईसों के प्रबंधन के तहत विभिन्न उतार चढ़ाव से गुज़रता रहा है।

आप के बाद खतीब अकबर मौलाना मिर्ज़ा मुहम्मद अतहर साहब इसके प्रबंधन रहें बहुत अच्छे तरीके चलाते रहे और जब भी छात्रों और शिक्षकों को कोई समस्या आती तो वह उसे बहुत अच्छे तरीके से हल करते थे,

जब से फखरुल उलमा मौलाना मिर्जा मुहम्मद आलम साहब के बेटे विशेषकर हज्जतुल इस्लाम मौलाना मिर्जा मुहम्मद जाफर अब्बास साहब ने होश संभाला, तब से वे अपने पिता की तरह  मदरसे के विकास में दिन रात प्रयास कर रहे हैं। अन्य मामलों में भी सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं।

एक समय था जब मदरसा छात्रों से भरा रहता  था और शिक्षक भी अपने छात्रों को प्रशिक्षण देने में व्यस्त रहते थे। भारत की भूमि ज्ञान की दृष्टि से बहुत बदल चुकी थी और शिक्षा व्यवस्था भी बदल चुकी थी प्राचीन काल में उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा को उस युग की कुलीनता का मानक माना जाता था।

मदरसों में पढ़ने वाले लोग अक्सर हकीम और डॉक्टर होते थे, क्योंकि मदरसों के पाठ्यक्रम में चिकित्सा का एक पाठ भी शामिल होता था जिसे मदरसों के छात्र पढ़ते थे अपने स्वयं के स्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है। सरकारी और अन्य संस्थानों की भाषा भी फ़ारसी और अरबी थी क्योंकि प्राचीन दस्तावेज़ इसका समर्थन करते हैं ।

लेकिन धीरे धीरे समय बदलता गया कार्यालयों की भाषा अंग्रेजी हो गई अरबी और फारसी भाषा गायब होने लगी और मेडिकल कॉलेज में भी अंग्रेजी शुरू हो गई लेकिन दुर्भाग्य से प्रबंधन और मदरसों के प्रधानाचार्य सोते रहे, उन्हें यह भी पता नहीं चला कि उनकी लापरवाही या बेहोशी से देश और आलिमों को कितना नुकसान उठाना पड़ा। 

मदरसों के पढ़े लिखे लोगों ने तब्लीग को आजीविका का साधन बताया जिसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्र के साथ-साथ दीन और दीन का भी पतन हो गया और उलेमा ने अपनी अंतर्दृष्टि का उपयोग नहीं किया।

अब जीवन के मूल्य बदल गए हैं धर्म के प्रति रुचि कम हो गई है बल्कि उर्दू, फ़ारसी और अरबी को एक भाषा के रूप में परिभाषित किया जाने लगा है। लगभग हर मन यह सोचने लगा है कि धार्मिक शिक्षा गरीबी का कारण है, इसीलिए अरबी मदरसों का पाठ्यक्रम सूना हैं।

और जो कुछ वसंत बाकी था वह समय की साजिशों का नज़ार बन गया है, और अब छात्र भी नहीं मिलते जब उनकी तलाश की जा रही है लेकिन क्यों? स्वयं मदरसे के छात्र इस समस्या की ओर आकर्षित हुए हैं।

अलहम्दुलिल्लाह जब से मिर्ज़ा जाफ़र अब्बास साहब ने मदरसा संभाला तब से उन्होंने इस मामले पर विचार किया और हमेशा मदरसे में एक अंग्रेजी शिक्षक रखा ताकि अरबी और फ़ारसी के छात्र इस भाषा से परिचित हो सकें।

 धीरे धीरे उनकी चिंता बढ़ती गई और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि मदरसे में एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोला जाना चाहिए ताकि शहर के छात्र और बच्चे अपनी ज्ञान की प्यास बुझा सकें उन्होंने इस स्कूल को खोल वह (AIMS) इंग्लिश मीडियम स्कूल के नाम से जाना और पहचाना जाएगा।

एक दिन मैं लखनऊ गया तो मुझे लगा कि मुझे भी जामिया-ए-तबलीग़ जाना चाहिए अज़ीज़ मौलाना मुहम्मद हसन जलालपुरी साहब मुझे ले गए स्कूल की बिल्डिंग देखकर मुझे बेहद खुशी हुई जिसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता क्योंकि मैंने कुछ मदरसों के प्रिंसिपलों को समझाया था कि मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ मेडिकल कॉलेज या मेडिकल कॉलेज या उसकी तैयारी भी कराई जाए। उन्होंने इस कार्य के लिए बड़ी मेहनत की और कामयाब हुए अल्हम्दुलिल्लाह मैं इनके हक में दुआ करता हूं।

हम अल्लाह तआला से ही दुआ करते हैं कि अल्लाह तआला फखरुल उलमा की हिफाज़त करें और उनको उनके मकसद में कामयाबी अता करें।

मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी

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