रविवार 29 जून 2025 - 16:22
अज़ादारी और तर्बियत-ए-औलाद

अज़ादारी और तर्बियत-ए-औलाद

लेख: सैयद साजिद हुसैन रिज़वी मोहम्मद

हौज़ा / आज के दौर में, जहाँ बच्चों पर हर तरफ़ से फ़िक्री और सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं, अज़ादारी हमारे बच्चों के दिलों और दिमाग़ को मज़बूत रखने का सबसे असरदार ज़रिया है। हमें अपने बच्चों को मजलिसों में साथ लेकर जाना चाहिए। चाहे वे छोटे हों या बड़े, उन्हें इमाम हुसैन (अ.) और अहलेबैत (अ.) की क़ुर्बानियों, उनके सब्र, ग़ैरत और इज़्ज़त के वाक़ेआत सुनाने चाहिए, क्योंकि इन वाक़ेआत में वह ताक़त है जो बच्चों के किरदार को सँवार देते हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,अज़ादारी अहलेबैत (अ.) की वह अज़ीम दौलत है, जिसमें आँसुओं की अपनी बेइंतिहा अहमियत और मक़ाम है। इमाम हुसैन (अ.) के ग़म में बहने वाला हर आँसू बेहिसाब सवाब, दिलों की सफ़ाई और रूह की पाकीज़गी का ज़रिया है।

रिवायात में आया है कि जो हुसैन (अ.) पर रोए, या रुलाए, या रोने जैसा चेहरा बनाए, उसके लिए जन्नत वाजिब हो जाती है। इसी लिए अहले ईमान दिल और जान से मजलिसें आयोजित करते हैं, नौहे और मर्सिए पढ़ते हैं और अश्क बहाते हैं।

लेकिन साथ ही यह हक़ीक़त भी नज़र में रखनी चाहिए कि अज़ादारी सिर्फ आँसुओं का नाम नहीं, बल्कि इसका एक बड़ा मक़सद इमाम हुसैन (अ.) के पैग़ाम को समझना, उसे अपनाना और आने वाली नस्लों तक पहुँचाना भी है।

कर्बला की दास्तान में जहाँ मुसिबतों का समंदर है, वहीं इसमें हक़ और बातिल के फ़र्क़, अद्ल और ज़ुल्म की पहचान और ईमान की मज़बूती का सबक़ भी छुपा हुआ है।

आज के दौर में, जहाँ बच्चों पर हर तरफ़ से फ़िक्री और सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं, अज़ादारी हमारे बच्चों के दिलों और दिमाग़ को मज़बूत रखने का सबसे असरदार ज़रिया है। हमें अपने बच्चों को मजलिसों में साथ लेकर जाना चाहिए। चाहे वे छोटे हों या बड़े, उन्हें इमाम हुसैन (अ.) और अहलेबैत (अ.) की क़ुर्बानियों, उनके सब्र, ग़ैरत और इज़्ज़त के वाक़ेआत सुनाने चाहिए, क्योंकि इन वाक़ेआत में वह ताक़त है जो बच्चों के किरदार को सँवार देते हैं।

कर्बला की सरज़मीन पर हज़रत अली अकबर (अ.), हज़रत क़ासिम (अ.) और छोटे अली असग़र (अ.) ने जिस अंदाज़ में क़ुर्बानी पेश की, वह बच्चों के दिलों में ग़ैरत, हौसला और हक़ पर क़ुर्बान हो जाने का जज़्बा पैदा करते हैं।अज़ादारी के ज़रिए हमें अपने बच्चों को सच्चाई, इसार (त्याग), सब्र और दीनदारी का सबक़ देना चाहिए।

बच्चों को मजलिस के आदाब के साथ-साथ छोटे-छोटे नौहे, मर्सिए और दुआएँ सिखानी चाहिए। ये अल्फ़ाज़ सिर्फ ज़ुबान पर नहीं होते, बल्कि दिल पर असर करते हैं और उनके दिलों को ज़िक्र-ए-हुसैन (अ.) से आबाद रखते हैं।

मजलिसों में बैठना उन्हें सब्र, तहम्मुल, वक़ार, अदब और मजलिस के तौर-तरीक़े सिखाता है, जो ज़िन्दगी के हर मैदान में उनके काम आता है।

अज़ादारी के आँसू जहाँ दिल को नरम करते हैं, वहीं यह हमारी नस्लों की तर्बियत, समाजी इस्लाह और दीन की हिफ़ाज़त का सबसे बड़ा ज़रिया भी हैं।

अगर हम चाहते हैं कि हमारी नस्लें दीन पर क़ायम रहें और ज़माने की गुमराहियों से महफ़ूज़ रहें, तो हमें अपनी औलाद को अज़ादारी से जोड़ना होगा। क्योंकि हुसैनियत वह नूर है जो हर अंधेरे को चीरकर इंसान को सीधी राह पर गामज़न रखता है।

अल्लाह हमें इस अज़ीम नेमत को अपनी नस्लों तक सही अंदाज़ में पहुँचाने की तौफ़ीक़ अता फरमाए। आमीन।

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