शनिवार 25 अक्तूबर 2025 - 22:44
क्या "विलायत-ए-फ़क़ीह" और लोकतंत्र एक-दूसरे के विरोधी हैं?

हौज़ा / विलायत-ए-फ़क़ीह धार्मिक, तार्किक और फिक़ही प्रमाणों पर आधारित एक ऐसा अद्वितीय मॉडल है जो इमाम महदी की ग़ैबत के दौर में इस्लामी समाज की नेतृत्व का सर्वोत्तम तरीका प्रस्तुत करता है। यह मॉडल धार्मिक शासन की स्थापना की गारंटी देता है और साथ ही लोकतंत्र के साथ संतुलन भी बनाए रखता है।

लेखकः सय्यदा रुबाबा मीरबमानी

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी, विलायत-ए-फ़क़ीह धार्मिक, तार्किक और फिक़ही प्रमाणों पर आधारित एक ऐसा अद्वितीय मॉडल है जो इमाम महदी की ग़ैबत के दौर में इस्लामी समाज की नेतृत्व का सर्वोत्तम तरीका प्रस्तुत करता है। यह मॉडल धार्मिक शासन की स्थापना की गारंटी देता है और साथ ही लोकतंत्र के साथ संतुलन भी बनाए रखता है। मरहूम आयतुल्लाह मिर्ज़ा मोहम्मद हुसैन नाईनी की याद में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में इस विषय पर गहन चर्चा हुई और इस सिद्धांत की बुनियादी धार्मिक और बौद्धिक दलीलों पर फिर से विचार किया गया।

विलायत-ए-फ़क़ीह की अक़ली और फ़िक्ही बुनयादे:

शिया फ़ुक्हा के अनुसार विलायत ए फ़क़ीह की तीन बुनयादो पर आधारित है

  1. रिवायती दलीलें:
    प्रमुख आधार इमाम सादिक़ (अ) की मशहूर हदीस मक़बूला ए उमर बिन हंज़ला है, जिसमें कहा गया: “मैंने उन्हें तुम्हारे ऊपर शासक बनाया है।”
    इमाम खुमैनी (र) ने अपनी फिक़ही किताब अल-बयान‘ में “हाक़िम” (शासक) शब्द को राजनीतिक नेतृत्व के अर्थ में लिया और बताया कि ग़ैबत के युग में शासन का अधिकार न्यायप्रिय और योग्य फुक़हा को प्राप्त है।

  2. अक़ली दलीलें:
    इस्लामी नियमों को लागू करने और समाज में व्यवस्था कायम रखने के लिए शासन आवश्यक है। इसलिए जब इमाम मासूम (अ) ज़ाहिरी रूप से मौजूद न हों, तो यह जिम्मेदारी योग्य और न्यायप्रिय फक़ीह पर आती है।
    आयतुल्लाह जवादी आमोली ने अपनी किताब पैरामून वही व रहबरी में इस बिंदु की विस्तृत व्याख्या की है।

  3. इमाम ज़माना (अ) की आम नियाबत:
    रिवायतों में बताया गया है कि योग्य फक़ीह, इमाम मासूम (अ) का आम प्रतिनिधि होता है और उसे वे सभी प्रशासनिक व सरकारी अधिकार हासिल हैं जो इमाम के पास थे।
    यही विचार बाद में ईरान के संविधान के अनुच्छेद 57 में भी दिखाई देता है।

आपत्तियाँ और उनके उत्तर:

कुछ आलोचकों का कहना है कि विलायत-ए-फ़क़ीह, लोकतंत्र और जनता की संप्रभुता से टकराता है, या सत्ता को एक व्यक्ति तक सीमित कर देता है। इसके जवाब में विद्वान तीन मुख्य बातें बताते हैं:

  1. इस्लामियत और लोकतंत्र में विरोध नहीं, बल्कि पूर्णता है:
    “इस्लामी गणराज्य” में लोकतंत्र शासन का रूप है और इस्लाम उसका सार।
    सर्वोच्च नेता (रहबर-ए-इंक़लाब) यह सुनिश्चित करते हैं कि शासन इस्लामी उसूलों से विचलित न हो, जबकि जनता सीधा चुनाव प्रक्रिया में भाग लेकर शासन में शामिल रहती है।

  2. सत्ता के केंद्रीकरण से सुरक्षा:
    नेता बनने के लिए चार शर्तें हैं — फुक़ाहत, अदालत, तदबीर और किफायत ।
    इसके अलावा मजलिस-ए-ख़ुबरेगान, शक्तियों का विभाजन और निगरानी संस्थाएँ इस व्यवस्था को संतुलन में रखती हैं।

  3. कानूनी वैधता और जन-समर्थन का मेल:
    विलायत-ए-फ़क़ीह की वैधता तो ईश्वरीय और शरीय आधार पर है, लेकिन जनता का समर्थन उसके कार्यान्वयन की गारंटी देता है।
    जनता “ख़बरगान” परिषद के माध्यम से रहबर का चयन करती है, जिससे वैधता और लोकप्रियता का सुंदर संतुलन बनता है।

निष्कर्ष

विलायत-ए-फ़क़ीह आधुनिक संसार में इस्लामी शासन की बुनियाद और स्तंभ है। यह व्यवस्था एक ओर शरीअत की स्थिरता को बनाए रखती है और दूसरी ओर समय की आवश्यकताओं के मुताबिक़ नीति और लचीलापन प्रदान करती है।
यही सिद्धांत इमाम-ए-ज़माना (अ) के जुहूर होने तक इस्लामी समाज की न्यायपूर्ण नेतृत्व सुनिश्चित करता रहेगा, इंशा अल्लाह।

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