हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन महदी यूसुफ़ियान, मरकज़-ए-तखस्सुसी महदवियत के माहिर ने “इमाम-ए-ज़माना (अज्) से राब्ता करने का तरीका; मुश्किलात में सुकून” के मौज़ू पर गुफ़्तगू की है, जो आपकी ख़िदमत में पेश है।
बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम
इमाम ज़माना अलैहिस्सलाम के ख़ुतूत (तौक़ीअ) के बारे में कुछ अहम बातें क़ाबिले तवज्जोह हैं। आम तौर पर इमाम महदी अलैहिस्सलाम के ख़ुतूत के लिए “तौक़ीअ” (यानी लिखित जवाब या दस्तख़तशुदा ख़त) का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है।
इमाम ज़माना (अज्) के तौक़ीआत दो क़िस्म के हैं:
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वो ख़त जो लोग इमाम को लिखते थे।
ये ख़त नव्वाब-ए-ख़ास (इमाम के खास प्रतिनिधियो) के ज़रिए इमाम तक पहुंचाए जाते थे। फिर इमाम अलैहिस्सलाम उन ख़तों के नीचे जवाब लिखते और नव्वाब उन्हें वापस लोगों तक पहुंचाते थे। -
वो ख़त जो खुद इमाम महदी अलैहिस्सलाम की तरफ़ से जारी होते थे।
ये ख़ुतूत सीधे इमाम की तरफ़ से होते और लोगों तक पहुंचाए जाते थे।
मरहूम शेख़ मुफ़ीद नव्वाब-ए-ख़ास के ज़माने में मौजूद नहीं थे; वे कई साल बाद पैदा हुए। इसलिए सवाल पैदा होता है कि इमाम के ख़ुतूत शेख़ मुफ़ीद तक कैसे पहुंचे?
तहक़ीक़ात से मालूम होता है कि ज़माने-ए-नियाबत-ए-ख़ास में भी कभी-कभार इमाम अलैहिस्सलाम अपनी मसलहत से सीधे कुछ अफ़राद को ख़ुतूत रसूल फरमाते थे।
इसलिए शेख़ मुफ़ीद की तरफ़ मंसूब ख़ुतूत भी शायद इसी क़िस्म के हैं।
इमाम अलैहिस्सलाम को शेख़ मुफ़ीद के इल्म, मरतबे और शिया समाज पर उनके असर की वजह से उनसे ख़ास मोहब्बत थी। यही वजह थी कि उनकी वफ़ात के बाद एक तौक़ीअ आम लोगों तक पहुंची और मशहूर हुई।
अगरचे कुछ लोग दो सौ साल के फासले और नव्वाब-ए-ख़ास के ना होने की वजह से इन ख़ुतूत पर शक करते हैं, मगर तारीखी शवाहिद इमाम की ख़ास इनायत की ताइद करते हैं।
सवाल: हम इमाम ज़माना (अज्) से कैसे राब्ता कायम करें ताकि मुश्किल हालात आसानी से बर्दाश्त हो सकें?
जवाब:
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दुनिया की सख्तियों को हकीकत समझ कर क़बूल करना।
इमाम ज़माना (अज्) का ज़हूर या उनसे राब्ता ये मतलब नहीं कि सारी समस्याएं खत्म हो जाएं, बल्कि ये दिल को ताक़त देता है कि हम उन सख्तियों को बेहतर अंदाज़ में बर्दाश्त कर सकें। -
इमाम ज़माना (अज्) हमारा राब्ता हैं खुदा से।
इमाम खुदा के ख़लीफ़ा और उसकी हुज्जत हैं। वो हमें खुदा से जोड़ने के लिए रहनुमाई करते हैं। इसलिए इमाम की तवज्जो और तालीमात मुश्किल वक़्त में हमारे लिए बड़ी मददगार साबित होती हैं। -
दुआ और ज़ियारत का सहारा।
ज़ियारत-ए-आले-यासीन जैसी ज़ियारतें पढ़ने से दिल को सुकून मिलता है। सिर्फ़ इमाम को सलाम कहना भी दिल को इत्मिनान देता है। नमाज़-ए-इस्तेग़ासा बिहज़रत-ए-इमाम ज़माना (दो रकअत) और उसके बाद एक मुख़्तसर दुआ इंसान के अंदर रूहानी सुकून और इमाम से क़ल्बी वाबस्तगी पैदा करती है। -
मआरिफ़त-ए-इमाम को बढ़ाना।
इमाम से गहरा राब्ता मआरिफ़त का मोहताज है। मआरिफ़त इंसान के दिल में मोहब्बत, यक़ीन और इख़लास पैदा करती है, जिससे आमाल भी खुदा की रज़ा के लिए ज़्यादा ख़ालिस हो जाते हैं।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम का एक खुबसूरत इरशाद है:
एक शख़्स सख्त एहसास और तकलीफ़ में मुबतला था।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: “अगर तुम यक़ीन रखते हो कि अल्लाह सबसे ज़्यादा रहम करने वाला है और वो हमेशा बंदों के लिए सबसे बेहतर चाहता है, तो ये हालत जिसमें तुम हो — तुम्हारे लिए इसी वक्त सबसे बेहतर फ़ैसला है।”
इस हकीकत को समझ लेने से इंसान मुश्किलात को आसानी से बर्दाश्त कर लेता है, क्योंकि उसे यक़ीन होता है कि इमाम ज़माना (अज्) उसके साथ हैं, और बहुत सी बलाएँ और तकलीफ़ें इमाम की इनायत से हम तक पहुंचने से पहले ही टल जाती हैं।
नतीजा:
दुआ, ज़ियारत और इमाम ज़माना (अज्) के साथ रूहानी तवज्जो के ज़रिए दिल को सुकून और मआरिफ़त में इज़ाफ़ा होता है।
जब इंसान ये हकीकत समझ लेता है कि इमाम की निगाह-ए-लुत्फ़ हर लम्हा उस पर है, तो दुनिया की सारी सख्तियाँ बहुत हल्की महसूस होने लगती हैं।
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