۱۱ تیر ۱۴۰۳ |۲۴ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 1, 2024
तेहरान

हौज़ा/ हुज्जतुल इस्लाम वल मुसलेमीन मसऊद आली ने तेहरान में मजलिस को खिताब करते हुए फरमाया हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम की शख़्सियत, उनकी सूझबूझ और वक़्त की पहचान मैं मजबूत पकड़ थी उन्होंने इमाम की एक हदीस बयान की इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है मेरे चचा अब्बास बहुत गहरी सूझबूझ रखते थें,

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हुज्जतुल इस्लाम वल मुसलेमीन मसऊद आली ने तेहरान में मजलिस को खिताब करते हुए फरमाया हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम की शख़्सियत, उनकी सूझबूझ और वक़्त की पहचान मैं मजबूत पकड़ थी उन्होंने इमाम की एक हदीस बयान की इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है मेरे चचा अब्बास बहुत गहरी सूझबूझ रखते थें,

गहरी सूझबूझ यानी वह सूझबूझ जो किसी भी घटना की गहराई तक पहुंच सके और उसकी गहराई में जाकर जायज़ा ले सके हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम की ज़ियारत में कहा जाता है मैं गवाही देता हूं कि आप ने लापरवाही नहीं की, सुस्ती नहीं दिखाई और अपना काम सूझबूझ से किया,

सूझबूझ, मोमिन की एक बहुत क़ीमती ख़ूबी होती है। सूझबूझ यानी इंसान सच और झूठ को पहचान सके ख़ासतौर पर फ़ितनों के दौरान, हंगामों के दौरान, जब अंधेरा हो, जब शक के बादल हों तो वह सही और ग़लत को, भले और बुरे को, दोस्त और दुश्मन को, ज़रूरी और ज़्यादा ज़रूरी कामों को पहचान और समझ सके और वक़्त पर काम भी कर सके। इन सब के साथ सूझबूझ की सब से बड़ी और अहम मिसाल यह है कि इंसान ऐसी सूझबूझ रखे कि उसे यह पता हो कि उसके ज़माने का इमाम उससे क्या चाहता है?

आशूरा का सब से बड़ा सबक़

हमें मालूम है कि हमारे इमामों की अलग-अलग हालात में तरह तरह की ज़िम्मेदारियां रही हैं। कभी जंग का दौर होता, कभी अम्न व अमान का, कभी कल्चरल कामों का ज़माना होता था तो कभी पलायन और हिजरत का दौर होता। सूझबूझ की सब से अहम मिसाल यह है कि इंसान को यह पता हो कि उसके ज़माने का इमाम उससे क्या चाहता है?

ख़ुदा शहीद आवीनी की मग़फ़ेरत करे, वह एक बहुत अच्छी बात कहते थे। वह कहते थेः बड़ा अजीब दौर है। कुछ लोग पिछले ज़माने के इमाम से लगाव रखते हैं, मौजूदा इमाम से नहीं, क्योंकि पिछले ज़माने के इमाम को जिस तरह से चाहें पेश कर सकते हैं लेकिन मौजूदा दौर के इमाम की तो पैरवी करना पड़ती है, उसकी बात मानना होती है।

पिछले ज़माने के इमाम की बातों का इस तरह से मतलब निकाला जा सकता है जिससे इंसान पर कोई ज़िम्मेदारी न आए, कुछ करना न पड़े लेकिन मौजूदा इमाम की बातों का मतलब अपनी मर्ज़ी से नहीं निकाला जा सकता बल्कि यह देखना होता है कि वह क्या कह रहा है।

कुछ लोग शहीद होने वाले इमाम से ही लगाव रखते हैं ताकि उसका मातम करें, आंसू बहाएं, अज़ादारी करें, उसका शोक मनाएं, उसकी ज़ियारत पर जाएं और उससे मुरादें मांगें लेकिन मौजूदा इमाम को जो उनसे काम चाहता है और जिसके साथ उन्हें रहना चाहिए उसे अकेला छोड़ देते हैं।

आशूरा का सबसे बड़ा सबक़ और पैग़ाम और सब से बड़ी सूझबूझ की मिसाल यह है कि इंसान को इमाम के हुक्म की तामील के लिए तैयार रहना चाहिए, जैसा कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथियों ने किया था। हुनर यह है। कुछ लोगों में इस तरह की सूझबूझ नहीं थी। कुछ लोग इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पास आते थे और पूछते थे कि मौला! आप क्यों सुल्ह कर रहे हैं? ग़ौर करें, यह लोग इमाम की ज़िम्मेदारी को समझ ही नहीं रहे हैं।
उसके बिल्कुल उलट, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के दौर में लोग आते थे और उनसे पूछते थे कि आप जंग क्यों कर रहे हैं? जैसा कि इब्ने अब्बास आए और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से कहा कि मौला आप कहां जा रहे हैं? आप का कोई नहीं है, कूफ़ा ख़तरनाक जगह है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जब उन्हें अपने मिशन के बारे में भी बताया तब भी वह इमाम के साथ नहीं गये।
कुछ लोग इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम के पास आते थे और कहते थे कि आप बनी अब्बास के ख़िलाफ़ जंग क्यों नहीं छेड़ते? यही तो वक़्त है जंग शुरु करने का। ग़ौर करें! यह सूझबूझ की कमी का नतीजा है, क्योंकि पूछने वाले को यह नहीं पता कि उसका इमाम क्या कर रहा है, उसका मिशन क्या है और उसका इमाम इस वक़्त उससे क्या चाह रहा है?


इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से एतेराज़ किया जाता था कि मौला आप ईरान क्यों जा रहे हैं? वतन क्यों छोड़ रहे हैं? क्यों वहां जाकर मामून के जानशीन बन रहे हैं? क्या वह वही मामून नहीं है जिसके बाप हारुन रशीद ने आप के वालिद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को शहीद किया है? कुछ लोग आकर सिर्फ़ इमाम को नसीहत ही नहीं करते थे बल्कि उनसे अलग भी हो जाते थे। यह सब सूझबूझ न होने की मिसालें हैं।

इस तरह के मौक़ों पर हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम की ख़ूबियों को समझना मुमकिन होता है, हज़रत ज़ैनब, हज़रत मुस्लिम, जैसी हस्तियों की ख़ूबियों का इन मौक़ों पर पता चलता है। जब बहुत से लोगों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था तब इन्होंने हालात को सही तरीक़े से समझा और अपने इमाम का साथ दिया।

ज़ुहूर के हालात बनाना, हर मज़हब का मिशन

आज हम इमाम ज़माना अलैहिस्सलाम के दौर में हैं। इमाम ज़माना हम से क्या चाहते हैं इस वक्त? इस वक़्त इमामे ज़माना का मिशन क्या है जिसमें हम उनकी मदद कर सकते हैं? यह बहुत गंभीर सवाल है, बहुत ही अहम सवाल है। क्या हम यह कह सकते हैं

कि चूंकि इमामे ज़माना ग़ैबत में हैं और उनकी हुकूमत नहीं है इस लिए मिसाल के तौर पर यह तफ़रीह व छुट्टी का वक़्त है और हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? फिलहाल तो इमामे ज़माना के पास छोटी छोटी ज़िम्मेदारियां हैं जैसे अगर किसी बीमार ने दुआ की तो उसे शिफ़ा दे दें, कोई अगर 40 हफ़्तों तक लगातार जमकरान मस्जिद चला जाए तो उसकी मुराद पूरी कर दें, कोई गुम हो जाए और उनसे दुआ करे तो उसे घर पहुंचा दें।

क्या हम यह कह सकते हैं कि ग़ैबत के ज़माने में इमामे ज़माना की यही छोटी छोटी ज़िम्मेदारियां हैं और यही फिलहाल उनका मिशन है? अगर कोई सच में यह सोचता है तो उसने इमाम ज़माना को पहचाना ही नहीं है। अगर कोई इस तरह की सोच रखता है तो उसमें हज़रत इमामे ज़माना की मारेफ़त ही नहीं है। इस वक़्त सब से ज़्यादा ज़िम्मेदारियां इमामे ज़माना पर ही हैं। इस वक़्त सब से ज़्यादा काम उनके ज़िम्मे ही हैं।

आप सब ने क़ुरआने मजीद में पर्दे के पीछे रह कर काम करने वाली इस तरह की हस्ती के बारे में पढ़ा है। सूरए कहफ़ में बताया गया है कि हज़रत ख़िज़्र मज़लूमों और मोमिनों की मदद करते थे लेकिन पर्दे के पीछे से। इतना छुप कर मदद करते थे कि अगर अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को न बताया होता तो वह भी उन्हें न पहचान पाते। अल्लाह ने उन्हें पहचनवाया कि मूसा! एक ख़िज़्र हैं जिनकी रूहानी ताक़त तुम से ज़्यादा है, जाओ उनसे कुछ सीखो। क़ुरआन में उनकी तरफ़ से छुप कर मदद करने की दो तीन मिसालों का भी ज़िक्र हैं।
हम और आप से एक दीनदार इंसान होने के नाते जो भी बन पड़ता है भले ही एक मजलिस करने, किसी मजलिस में शमिल होने या घर पर अलम लगाने जैसे काम इमामे ज़माना के लिए उनके ज़ुहूर के लिए करते हैं, ताकि इस ज़मीन पर ख़ुदाई हुकूमत बने। लेकिन इमाम ज़माना जो सारे दीनदारों के इमाम हैं वह ख़ुद कुछ नहीं करेंगे? सब से बड़ा काम तो वही कर रहे हैं। इस बुनियाद पर इमाम  ज़माना का सब से बड़ा मिशन यह हैः ज़ुहूर का माहौल बनाना।
हज़रत अब्बास का कमाल यही था। उन्हें अपने इमाम के मिशन के बारे में पता था और वह उनके साथ रहे और आख़िर तक साथ रहे। यह इमामे जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि “मैं गवाही देता हूं कि चचा जान, आप हर हुक्म मानने वाले थे। हज़रत अब्बास के वजूद में इमाम हुसैन बसे थे।

हज़रत अब्बास का मक़ाम इमाम हुसैन के लिए वही था जो पैग़म्बरे इस्लाम के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम का था। पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने में हज़रत अली ज़्यादा तक़रीरें नहीं करते थे न ही बहुत बोलते थे। यह सारे ख़ुत्बे जो हैं वह सब पैग़म्बरे इस्लाम के बाद के हैं, उनके ज़माने में वह बस उनके हुक्म की तामील करते थे। हज़रत अब्बास भी इसी तरह के थे।


हज़रत अब्बास के लिए न जंग अहम थी न सुल्ह। जो चीज़ उनके लिए अहम थी वह अपने इमाम के हुक्म की तामील थी। अहमियत इस बात की थी कि सिर झुका कर अपने इमाम की बात मानी जाए। मैं गवाही देता हूं कि आप हर हुक्म मानते थे, एक लम्हे के लिए भी असमंजस में नहीं पड़े। जब तक़रीबन सब शहीद हो चुके थे तो उनके लिए अमान नामा लाया गया। शिम्र अमान नामा लाया और उसने कहा कि अब्बास तुम्हारी जान की अमान है।

हज़रत अब्बास ने उसकी बात का जवाब तक नहीं दिया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कहा कि उसका जवाब दो भले ही वह बेदीन है। हज़रत अब्बास ने पूछाः क्या है? उसने कहाः मैं तुम्हारे लिए जान की अमान का ख़त लाया हूं, अब सब ख़त्म, हुसैन (अ) का क़िस्सा ख़त्म, सब मर चुके हैं अब तुम कम से कम अपनी जान बचा लो। मैंने अमीर से तुम्हारी जान की अमान ले ली है, उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद से।

हज़रत अब्बास ने कहाः लानत हो तुझ पर, तेरे अमीर पर और तेरे इस अमाननामे पर जो मेरे लिए तू लाया है। मैं अमान में रहूं और पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे, अमान में न रहें? लानत हो ख़ुदा की तुझ पर। एक लम्हे की भी हिचकिचाहट नहीं नज़र आयी।

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