۱۳ تیر ۱۴۰۳ |۲۶ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 3, 2024
امام خامنه ای و پدر

हौज़ा/आप के पिता हज़रत आयतुल्लाह अलहाज सैय्यद जवाद ख़ामनेई आज़रबाईजान प्रांत के बहुत परहेज़गार व सादा जीवन गुज़ारने वाले आलिमे दीन थे, उन्होंने दीन की तबलीग के लिए हर संभव मेहनत करते रहे,

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,आयतुल्लाह अलहाज सैयद जवाद ख़ामनेई आज़रबाईजान प्रांत के बहुत परहेज़गार व सादा जीवन गुज़ारने वाले आलिमे दीन थे। नजफ़े अशरफ़ में बरसों तालीम हासिल करने के बाद वह मशहद रवाना हुए और वहीं के होकर रह गए। इस मशहूर परहेज़गार आलिमे दीन के निधन के वक़्त मशहद में काफ़ी तादाद में श्रद्धालु मौजूद थे लेकिन 91 साल की उम्र और पचास साल तक इस्लामी ज्ञान की शिक्षा देने और तबलीग़ की सरगर्मियों तथा पेश नमाज़ के रूप में सेवा करने के बाद उनकी कुल संपत्ति मशहद में गरीबों के मुहल्ले में एक मामूली सा मकान और पैंतालीस हज़ार तूमान था।
सैयद जवाद ख़ामनेई सन 1895 में पतझड़ के मौसम में नजफ़े अशरफ़ में पैदा हुए। अभी वह काफ़ी छोटे ही थे कि उनके घरवाले तबरेज़ लौट आए। बच्चे ही थे कि उनके पिता आयतुल्लाह सैयद हुसैन ख़ामेनेई का निधन हो गया। उन्होंने आरंभिक शिक्षा तबरेज़ में हासिल की सन 1919 के आसपास वह मशहद रवाना हुए और उस सफ़र ने उनकी जिंदगी की डगर बदल दी। उनके हवाले से बताया जाता है कि उन्होंने अपने क़रीबी लोगों से कहा था कि अगर जिंदगी यह है जो मशहद में गुज़र रही है तो हमने इससे पहले की ज़िंदगी फ़ुज़ूल में गुज़ार दी। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पवित्र रौज़े के क़रीब घर होने की वजह से ज़िन्दगी नए चरण में दाख़िल हो गई।
उन्ही दिनों उनके पिता का निधन हो गया और इस तरह बचपन में बाप के साए से महरूम होने के बाद, सैयद जवाद को नौजवानी में एक बड़ा दुख उठाना पड़ा। पिता के निधन के बाद मशहद में स्थायी तौर से रहने के बारे में सैयद जवाद का फ़ैसला और मज़बूत हो गया और वह हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के क़रीब रहने लगे। मशहद में क़रीब 8 साल तक रहने के बाद वह उच्च मज़हबी तालीम के लिए एक बार फिर नजफ़े अशरफ़ और इस शहर के तालीमी मरकज़ में पहुंच गए। आग़ा मोहम्मद हुसैन नाईनी, आग़ा ज़िया इराक़ी और सैयद अबुल हसन इस्फ़हानी जैसे महान उलमा, उनके शिक्षकों में थे, जिनकी क्लास में सैयद जवाद नजफ़ में शरीक होते थे। आयतुल्लाह नाईनी को शिया धर्मगुरुओं में बड़ा मक़ाम हासिल था और उन्होंने बहुत से शिष्यों का प्रशिक्षण किया।
अलहाज सैयद जवाद ने कई साल तक आयतुल्लाह नाईनी की क्लास में शामिल होने के बाद रवायत और इज्तेहाद की इजाज़त हासिल की और पाँच साल बाद दोबारा ईरान लौट आए और मशहद रवाना हो गए, लेकिन उसी वक़्त उनकी बीवी का निधन हो गया और अपनी उम्र की चौथी दहाई में उन्हें अपनी ज़िन्दगी के तीसरे दुख का सामना करना पड़ा। इससे पहले माँ-बाप का निधन उनकी ज़िन्दगी के दो बड़े दुख थे। उसके बाद उन्होंने मशहद के मशहूर धर्मगुरू आयतुल्लाह अलहाज सैयद हाशिम नजफ़ाबादी मीर दामादी की बेटी बानो ख़दीजा मीर दामादी को अपना जीवन साथी बनाया। आयतुल्लाह सैयद जवाद ख़ामेनेई और बानो ख़दीजा मीर दामादी के पाँच बच्चे हुए जिनमें दूसरे नंबर पर सुप्रीम लीडर आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई हैं।
अलहाज सैयद जवाद ख़ामनेईकी कुछ ख़ूबियां

अलहाज सैयद जवाद नजफ़ से वापसी के बाद मुजहतिह बन चुके थे, लेकिन उन्होंने धार्मिक स्टूडेंट्स को पढ़ाने के लिए ख़ुद से क्लास शुरू करने में कोई रूचि नहीं दिखाई। उनके बेटे सैयद मोहम्मद हसन ख़ामेनेई ने बरसों बाद अपने पिता के बारे में कहा था कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कभी भी दिखावे की कोशिश नहीं की। उनका यह जज़्बा उनकी उम्र के आख़िरी हिस्से तक बाक़ी रहा, जब उनके बेटे सांसद थे और उनका एक बेटा राष्ट्रपति था, तब भी उन्होंने दिखावा नहीं किया। जिस वक़्त उनके बेटे अलहाज सैयद अली ख़ामेनेई, राष्ट्रपति थे, उस वक़्त भी वह उसी मामूली घर में रहते थे जो उन्होंने पचास साल पहले लिया था, उसी अस्ली शक्ल व सूरत में। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पवित्र रौज़े में जाने और वहाँ से वापस आने के लिए भी अलहाज रज़ा अपनी पुरानी पैकान पिक-अप कार लेकर आया करते और वह दोनों साथ में ज़ियारत के लिए जाते थे।
अलहाज सैयद जवाद की कुछ ख़ूबियां थीं। अगरचे ज़ाहिरी तौर पर कुछ ख़ास राजनैतकि सर्गर्मियां नहीं थीं लेकिन क़दमों से ज़ाहिर हो जाता है कि वह क्रांतिकारियों और पहलवी शासन के बीच सत्य व असत्य की लड़ाई में निष्पक्ष नहीं थे। उन्होंने सरकश शाही शासन से दूरी बनाए रखी। इस संबंध में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई कुछ दिलचस्प बातें बयान करते हैः “ज़्यादातर शिया धर्मगुरुओं की तरह वह भी हुकूमत को नफ़रत की निगाह से देखते थे, ख़ास तौर पर इसलिए कि उन्होंने पहलवी शासन काल भी देखा और वह वक़्त भी गुज़ारा था और उसकी सख़्तियां बर्दाश्त की थीं। वह एक लम्हे के लिए भी पिछली हुकूमतों के कोई काम न आए और उन्होंने कभी भी किसी भी सरकारी सभा व दावत में भाग नहीं लिया, यहाँ तक कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पवित्र रौज़े के म्यूज़ियम के प्रोग्राम का विशेष लाउंज वह जगह थी जहाँ ईद के मौक़े पर मशहद के धर्मगुरूओं को दावत दी जाती थी और बहुत से धर्मगुरू व वरिष्ठ लोग वहाँ जाते थे... बस दो-तीन धर्मगुरू थे जिन्होंने कभी भी उस प्रोग्राम में भाग नहीं लिया, उनमें से एक मेरे पिता भी थे।

इमाम ख़ुमैनी से परिचय

अलबत्ता आयतुल्लाह सैयद जवाद ख़ामेनेई की पोज़ीशन सिर्फ़ इन्हीं बातों तक सीमित नहीं थी। काफ़ी पहले से उनके इमाम ख़ुमैनी से अच्छे संबंध थे। रज़ा ख़ान के शासन काल के आग़ाज़ में इमाम ख़ुमैनी के मशहद के एक सफ़र में दोनों की जान-पहचान हुयी थी। उनके एक दोस्त ने उन्हें आक़ा रूहुल्लाह से मिलवाया था और फिर उन्होंने उन्हें अपने घर पर दावत दी। दोनों के बीच जान-पहचान के बरसों बाद जब भी आक़ा रूहुल्लाह, नौजवान सैयद अली ख़ामेनेई को देखते तो उनसे उनके वालिद सैयद जवाद का हालचाल ज़रूर पूछते। अलहाज सैयद जवाद भी जो बाद में क़ुम आया जाया करते थे, इमाम ख़ुमैनी से ज़रूर मुलाक़ात करते थे। सन 1964 में जब पहलवी शासन ने इमाम ख़ुमैनी को मुल्क से निर्वासित कर दिया और वह तुर्की चले गए तो सैयद जवाद मशहद के उन धर्मगुरुओं में थे जिन्होंने इस पर विरोध जताते हुए इस शहर की सिद्दीक़ी मस्जिद में जमाअत की नमाज़ पढ़ाना बंद कर दिया था। आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई मशहद में क्रांतिकारी जिद्दो जेहद के चरम के दौर के बारे में अपनी यादें बयान करते हुए कहते हैः “मेरे पिता उन सभाओं में भाग लेते थे जिनमें धर्मगुरू शामिल होते थे। कभी कभी वह मुझसे, मशहद में उन सभाओं में जिनका मैं आयोजक होता था, कहते थे कि तुम मेरी जगह वहाँ वोट देना और कहना कि मैं हूं और सहमत हूं।”
आयतुल्लाह सैयद अली ख़ामेनेई अपने राष्ट्रपति काल में अपने माँ-बाप के ज़ाहेदाना जज़्बे के बारे में कहते हैः “मैं राष्ट्रपति था और इस देश के संसाधन, उस हद तक जितने राष्ट्रपति के अधिकार में होते हैं, मेरे अख़्तियार में थे, लेकिन इन दो बुज़ुर्गों को तनिक भी अपेक्षा नहीं थी कि उस घर को अच्छा बना दें या उसकी शक्ल बेहतर कर दें। मेरे पिता ने सन 1986 तक और मेरी माँ ने मेरे राष्ट्रपति काल के अंत तक उसी घर में ज़िन्दगी गुज़ारी, लेकिन उस को बेहतर बनाने के लिए कोई भी बदलाव नहीं किया गया।”
आयतुल्लाह सैयद जवाद ख़ामेनेई ने ईमान, तपस्या और तक़वा के साथ 91 साल का पाक जीवन बिताने के बाद 5 जुलाई सन 1986 को इस संसार को अलविदा कहा। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने एक संदेश में उन्हें ऐसी हस्ती क़रार दिया जिसने पूरी ज़िम्मेदारी, अल्लाह से डर और ज्ञान के साथ गुज़ार दी। अलहाज सैयद जवाद का जनाज़ा 6 जुलाई सन 1986 को मशहद के अवाम की भारी भीड़ में बड़ी शान से उठा और मशहद के इमामे जुमा आयतुल्लाह शीराज़ी ने उनकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई। फिर उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पवित्र रौज़े में दारुल फ़ैज़ नामी हिस्से में दफ़्न कर दिया गया।

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