۲ آذر ۱۴۰۳ |۲۰ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 22, 2024
समाचार कोड: 390670
16 जुलाई 2024 - 12:18
کربلا

हौज़ा / दुनिया की अदालत को फैसला,जजमेंट देने में समय लगता है मगर दिल की अदालत को नही लगता दिल की अदालत जिस तरह दंडित करती है उसी तरह अवॉर्ड भी देती है दिल की इस अदालत के न्यायाधीश साहब का नाम (ज़मीर) है अंतरात्मा के नाम से जाना जाता हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,दुनिया की अदालत को फैसला,जजमेंट देने में समय लगता है मगर दिल की अदालत को नही लगता दिल की अदालत जिस तरह दंडित करती है उसी तरह अवॉर्ड भी देती है दिल की इस अदालत के न्यायाधीश साहब का नाम (ज़मीर) है अंतरात्मा के नाम से जाना जाता हैं।

‘ज़मीर’ इंसान को अच्छे काम करने पर अवॉर्ड देता है, तो इंसान मुस्कुराता हुआ समुदाय से मिलता है । मगर जब इंसान जुर्म/बुराई करने का इरादा करता है, तो ज़मीर उसको रोकता है, इसी कारण उसे घबराहट होती है, फिर भी इंसान जुर्म/बुराई कर लेता है, तो दिल की अदालत (ज़मीर) फौरन उसे मुजरिम घोषित करके दंडित (सजा) करती है, तो वह इन्सान जनसमुदाय से छुपता रहता है, स्वयं को तडिपार कर लेता है । ऐसे तडिपार लोग जनसमुदाय को विकलांग बनाते रहते हैं । विकलांग समुदाय में सज्जनों को सन्मानित तो किया जाता है, मगर दुर्जनों को दंडित नहीं किया जाता । ऐसे समय लोगों की जिम्मेदारी है कि दुर्जनों को दंडित करवाएँ और बुराइयों को रोकने का प्रयास करें ।

यदि “हम ये सोचे की हमसे क्या मतलब” तो बुराइयाँ फैलती हैं और मुजरिम-तड़ीपार का हौसला बढ़ता है, तो वह बार-बार जुर्म/बुराई करता है, अब उसको रोकने के लिए उसके “ज़मीर” की आवाज बंद हो जाती है, उसका ज़मीर मुर्दा(मृत) बन जाता है और दिल की अदालत भी बंद हो जाती है ।

मुर्दा ज़मीर के लोग समुदाय को “पतीत” बना देते हैं । “पतीत” समुदाय में दुर्जनों को सन्मानित किया जाता है और सज्जनों को दंडित किया जाता है । समुदाय की ऐसी भयावह स्थिति के बारे में “गीता” में कहा गया है - “परित्राणाय साधूनां विनाशायच दुष्कृताम।

याद रहे! समुदाय के प्रति हर व्यक्ति जिम्मेदार है। राज्यकर्ता “शासक” की यह जिम्मेदारी निभाना “राजधर्म” है, क्योंकि राष्ट्र मानव चरित्र के साथ विकसित होता है ।

मगर विडंबना यह है कि आज दुनिया का मानव समुदाय कहीं पर विकलांग तो कहीं पर पतीत हो गया है ऐसे समय इस गंभीर समस्या का निवारण के लिए हमें इतिहास के ऐसे जिम्मेदार व्यक्तित्व के कार्य को आदर्श बनाना होगा।

जिसने मानव समूह के ज़मीर को जिंदा किया हो, और उसकी कार्यशैली ‘वेद-बाईबल और कुरान’ के आदेश के अनुरूप हो । पंडीत चंद्रिका प्रसाद कहती हैं ‘हुसैन’ के व्यक्तीत्व में ज्ञानयोग, कर्मयोग, धर्मयोग और राजयोग था।

जो स्थिति आज, मानव समूह की है, वैसी स्थिति आज से 1344 वर्ष पूर्व, इ.स. 680 में अरब साम्राज्य के तानाशाह ‘यजीद’ के शासन की थी।

उसकी राजकीय, धार्मिक, सामाजिक नीतियों ने जनसमुदाय को “पतीत” बना दिया था मानवीय मूल्यों की पायमली हो रही थी, ‘सच’ की उपेक्षा तो झूठे परिबलों को प्रोत्साहित किया जाता था।

धनवान के लिये कोई कानून नहीं था, जब के गरीब-दुर्बलों की अपना अस्तित्व बचाने के लिए चीखें उठती थी, तो उसे दबाया जाता था ‘यजीद’ के साम्राज्य में मुस्लिम, ज्यु, क्रिश्चियन और अन्य संप्रदाय थे । मगर उन सबका ज़मीर मर चुका था, इसी कारण उनका धर्म, इबादत, प्रार्थना केवल एक औपचारिकता तक सीमित था।

अरब साम्राज्य क्षेत्र, सीमा, संपत्ती की दृष्टी से महासत्ता थी और उसका अनुकरण अन्य राष्ट्रों में हो रहा था, जैसे आज सुपरपावर राष्ट्र का अनुकरण हो रहा है । इसी कारण मानवसमुह पतीत बन गया था । ऐसे समय जनसमुदाय के ज़मीर को जिंदा करने की जिम्मेदारी हर व्यक्ती की थी, मगर ‘यजीद’ की नितीयों से घबराकर लोग जिम्मेदारी से भाग रहे थे ।

ऐसी भयावह स्थिती में ‘हुसैन’ अपनी जिम्मेदारी पुरी कर रहे थे, लोगों के ज़मीर को जिंदा करने के प्रयास में, अच्छाइयों को प्रेरित करने और बुराइयों को रोकने का अभियान इमाम ‘हुसैन’ ने अपने वतन (मदीना) में शुरू किया था।

झूठ के बलबूते पर ‘यजीद’ ने स्वयं को मुसलमानों का खलीफा घोषित कर दिया, तो लोगों ने विरोध किया, मगर ‘यजीद’ ने विरोधियों को पद-धन-भय से चुप कर दिया, तो कुछ भूमिगत हो गए । मगर ‘हुसैन’ ने विरोध जारी रखा, ‘यजीद’ को खलीफा नहीं माना और साफ शब्दों में यह कहकर नकार दिया की “मेरे जैसा, ‘यजीद’ जैसे की ‘बयअत’ नहीं कर सकता”। 

‘हुसैन’ का यह वक्तव्य हर समय के लिए और हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गया है, इसीलिए जो भी सच्चा और न्यायी है, वह झूठ और अन्याय का विरोध और सामना करता आज भी दिखाई देता है। ‘हुसैन’ ने अपने अभियान के साथ ‘यजीद’ की नीतियों के विरोध में अपने साथियों के साथ कर्बला में सत्याग्रह शुरू किया।

कर्बला जाने के मार्ग में ‘यजीद’ के सिपाहियों ने ‘हुसैन’ को घेर लिया, उस वक्त ‘यजीद’ के सिपाही प्यासे थे, ऐसे समय ‘हुसैन’ ने अपने पास का पानी ‘यजीद’ के सिपाहियों को पिलाकर मानवता को उजागर किया और अपने सत्याग्रह का उद्देश्य प्रकाशित किया ।

यजीद’ मुस्लिम शासक होते हुए भी उसकी नीतियों का विरोध करके ‘हुसैन’ ने स्वयं को बिनसंप्रदायवादी होने का प्रमाण दिया, क्योंकि ‘यजीद’ के साम्राज्य में मुस्लिम, ज्यु, क्रिश्चियन और अन्य अल्पसंख्यक संप्रदाय का समुदाय भी था ।

‘यजीद’ के जुल्म की भिषणता और बुराइयों की उग्रता, ‘हुसैन’ के इरादे-उद्देश्य और सोच को नहीं बदल सकी । मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए ‘हुसैन’ ने ऐसे साथी लिए जिनके चरित्र पर कोई धब्बा नहीं था, और ना किसी यजीदी सिपाही ने उनसे कहा, कि तुमको बुराई करते हमने देखा है।

ऐसे 72 साथियों में 18 साथी ‘हुसैन’ के परिवार के सदस्य थे । ‘हुसैन’ के पड़ाव तक खानेकी रसद और जलाशय से पानी लाने के मार्ग ‘यजीद’ ने बंद करवा दिए । फिर भी तीन दिन के भूखे-प्यासे ‘हुसैन’ और उनके साथियों का संयम नहीं टूटा।

हुसैन’ के सत्त्याग्रह पड़ाव पर ‘यजीद’ की सेना ने हमला कर दिया । ‘हुसैन’ के साथी, परिवार के सदस्य और ‘हुसैन’ स्वयं अंत तक यजीदी सेना का प्रतिकार (जिहाद) करते शहीद हो गए । स्वामी शंकराचार्यजी (1978) ने कहा -- “मैंने ‘हुसैन’ से बढकर कोई शहीद नहीं देखा।

हज़रत इमाम ‘हुसैन’ की कुर्बानियों ने लोगों को निर्भय बना दिया, ‘यजीद’ की नीतियों के विरोध में आवाज उठी । अन्य राष्ट्रों में क्रांति की चेतना जागी, जनसमुदाय का ज़मीर जिंदा हो गया।

‘हुसैन’ का अभियान केवल उस वक्त के लिये मर्यादित नहीं था, बल्की हर वक्त के लिये मानव समुदाय के ज़मीर को जिंदा करने का सोचा समझा अभियान था । लोकमान्य तिलकजीने कहा -- ‘हुसैन’ विश्व के पहले सत्त्याग्रही हैं ।

‘हुसैनी विचारधारा और यजीदी विचारधारा का विवाद किसी न किसी स्वरूप में अस्तित्व में आता रहता है। सत्य-असत्य की दुविधा में समुदाय रहता है, जालिम और पीड़ित में तनाव होता रहता है, ऐसे समय इमाम ‘हुसैन’ के अभियान का आदर्श रखते हुए जनसमुदाय को ‘पतित से पावन’ बना सकते हैं।

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