हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,
लेखक: डॉक्टर अब्दुल मजीद हकीम इलाही
दुनिया आवाज़ों से भरी है, मगर ख़ामोश; तस्वीरों से लबरेज़ है, मगर चेहरों से ख़ाली। हम ऐसे ज़माने में जी रहे हैं जहाँ "राब्ता" का मतलब सिर्फ "इंटरनेट कनेक्शन" रह गया है और दिल हर रोज़ एक दूसरे से कुछ और दूर हो रहे हैं। टेक्नोलॉजी इसलिए आई थी कि हमें करीब लाए, मगर उन ठंडी स्क्रीनों की ख़ामोशी में, इंसानी मौजूदगी की गर्मी कहीं खो गई।
एक दिन मैं अपने बूढ़े पिता के साथ बैंक में बैठा था। वह शांत थे, होंठों पर मुस्कुराहट थी,
उस कतार में जो मुझे सिर्फ "वक़्त की बर्बादी" लग रही थी।
मैंने उत्सुकता से कहा,अब्बा! ऑनलाइन बैंकिंग कीजिए, कुछ ही पलों में सारा काम हो जाएगा!
उन्होंने मेरी तरफ गहरी नज़र से देखा और नरम लहजे में बोले,बेटा, मैं इन छोटी-छोटी मुलाकातों से जीवित हूँ।
सलाम-दुआ,बैंक के कर्मचारी की मुस्कुराहट, गली के फल विक्रेता की दुआ-सलाम... अगर सब कुछ एक क्लिक से हो जाए तो फिर मैं इंसानों को कहाँ देखूंगा?
उस पल मैं चुप हो गया।
और समझ गयाकि जीवन असल में कामों की सूची नहीं, बल्कि इंसानी रिश्तों का नाजुक जाल है।
इंसान अपनीमौजूदगी से अर्थ पाता है, न कि मैसेजिंग ऐप्स से। डेटा मशीनों के बीच घूमता है, मगर दिलों की भाषा सिर्फ स्पर्श, नज़र और हमदर्दी से जीवित रहती है।
टेक्नोलॉजी एक बड़ी नेमत है, लेकिन अगर वह हमें "मौजूदगी" से महरूम कर दे तो वह नेमत नहीं, एक ख़ामोश कैद बन जाती है।
स्क्रीन चमकती है, मगर महसूस नहीं करती। कृत्रिम बुद्धिमत्ताजवाब देती है, मगर दिल नहीं रखती और एक ऐसी दुनिया जो स्पर्श और मुस्कुराहट से ख़ाली हो वह मोहब्बत से भी ख़ाली हो जाती है।
बुजुर्ग पिता ने कहा,मशीन आसानी देती है, मगर रफ़ाकत तुम्हें खुद बनानी पड़ती है।
तब मैंने जाना कि आने वाला ज़माना टेक्नोलॉजी की कमी से नहीं, बल्कि मोहब्बत, स्पर्श और नज़र की कमी से दुखी होगा।
आइए, स्क्रीनों को कुछ देर के लिए ख़ामोश रहने दें और हम दोबारा गलियों की तरफ लौट चलें
किसीअजनबी की मुस्कुराहट, किसी दोस्त के हाथ की गर्मी और ज़िंदगी की असली आवाज़ की तरफ, क्योंकि कोई अल्गोरिदम, कोई सर्वर, मोहब्बत के तापमान को दोबारा पैदा नहीं कर सकता।
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