۲ آذر ۱۴۰۳ |۲۰ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 22, 2024
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हौज़ा/ध्यान देने वाली बात है कि अगर हमारे हालात और हमारे बुरे आमाल सैकड़ों साल पहले इमाम सादिक़ अ.स. को बेचैन हो कर रोने पर मजबूर कर सकती है तो क्या हमारी ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि हम इस ग़ैबत के दौर में इन हालात और इन परेशानियों का अंदाज़ा लगा कर कम से कम जुमे के दिन सच्चे दिल से दुआए नुदबा को समझ कर पढ़ते हुए अपने हालात पर ख़ुदा आंसू बहाएं शायद इसी तरह हमारे दिल में इमाम ज़माना अ.स. का सच्चा इश्क़ और सच्ची मोहब्बत का जज़्बा पैदा हो जाए और हम किसी लम्हा भी उनकी याद से ग़ाफ़िल न होने पाएं,

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,अल्लामा शैख़ अब्बास क़ुम्मी र.ह. ने इमाम ज़माना अ.स. की ग़ैबत में कुछ ज़िम्मेदारियों का ज़िक्र किया है, जिनसे इमाम अ.स. की ग़ैबत का एहसास और उनका इंतेज़ार करने के हक़ीक़त मतलब को समझा जा सकता है और जिनके बिना न ग़ैब पर ईमान पूरा हो सकता है और ना ही इमाम अ.स. का इंतेज़ार करने वालों में शामिल किया जा सकता है, उन्हीं ज़िम्मेदारियों को हम यहां बयान कर रहे हैं।

सच्चाई तो यह है कि अगर इंसान को इमाम अ.स. की ग़ैबत से होने वाले नुक़सान का अंदाज़ा हो जाए तो उसकी ज़िंदगी से ख़ुशियां ग़ायब हो जाएंगी, ज़माने के बदतरीन हालत, दुनिया वालों के ज़ुल्म और अत्याचार, इस्लामी सिस्टम की बर्बादी, इलाही तालीमात का मज़ाक उड़ाया जाना और भी इस तरह के बहुत सारे मामले हैं जिनसे इमाम ज़माना अ.स. की ग़ैबत होने वाले नुक़सानों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है,

और इसी बात का एहसास तड़पने और आंसू बहाने के लिए काफ़ी है, और अगर यह बात सही है कि इमाम ज़माना अ.स. इंसान की सबसे महबूब और पसंदीदा शख़्सियत हैं तो यह कैसे मुमकिन है कि महबूब निगाहों से ग़ायब हो और आशिक़ के दिल में बेचैनी और बे क़रारी न हो और वह अपने महबूब की तरफ़ से इस तरह ग़ाफ़िल हो जाए कि बस केवल ख़ास तारीख़ों और मौक़ों के अलावा उनके वुजूद और उनके ग़ैबत में रहने का एहसास भी पैदा न कर सके।

दुआए नुदबा में इन्हीं हालात का विस्तार से ज़िक्र मौजूद है और इसीलिए इस दुआ को दुआए नुदबा कहा जाता है कि इंसान दुआ के मज़मून की तरफ़ ध्यान दे और ग़ैबत के दौरान होने वाली परेशानियों का सही अंदाज़ा लगाए तो यक़ीनन वह अपने आंसू को रोक नहीं पाएगा और इसीलिए इस दुआ को ईद के मौक़ों पर पढ़ने की ताकीद की गई है, यानी ईदे क़ुर्बान, ईदे ग़दीर और जुमा जिसे कुछ इस्लामी अहकाम के हिसाब से ईद कहा गया है।

क्योंकि ईद का दिन बेहद ख़ुशी का होता है और इस दिन एक आशिक़ का फ़र्ज़ है कि अपने महबूब की जुदाई को महसूस करे और उसकी जुदाई के ग़म पर आंसू बहाए और तड़पे, जैसाकि इमाम बाक़िर अ.स. ने फ़रमाया कि जब कोई दिन ईद का आता है तो हम आले मोहम्मद अ.स. का ग़म ताज़ा हो जाता है कि हम अपने हक़ को ग़ैरों के हाथों में लुटते देखते हैं और अल्लाह की मसलेहत की बुनियाद पर आवाज़ भी बुलंद नहीं कर सकते, मासूमीन अ.स. की ज़िंदगी में इमाम अली अ.स. से लेकर इमाम हसन असकरी अ.स. तक हर इमाम अ.स. ने ग़ैबत के नुक़सान और उस दौरान होने वाली परेशानियों का ज़िक्र कर के इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया है

कि इस दुनिया में चारों तरफ़ ख़ैर केवल उसी समय दिखाई देगा जब हमारा क़ायम अ.स. क़ेयाम करेगा और उससे पहले इस दुनिया से किसी ख़ैर की उम्मीद नहीं लगाई जा सकती है, और इसका फ़ायदा यह है कि मोमिन इंसान इन बुरे हालात से मायूस न हो और न ही इन हालात से राज़ी हो वरना यह उसके ईमान में कमी का सबसे बड़ा ज़रिया होगा।

इस मौक़े पर सुदैर की इस हदीस को नक़्ल करना सही होगा जिसमें उन्होंने बयान किया कि मैं, मुफ़ज़्ज़ल इब्ने उमर, अबू बसीर और अबान इब्ने तग़लिब इमाम सादिक़ अ.स. की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो देखा आप ज़मीन में बैठे हुए बहुत ज़्यादा रो रहे हैं और फ़रमाते हैं

कि मेरे सरदार तेरी ग़ैबत ने मेरी मुसीबत को अज़ीम कर दिया है, मेरी नींद को उड़ा दिया है और मेरी आंखों से आंसुओं का सैलाब जारी कर दिया है, मैंने हैरत से पूछा ऐ रसूल स.अ. के बेटे, अल्लाह आपको हर आफ़त से महफ़ूज़ रखे यह रोने का कौन सा अंदाज़ है और क्या अल्लाह न करे आप पर कोई ताज़ा मुसीबत नाज़िल हो गई... तो आपने फ़रमाया, मैंने जाफ़र नामी किताब को पढ़ा है

जिसमें क़यामत तक के हालात का ज़िक्र मौजूद है और उसमें पैग़म्बर स.अ. के आख़िरी वारिस की लंबी ग़ैबत के साथ उस दौर में पैदा होने वाले संदेह (शुकूक, शुबहात) और ईमान और अक़ीदे की कमज़ोरी के हालात और फिर उस किताब में शियों के ग़ाफ़िल रहने और शक में पड़ जाने को पढ़ा है और इसी बात ने मुझे बेचैन हो कर रोने पर मजबूर कर दिया है कि ऐसे माहौल में ईमान वालों का क्या हाल होगा और उनका ईमान कैसे महफ़ूज़ रहेगा।

ध्यान देने वाली बात है कि अगर हमारे हालात और हमारे बुरे आमाल सैकड़ों साल पहले इमाम सादिक़ अ.स. को बेचैन हो कर रोने पर मजबूर कर सकती है तो क्या हमारी ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि हम इस ग़ैबत के दौर में इन हालात और इन परेशानियों का अंदाज़ा लगा कर कम से कम जुमे के दिन सच्चे दिल से दुआए नुदबा को समझ कर पढ़ते हुए अपने हालात पर ख़ुदा आंसू बहाएं शायद इसी तरह हमारे दिल में इमाम ज़माना अ.स. का सच्चा इश्क़ और सच्ची मोहब्बत का जज़्बा पैदा हो जाए और हम किसी लम्हा भी उनकी याद से ग़ाफ़िल न होने पाएं,

जिस तरह ख़ुद उन्होंने अपने चाहने वालों के लिए फ़रमाया कि हम एक पल के लिए भी अपने चाहने वालों की याद से ग़ाफ़िल नहीं होते हैं और ना ही उनकी सरपरस्ती को अनदेखा करते हैं, हम चाहते हैं कि उनका भरोसा हम पर रहे और उनकी हिफ़ाज़त और सरपरस्ती की ज़िम्मेदारी भी हमारे हवाले की गई है।

इस इंतेज़ार को ग़ैबत के दौर में सबसे फ़ज़ीलत वाला अमल क़रार दिया गया है और इसमें इस बात की ओर साफ़ इशारा है कि इस दुनिया में एक दिन आले मोहम्मद अ.स. की हुकूमत ज़रूर क़ायम होगी और मोमेनीन की ज़िम्मेदारी है कि उस दिन का न केवल इंतेज़ार करें बल्कि जल्द से जल्द ज़ुहूर होने की फ़िज़ा को क़ायम करने की लगातार कोशिश करें।

अब सवाल यह है कि ऊपर बयान होने वाला दौर कब आएगा..... तो यह एक इलाही राज़ है जिसे सारे लोगों से छिपा कर रखा गया है, यहां तक कि हदीसों में ज़िक्र हुआ है कि इमाम अली अ.स. के ज़ख़्मी होने के बाद आपके सहाबी अम्र इब्ने हुमुक़ आपको देखने गए और कहा मौला यह मुसीबतें कब ख़त्म होंगी....

तो आपने फ़रमाया कि 70 हिजरी तक, तो उन्होंने फिर सवाल किया कि क्या उसके बाद आराम और सुकून मिल जाएगा..., मौला ने कोई जवाब नहीं दिया और बेहोश हो गए।

जब होश आया तो दोबारा सवाल किया तो आपने फ़रमाया बेशक हर मुसीबत के बाद आराम है लेकिन वह अल्लाह के हाथ में है, उसके बाद अबू हमज़ा सुमाली ने इमाम बाक़िर अ.स. से उस रिवायत के बारे में पूछा कि 70 हिजरी तो गुज़र चुका है लेकिन मुसीबतों का दौर जारी है, तो इमाम अ.स. ने फ़रमाया कि इमाम हुसैन अ.स. की शहादत के बाद जब अल्लाह की नाराज़गी बढ़ी तो उसने आराम और सुकून के दौर को आगे बढ़ा दिया, फिर उसके बाद अबू हमज़ा ने यही सवाल इमाम सादिक़ अ.स. से किया तो आपने फ़रमाया कि बेशक अल्लाह की नाराज़गी ने इस पीरियड को दुगना कर दिया था इसके बाद जब लोगों ने इस राज़ को फ़ाश कर दिया तो अल्लाह ने इस दौर को एक राज़ बना दिया और अब किसी को भी इसका इल्म नहीं हो सकता, और हर शख़्स की ज़िम्मेदारी है कि उस दौर का इंतेज़ार करे और अगर इंतेज़ार करने वाला मर भी जाएगा को उसको इमाम ज़माना अ.स. के असहाब में शुमार किया जाएगा।

इमाम अ.स. के मुबारक वुजूद की हिफ़ाज़त के लिए अल्लाह से दुआ करते रहना, ज़ाहिर है कि दुआ हर उस मामले का इलाज है जो इंसान के बस से बाहर हो और जब ग़ैबत के दौर में इमाम अ.स. की हिफ़ाज़त किसी भी तरह से हमारे बस में नहीं है और हम ख़ुद उनके रहम और करम से ज़िंदा हैं तो हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनके मुबारक वुजूद की हिफ़ाज़त के लिए अल्लाह की बारगाह में दुआ करते रहें और किसी समय भी इस ज़िम्मेदारी से ग़ाफ़िल न हों और उनकी सलामती की दुआ अल्लाहुम्मा कुल लिवलिय्यिक..... जिसे आमतौर से नमाज़ के क़ुनूत या नमाज़ के बाद दुआ के तौर पर पढ़ा जाता है, यह इमाम अ.स. के वुजूद की हिफ़ाज़त और उनके ज़ुहूर और उनकी अदालत के साथ हुकूमत के बारे में एक बेहतरीन और मुकम्मल दुआ है जिससे किसी भी मोमिन को ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिए।

इमाम ज़माना की सलामती के लिए सदक़ा देना, हक़ीक़त में सदक़ा देना इमाम अ.स. की सलामती और हिफ़ाज़त का इज़हार है कि इंसान जिसकी सलामती की आरज़ू करता है उसके हक़ में केवल दुआ ही नहीं करता बल्कि अमली तौर पर भी उनसे परेशानियों और मुसीबतों के दूर रहने का इंतेज़ाम करता है और यह इंतेज़ाम सदक़े से बेहतर और कुछ भी नहीं हो सकता, दुआ उन लोगों के लिए बेहतरीन चीज़ है जो सदक़ा नहीं दे सकते हैं लेकिन जो सदक़ा दे सकते हैं उन्हें इमाम अ.स. की सलामती के लिए हर हाल में सदक़ा देना चाहिए, क्योंकि हमें ध्यान रखना चाहिए आज हमारे पास जो कुछ है वह सब इमाम अ.स. के सदक़े ही में मिला हुआ है और जो कुछ आगे मिलना है वह भी उन्हीं के सदक़े में उन्हीं के वसीले से हासिल होने वाला है।

इमाम अ.स. की तरफ़ से हज करना या दूसरों को उनकी नियाबत में हज के लिए भेजना, शियों में शुरू ही से यह रस्म है कि लोग अपने दौर के इमाम अ.स. के आमाल को सराहा करते थे जैसाकि अबू मोहम्मद देअलजी के हालात में नक़्ल किया गया है कि उन्हें किसी शख़्स ने इमाम ज़माना की तरफ़ से नियाबत में हज करने के लिए पैसे दिए तो उन्होंने अपने फ़ासिक़ और शराबी बेटे को इमाम अ.स. की तरफ़ से हज करने के लिए साथ ले लिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि अरफ़ात के मैदान में एक बेहद ख़ूबसूरत जवान शख़्स को देखा जो यह फ़रमा रहे हैं कि तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम लोग हज की नियाबत के लिए दी जाने वाली रक़म को बर्बाद कर देते हो.... तुमने बेहद अंधेपन का सबूत दिया है, रावी कहता है कि हज से वापसी के 40 दिन बाद उनकी आंख की रौशनी चली गई जिसकी तरफ़ उस जवान ने इशारा किया था।

इमाम ज़माना अ.स. के नाम आने पर खड़े हो जाना, ख़ास कर अगर आपका ज़िक्र क़ायम अ.स. से किया जाए जिसमें हज़रत के क़ेयाम की तरफ़ इशारा पाया जाता है, और आपके क़ेयाम के साथ खड़ा हो जाना मोहब्बत, अक़ीदत और ग़ुलामी साबित करने का बेहतरीन ज़रिया है, जिससे किसी भी समय ग़फ़लत को दूर किया जा सकता है।

इमाम ज़माना अ.स. के वसीले से इस्तेग़ासा करना, मुसीबतों और परेशानियों के समय इमाम ज़माना अ.स. के वसीले से इस्तेग़ासा करना भी अक़ीदे की मज़बूती और इसाम अ.स. से रिश्ते को बाक़ी रखने का बेहतरीन तरीक़ा है और अल्लाह ने इमामों को यह ताक़त और क्षमता दी है कि वह फ़रियाद और इस्तेग़ासा करने वालों की फ़रियाद को सुन कर उनकी मुश्किलों को दूर कर सकते हैं जैसाकि अबू ताहिर इब्ने हेलाल ने इमाम सादिक़ अ.स. से नक़्ल किया है कि अल्लाह जब ज़मीन वालों के लिए कोई बरकत नाज़िल करना चाहता है तो पैग़म्बर स.अ. से लेकर इमाम ज़माना अ.स. तक सभी को वसीला क़रार देता है और मासूमीन अ.स. की बारगाह से गुज़रने के बाद वह बरकतें बंदों तक पहुंचती हैं और इसी तरह जब किसी अमल को क़ुबूल करना चाहता है तो इमाम ज़माना अ.स. से लेकर पैग़म्बर स.अ. तक सभी की बारगाह से गुज़ार कर उसे अपनी बारगाह तक ले जाता है और फिर क़ुबूल करता है, बल्कि ख़ुद इमाम ज़माना अ.स. ने भी शैख़ मुफ़ीद र.ह. के ख़त में लिखा था कि तुम्हारे हालात हमारी निगाहों से छिपे नहीं हैं और हमें तुम्हारी परेशानियों का इल्म रहता है और हम तुम्हारे हालात पर नज़र रखते हैं।

अल्लामा मजलिसी र.ह. ने तोहफ़तुज़ ज़ाएर में नक़्ल किया है कि ज़रूरतमंद अपनी ज़रूरतों को किसी काग़ज़ पर लिख कर इमामों की क़ब्र पर या दरिया वग़ैरह में डाल दें, इमाम ज़माना अ.स. उसकी ज़रूरत को ज़रूर पूरा करेंगे, उस अरीज़े को भेजते समय चारों वकीलों में से किसी का भी नाम लिख दें इंशा अल्लाह वह उसी तरह इमाम अ.स. की बारगाह में पेश करेंगे जिस तरह अपनी ज़िंदगी में अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करते थे और इमाम अ.स. भी उसी तरह उस ज़रूरत को पूरा करेंगे जिस तरह उस दौर में किया करते थे।

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