यह दिन मोहर्रम की दसवीं तारीख़ है जो इस्लामी कैलेंडर के हिसाब से साल का पहला महीना है।
आशूरा करबला में इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है। हुसैन पैंग़ंबर हज़रत मोहम्मद के नवासे थे।
शिया मुसलमान इस दिन फ़ाक़ा (रोज़े की नियत किए बिना दिन भर कुछ ना खाना और पीना फ़ाक़ा कहलाता है) कर उस घड़ी को याद करते हैं।
इस दिन ताज़िए निकाल कर और मातम कर के 680 ईस्वी में आधुनिक इराक़ के करबला शहर में हुसैन की शहादत का ग़म मनाया जाता है।
शिया पुरुष और महिलाएँ काले लिबास पहन कर मातम में हिस्सा लेते हैं।
कहीं-कहीं यह मातम ज़ंजीरों और छुरियों से भी किया जाता है जब श्रद्धालु स्वंय को लहूलुहान कर लेते हैं।
हाल में कुछ शिया नेताओं ने इस तरह की कार्रवाइयों को रोकने की भी बात कही है और उनका कहना है कि इससे बेहतर है कि इस दिन रक्तदान कर दिया जाए।
हुसैन की शहादत ही वह मौक़ा था जब शिया और सुन्नी धड़ों के बीच ज़बरदस्त खाई पैदा हो गई।
प्रारंभिक इस्लामी इतिहास में शिया एक राजनीतिक धड़े का हिस्सा थे जो पैंगंबर हज़रत मोहम्मद के दामाद और सुन्नी मुस्लमानो के हिसाब से चौथे ख़लीफ़ा और शिया मुस्लमानो के हिसाब से बिला फस्ल खलीफ़ा अली के समर्थक थे।
वर्ष 661 ईस्वी में अली की हत्या हो गई और उनके मुख्य विरोधी मुवैया ख़लीफ़ा बन गए।
इसी के बाद इस्लाम शिया और सुन्नी धड़ों में बंटा।
ख़लीफ़ा मुवैया के बाद उनके उत्तराधिकारी यज़ीद ने गद्दी संभाली लेकिन अली के बेटे हुसैन ने उनकी ख़िलाफ़त मानने से इंकार कर दिया और उसके बाद दोनों पक्षों के बीच लड़ाई शुरू हुई।
वर्ष 680 ईस्वी में हुसैन और उनके अनुयायी करबला के मैदान में शहीद हो गए।
अली और हुसैन की शहादत के बाद शिया समुदाय ने अपने तरीक़े से अन्याय और दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी।
इस समय शिया दुनिया की कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 15 प्रतिशत से अधिक है।