۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
امامین کاظمین

हौज़ा/हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम 25 रजब 183 हिजरी क़मरी को अब्बासी ख़लीफ़ा हारुन रशीद के हाथों शहीद किए गए थे जिससे पूरा इस्लामी जगत शोकाकुल हो गया।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम 25 रजब 183 हिजरी क़मरी को अब्बासी ख़लीफ़ा हारुन रशीद के हाथों शहीद किए गए थे जिससे पूरा इस्लामी जगत शोकाकुल हो गया।

अधिक उपासना और त्याग के कारण इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को अब्दुस्सालेह अर्थात नेक बंदे की उपाधि दी गयी। इसी प्रकार इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने क्रोध को पी जाते थे जिसके कारण उनकी एक प्रसिद्ध उपाधि काज़िम है।

इतिहास में बयान हुआ है कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के जीवन का समय बहुत कठिन था। उस समय दो अत्याचारी शासकों की सरकारें रहीं। एक अब्बासी ख़लीफ़ा मंसूर और दूसरा हारून रशीद था।

उस समय इन अत्याचारी शासकों ने लोगों की हत्या करके बहुत से जनआंदोलनों का दमन कर दिया था। दूसरी ओर इन्हीं अत्याचारी शासकों के काल में जिन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की गयी वहां से प्राप्त होने वाली धन- सम्पत्ति इन शासकों की शक्ति में वृद्धि का कारण बनी। इसी प्रकार उस समय समाज में बहुत से मतों की गतिविधियां ज़ोर पकड़ गयीं थीं इस प्रकार से कि धर्म और संस्कृति के रूप में हर रोज़ एक नई आस्था समाज में प्रविष्ट हो रही थी और उसे अब्बासी सरकारों का समर्थन प्राप्त था।

शेर, कला, धर्मशास्त्र, कथन और यहां तक कि तक़वा अर्थात ख़ुदाई भय का दुरुपयोग सरकारी पदाधिकारी करते थे। घुटन का जो वातावरण व्याप्त था उसके कारण बहुत से क्षेत्रों के लोग सीधे इमाम से संपर्क नहीं कर सकते थे। इस प्रकार की परिस्थिति में जो चीज़ इस्लाम को उसके सहीह रूप में सुरक्षित कर सकती थी वह इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का सहीह दिशा निर्देश और अनथक प्रयास था।

  इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने पिता इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के मार्ग को जारी रखा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने इस्लामी संस्कृति में ग़ैर इस्लामी चीज़ों के प्रवेश को रोकने तथा अपने अनुयायियों के सवालों के उत्तर देने को अपनी गतिविधियों का आधार बनाया।

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज की आवश्यकताओं से पूर्णरूप से अवगत थे इसलिए उन्होंने विभिन्न विषयों के बारे में शिष्यों की प्रशिक्षा की। सुन्नी मुसलमानों के प्रसिद्ध विद्वान और मोहद्दिस अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके अहलेबैत (परिजनों) के कथनों के ज्ञाता इब्ने हज्र हैसमी अपनी किताब "सवाएक़ुल मुहर्रेक़ा" में लिखते हैं: इमाम मूसा काज़िम, इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकारी हैं।

ज्ञान, परिपूर्णता और दूसरों की ग़लतियों की अनदेखी कर देने तथा बहुत अधिक धैर्य करने के कारण उनका नाम काज़िम रखा गया। इराक़ के लोग उनके घर को 'बाबुल हवाएज' के नाम से जानते थे क्योंकि उनके घर से लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने समय के सबसे बड़े आबिद (उपासक) थे। उनके समय में कोई भी ज्ञान और दूसरों को क्षमा कर देने में उनके समान नहीं था।

भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना ख़ुदाई धर्म इस्लाम के दो महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अहलेबैत (परिजनों) ने इसके बारे में बहुत अधिक बातें की हैं। इस प्रकार से कि इन दो सिद्धांतों के बारे में इस्लाम के अलावा दूसरे आसमानी धर्मों में भी बहुत बल दिया गया है। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने भी अपने पावन जीवन में इन चीज़ों पर बहुत बल दिया है।

बिश्र बिन हारिस हाफ़ी की कहानी को इस संबंध में एक अनुपम आदर्श के रूप में देखा जा सकता है। बिश्र बिन हारिस हाफ़ी ने कुछ समय तक अपना जीवन ख़ुदा की अवज्ञा एवं पाप में बिताया। एक दिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम उस गली से गुज़रे जिसमें बिश्र बिन हारिस हाफ़ी का घर था।

जिस समय इमाम बिश्र के दरवाज़े के सामने पहुंचे संयोगवश उनके घर का द्वार खुला और उनकी एक दासी घर से बाहर निकली। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने उस दासी से पूछा: तुम्हारा मालिक आज़ाद है या ग़ुलाम? दासी ने उत्तर दिया आज़ाद है।

इमाम ने अपना सिर हिलाया और कहा: ऐसा ही है जैसे तुमने कहा। क्योंकि अगर वह दास होता तो बंदों की भांति रहता और अपने ख़ुदा के आदेशों का पालन करता। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने यह बातें कहीं और रास्ता चल दिये। दासी जब घर में आई तो बिश्र ने उससे देर से आने का कारण पूछा। उसने इमाम के साथ हुई बातचीत को बताया तो बिश्र नंगे पैर इमाम के पीछे दौड़े और उनसे कहा: ऐ मेरे आक़ा! जो कुछ आपने इस महिला से कहा एक बार फिर से बयान कर दीजिए। इमाम ने अपनी बात फिर दोहराई।

उस समय ब्रिश्र के हृदय पर ख़ुदाई प्रकाश चमका और उन्हें अपने किये पर पछतावा हुआ। उन्होंने इमाम का हाथ चूमा और अपने गालों को ज़मीन पर रख दिया इस स्थिति में कि वह रोकर कह रहे थे कि हां मैं बंदा हूं! हां मैं बंदा हूं!

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के लिए बहुत ही अच्छी शैली अपनाई। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने एक छोटे से वाक्य से बिश्र का ध्यान उनकी ग़लती की ओर केन्द्रित किया और वह इस प्रकार बदल गये कि उन्होंने अपनी ग़लतियों व पापों से प्रायश्चित किया और अपना शेष जीवन सहीह तरह से व्यतीत किया।

अब्बासी ख़लीफ़ा अपनी लोकप्रियता और अपनी सरकार की वैधता तथा इसी प्रकार लोगों के दिलों में आध्यात्मिक प्रभाव के लिए स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकारी और उनका वंशज बताते थे। अब्बासी ख़लीफ़ा, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के चाचा जनाबे अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तलिब के वंश से थे और इसका वे प्रचारिक लाभ उठाते और स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकार बताते थे।

वे दावा करते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजन हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) के वंशज से हैं और हर इंसान का संबंध उसके पिता और दादा के वंश से होता है इसलिए वे पैग़म्बरे इस्लाम (स) के वंश नहीं हैं। इस प्रकार की बातें करके वास्तव में वे आम जनमत को दिग्भ्रमित करने के प्रयास में थे।

इसलिए इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने पवित्र क़ुरआन का सहारा लेकर उन लोगों का मुक़ाबला किया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने हारून रशीद से जो शास्त्रार्थ किये हैं वह ख़िलाफ़त के बारे में अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम का स्थान समझने के लिए काफ़ी है।

एक दिन हारून रशीद ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से पूछा आप किस प्रकार दावा करते हैं कि आप पैग़म्बरे इस्लाम (स) की संतान हैं जबकि आप अली की संतान हैं? इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने उसके उत्तर में पवित्र क़ुरआन के सूरए अनआम की आयत नंबर ८५ और ८६ की तिलावत की जिसमें अल्लाह फ़रमाता है: इब्राहीम की संतान में से दाऊद और सुलैमान और अय्यूब और यूसुफ़ और मूसा और हारून और ज़करिया और यहिया और ईसा हैं और हम अच्छे लोगों को इस प्रकार प्रतिदान देते हैं।"

उसके बाद इमाम ने फ़रमाया: जिन लोगों की गणना इब्राहीम की संतान में की गयी है उनमें एक ईसा हैं जो मां की तरफ़ से उनकी संतान में से हैं जबकि उनका कोई बाप नहीं था और केवल अपनी मां जनाबे मरियम की ओर से उनका रिश्ता पैग़म्बरों तक पहुंचता है। इस आधार पर हम भी अपनी मां जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम (स) की संतान हैं।

हारून रशीद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का तार्किक जवाब सुनकर चकित रह गया और उसने इस संबंध में इमाम से अधिक स्पष्टीकरण मांगा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने मुबाहेला की घटना का उल्लेख किया जिसमें अल्लाह ने सूरए आले इमरान की ६१वीं आयत में पैग़म्बरे इस्लाम (स) को आदेश दिया है कि जो भी आप से ईसा के बारे में बहस करें इसके बाद कि आपको उसके बारे में जानकारी प्राप्त हो जाये तो उनसे आप कह दीजिये कि आओ हम अपनी बेटों को लायें और तुम अपने बेटों को लाओ और हम अपनी स्त्रियों को लायें और तुम अपनी स्त्रियों को लाओ और हम अपने नफ़्सों (आत्मीय) लोगों को ले आयें और तुम अपने आत्मीय लोगों को ले आओ उसके बाद हम मुबाहेला (शास्त्रार्थ) करते हैं और झूठों पर अल्लाह की लानत (प्रकोप) व धिक्कार की प्रार्थना करते हैं।" इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बेटों से तात्पर्य हज़रत हसन और हुसैन तथा स्त्री से तात्पर्य हज़रत फ़ातिमा और अपने नफ़्स (आत्मीय) लोगों के रूप में हज़रत अली थे।” हारून रशीद यह जवाब सुनकर संतुष्ट हो गया और उसने इमाम की प्रशंसा की।

इंसान की मुक्ति व सफ़लता के लिए पवित्र कुरआन सबसे बड़ा ख़ुदाई उपहार है। इंसान को कमाल (परिपूर्णता) तक पहुंचने में इस आसमानी किताब की रचनात्मक भूमिका सब पर स्पष्ट है। पवित्र क़ुरआन पैग़म्बरे इस्लाम (स) का ऐसा मोजिज़ा (चमत्कार) है जो क़यामत तक बाक़ी रहेगा और उसने अरब के भ्रष्ट समाज में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। यह परिवर्तन इस प्रकार था कि सांस्कृतिक पहलु से उसने मानव समाज में प्राण फूंक दिया।

हदीसे सक़लैन नाम से प्रसिद्ध हदीस में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने पवित्र अहलेबैत (परिजनों) को क़ुरआन के बराबर बताया है और मुसलमानों को आह्वान किया है कि जब तक वे इन दोनों से जुड़े रहेंगे तब तक कदापि गुमराह नहीं होंगे और यह दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम लोगों को अल्लाह की इस किताब से अवगत कराने के लिए विशेष ध्यान देते थे। इमाम लोगों को आह्वान न केवल इस किताब की तिलावत के लिए करते थे बल्कि इस कार्य में स्वयं दूसरों से अग्रणी रहते थे।

  मशहूर धर्मगुरू शेख़ मुफ़ीद ने अपनी एक किताब "इरशाद" में इस प्रकार लिखा है: इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने काल के सबसे बड़े धर्मशास्त्री, सबसे बड़े कुरआन के ज्ञाता और लोगों की अपेक्षा सबसे अच्छी ध्वनि में क़ुरआन की तिलावत करने वाले थे।”

  इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र क़ुरआन पर जो विशेष ध्यान देते थे वह केवल व्यक्तिगत आयाम तक सीमित नहीं था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक महत्वपूर्ण कार्य पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर (व्याख्या) करना था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज के लोगों के ज्ञान का स्तर बढ़ाने के लिए बहुत प्रयास करते थे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या में उन स्थानों पर विशेष ध्यान देते थे जहां पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र अहलेबैत (परिजनों) के स्थान की ओर संकेत किया गया है।

उदाहरण स्वरूप सूरए रूम की १९ वीं आयत में अल्लाह कहता है: "हम ज़मीन को मुर्दा होने के बाद पुनः जीवित करेंगे।" इमाम से पूछा गया कि ज़मीन के ज़िन्दा करने से क्या तात्पर्य है? इमाम ने इसके उत्तर में फ़रमाया: ज़मीन का जीवित होना वर्षा से नहीं है बल्कि ख़ुदा ऐसे लोगों को चुनेगा जो न्याय को जीवित करेंगे और ज़मीन न्याय के कारण जीवित होगी और ज़मीन में ख़ुदाई क़ानून का लागू होना चालीस दिन वर्षा होने से अधिक लाभदायक है।

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम इस रिवायत में समाज में न्याय स्थापित होने को ज़मीन के जीवित होने से अधिक लाभदायक मानते हैं। वास्तव में पवित्र क़ुरआन की आयतों की इस प्रकार की व्याख्या इमामत के स्थान को बयान करने के लिए थी कि जो स्वयं इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक सांस्कृतिक कार्य था।

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