सोमवार 22 दिसंबर 2025 - 20:09
नहजुल बलाग़ा के अनुसार तारीफ़ और उसके उसूल और नियम

हौज़ा / तारीफ़ इंसानी समाज का एक नैचुरल प्रोसेस है। इंसान अच्छे नैतिक मूल्यों, चरित्र और काम को देखकर तारीफ़ करता है, और अगर यह तारीफ़ उसके सही उसूलों के अंदर है, तो यह इंसान के लिए नैतिक ट्रेनिंग और सामाजिक स्थिरता का ज़रिया बन जाती है, लेकिन अगर यह तारीफ़ हद से ज़्यादा हो जाए, तो यह आत्मसंतुष्टि, स्वार्थ, घमंड और नैतिक गिरावट का कारण बन जाती है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी|

परिचय
तारीफ़ इंसानी समाज का एक नैचुरल प्रोसेस है। इंसान अच्छे नैतिक मूल्यों, चरित्र और काम को देखकर तारीफ़ करता है, और अगर यह तारीफ़ उसके सही उसूलों के अंदर है, तो यह इंसान के लिए नैतिक ट्रेनिंग और सामाजिक स्थिरता का ज़रिया बन जाती है। लेकिन अगर यह तारीफ़ हद से ज़्यादा हो जाए, तो यह आत्मसंतुष्टि, स्वार्थ, घमंड और नैतिक गिरावट का कारण बन जाती है।

नहजुल-बलाग़ा—इमाम अली की हिकमत, अखलाक़ और इंसानी समझ का बड़ा खज़ाना—तारीफ़ का सही मतलब, उसके फ़ायदे, खतरे और कमियों को बहुत अच्छे से समझाता है।

1. असली इज़्ज़त: दौलत नहीं, बल्कि अच्छाई की सच्ची याद

इमाम अली (अ.स.) कहते हैं: “لِسَانُ الصِّدْقِ يَجْعَلُهُ اللهُ لِلْمَرْءِ فِي النَّاسِ خَيْرٌ لَهٗ مِنَ الْمَالِ يُوَرِّثُهٗ غَيْرَهٗ सच्चाई की ज़बान, अल्लाह लोगों में से किसी के लिए उस दौलत से बेहतर बनाता है जो वह दूसरों के लिए छोड़ जाता है।”

जिस इंसान की अच्छाई की सच्ची याद लोगों के बीच बनी रहती है, वह उस दौलत से कहीं बेहतर है जो वह दूसरों के लिए छोड़ जाता है।

यह कहावत इस बात को साफ़ करती है कि असली तारीफ़ वह है जो अल्लाह सच्चाई से लोगों की ज़बान पर कहे। ऐसी तारीफ़ इंसान की मौत के बाद भी बनी रहती है, जबकि दौलत खत्म हो जाती है।

2. नरमी: तारीफ़ को मंज़ूर करने की बुनियाद

इमाम (अ.स.) कहते हैं: “مَنْ تَلِنْ حَاشِيَتُهُ يَسْتَدِمْ مِنْ قَوْمِهِ الْمَوَدَّةَ जो कोई भी अपने तौर-तरीकों में नरमी रखता है, वह हमेशा अपने लोगों का प्यार बनाए रखेगा।”

जो इंसान अपने व्यवहार में नरम होता है, वह हमेशा अपने लोगों का प्यार बनाए रखता है।

इससे यह सीख मिलती है कि अगर कोई इंसान लोगों के दिलों में जगह बनाना चाहता है, तो इसका तरीका नरमी, अच्छे व्यवहार और अच्छा व्यवहार है, न कि चापलूसी।

3. दुआ और तारीफ: घमंड का टेस्ट

इमाम अली (अ.स.) दुआ करते हैं: “نَسْأَلُ اللهَ… أَنْ لَا تُبْطِرَهُ نِعْمَةٌ हम अल्लाह से दुआ करते हैं… कि वह किसी दुआ से मोहित न हो।”

हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि दुआ हमें बागी न बनाए।

तारीफ भी एक दुआ है। अगर कोई इंसान तारीफ पाकर खुदगर्ज़ हो जाता है, तो वह बर्बादी के रास्ते पर है।

4. खुद का हिसाब: तारीफ का बैलेंस

इमाम (अ.स.) कहते हैं: “زِنُوا أَنْفُسَكُمْ مِنْ قَبْلِ أَنْ تُوزَنُوا तुम्हें तौला जाए, उससे पहले खुद को तौल लो।”

तुम्हें तौला जाए, उससे पहले खुद को तौल लो।

यह उसूल सिखाता है कि इंसान को दूसरों की तारीफ पर नहीं, बल्कि अपने हिसाब पर भरोसा करना चाहिए।

5. स्वार्थ: तारीफ़ की सबसे बड़ी मुसीबत

नहज अल-बलाघा में, खुद से प्यार करने को समझदारी का दुश्मन बताया गया है: “اَلْإِعْجَابُ ضِدُّ الصَّوَابِ وَآفَةُ الْأَلْبَابِ अल-इकामा सही रास्ते के खिलाफ़ है और दिमाग के लिए मुसीबत है।”

स्वार्थ सही रास्ते के खिलाफ़ है और दिमाग के लिए मुसीबत है।

और उन्होंने कहा: “عُجْبُ الْمَرْءِ بِنَفْسِهِ أَحَدُ حُسَّادِ عَقْلِهِ खुद की तारीफ़ करने वाला इंसान अपनी समझ से जलता है।”

यानी, बहुत ज़्यादा तारीफ़ इंसान को समझदारी से दूर कर देती है।

6. बहुत ज़्यादा तारीफ़: चापलूसी

इमाम अली (अ.स.) एक साफ़ नियम बताते हैं: “اَلثَّنَاءُ بِأَكْثَرَ مِنَ الْاِسْتِحْقَاقِ مَلَقٌ जितनी तारीफ़ की जाए उतनी तारीफ़ चापलूसी है।”

जो तारीफ़ सही से ज़्यादा हो, वह चापलूसी है।

और जो तारीफ़ सही से कम हो, उसे जलन या समझ की कमी माना जाता है। यह बात तारीफ़ का सुनहरा नियम है।

7. शासकों के लिए खास चेतावनी

इमाम (अ.स.) कहते हैं: “إِنَّ مِنْ أَسْخَفِ حَالَاتِ الْوُلَاةِ… حُبَّ الْفَخْرِ असल में, राज करने की सबसे बुरी हालत में से एक है… घमंड से प्यार करना।”

नेक लोगों के हिसाब से, शासकों की सबसे बुरी हालत यह है कि उन्हें घमंड और तारीफ़ पसंद होती है।

यह उसूल हर उस इंसान के लिए एक गाइड है जो ऑफिस में है।

8. सच, मुक्ति और सम्मान

इमाम (अ.स.) कहते हैं: “اَلصَّادِقُ عَلَى شَفَا مَنْجَاةٍ وَكَرَامَةٍ सच्चे लोग मुक्ति और सम्मान के किनारे पर होते हैं।”

एक सच्चा इंसान मुक्ति और सम्मान के किनारे पर होता है।

सच पर आधारित तारीफ़ इंसान को सम्मान की ओर ले जाती है।

9. भाषा: तारीफ़ का सबसे नाज़ुक ज़रिया

इमाम अली (अ.स.) बार-बार भाषा की सुरक्षा पर ज़ोर देते हैं: “اَللِّسَانُ سَبُعٌ إِنْ خُلِّيَ عَنْهُ عَقَرَ अगर मैं ज़बान को बंजर छोड़ दूं तो वह सात हो जाएगी।”

ज़बान एक जानवर है, अगर उसे खुला छोड़ दिया जाए, तो वह तुम्हें चीर-फाड़ कर देगी।

इसीलिए उन्होंने कहा: “इसलिए अपनी ज़बान की रक्षा वैसे ही करो जैसे तुम अपने सोने की करते हो।”

चाहे तारीफ़ हो या बुराई—दोनों में भाषा पर कंट्रोल ज़रूरी है।

10. सबसे अच्छी तारीफ़: एक प्रैक्टिकल उदाहरण

इमाम अली (अ) कहते हैं: “أَرَيْتُكُمْ كَرَائِمَ الْأَخْلَاقِ مِنْ نَفْسِي मैंने तुम्हें अपनी तरफ़ से सबसे अच्छी नैतिकता दिखाई है।”

नहजुल बलाग़ा के अनुसार, प्रैक्टिकल कैरेक्टर सबसे बड़ी तारीफ़ है।

नतीजा:

नहजुल बलाग़ा की रोशनी में, यह बात बहुत साफ़ हो जाती है कि:

• तारीफ़ सच्चाई पर आधारित होनी चाहिए

• मॉडरेट होनी चाहिए

• सुधार का कारण होनी चाहिए

• चापलूसी, बढ़ा-चढ़ाकर बात करने और स्वार्थ से दूर होनी चाहिए

ऐसी तारीफ़ इंसान को ऊपर उठाती है, जबकि बेवजह की तारीफ़ इंसान को नीचे गिरा देती है।

इमाम अली (अ) की शिक्षाएँ हमें सिखाती हैं कि असली इज़्ज़त तारीफ़ सुनने में नहीं, बल्कि कैरेक्टर, सच्चाई और विनम्रता में है।

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