۳۱ اردیبهشت ۱۴۰۳ |۱۲ ذیقعدهٔ ۱۴۴۵ | May 20, 2024
अल्लामा सिब्तुल हसन हंसवी

हौज़ा / पेशकश: दानिशनामा इस्लाम, इंटरनेशनल नूरमाइक्रो फिल्म सेंटर दिल्ली काविश: मौलाना सैयद गाफ़िर रिज़वी छोलसी और मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फ़ंदेड़वी

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, अल्लामा सिब्तुल हसन रिज़वी हंसवी सन 1908 ई॰ में सरज़मीने बनारस पर पैदा हुए, आपके वालिद सय्यद फैज़ुल हसन रिज़वी निहायत दीनदार शख्श थे, जो बनारस में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में मुलाज़िम थे, इसी लिये मौलाना की परवरिश बनारस में हुई।

अल्लामा इब्तेदाई से फ़ाज़िल तक “मदर्सए ईमानया बनारस” में जवादुल औलमा मौलाना सय्यद अली जवाद और मौलाना सय्यद मोहम्मद सज्जाद की सरपरस्ती में तालीम हासिल करने और घाट पर परवरिश पाने की वजह से बचपन ही से गंगा जमना तहज़ीब के हामिल थे, आपको इस्लामी उलूम के साथ हिन्दु फ़लसफ़े पर भी उबूर हासिल था, क़ुरआन और गीता दोनों पर मुसल्लत थे नीज़ “नहजुल बलागा” आपकी पसंदीदा किताब थी।

अल्लामा ने अपने दुनयावी तदरीसी सफ़र का आगाज़ “एविंग किरिश्चन कालिज इलाहबाद” से किया और वहीं से तरबियत का आग़ाज़ किया,1933 ई॰ में उनकी तहरीर करदा किताब शाया हुई जो “ ईविंग कृशचन कालिज इलाहबाद” के निसाब के लिये तजवीज़ की गयी, मुखतलिफ़ मुसन्नेफ़ीन के इक़तबासात का उर्दू तरजमा किया जो 1937 ई॰ में कालिज के तुल्लाब के लिये शाया किया गया था।

अल्लामा आहिस्ता आहिस्ता इलाहबाद में जारी आज़ादी की जिद्दो जहद में शामिल हुए और एक नोजवान मुहिब्बे वतन की हैसियत से बाईकाट की तहरीक का हिस्सा बन गये, वो हिंदुस्तान की आज़ादी के लिये महात्मा गाँधी और पंडित जवाहर लाल के पैरोकार थे।

तहरीके आज़ादी में शामिल होने के सबब अल्लामा को मुलाज़ेमत से निकाल दिया  और सन 1933ई॰ में कुछ अरसे के लिये ज़िंदान की अज़ीय्यतें भी बर्दाश्त कीं। अल्लामा खादी के अलावा किसी दूसरी क़िस्म के कपड़े नहीं पहनते थे, इस आदत को मोसूफ़ ने आज़ादी के बाद भी जारी रखा।

फ़ाज़िल हंसवी सन 1930ई॰ की दहाई के आख़िर में लखनऊ में आबाद हुए और सईदुल मिल्लत के साथ ज़ियारते अतबाते आलियात की ग़रज़ से नजफ़, करबला और मशहद का सफ़र किया , हौज़े इलमिया नजफ़ में आयतुल्लाह बुरुजर्दी से मुलाक़ात हुई तो उन्होने अल्लामा की लियाक़ते इल्मी को देखकर इजाज़े से नवाज़ा, उनके अलावा दीगर मराजे किराम ने भी इजाज़ात मरहमत फ़रमाए, आपके हासिल शुदा इजाज़ात की तादाद 18 बताई जाती है।

अल्लामा की डाइरी के मुताबिक़ माहे अगस्त सन 1947ई॰ में हिंदुस्तान को आज़ादी मिली तो उस वक़्त वो इराक़ के शहर (कर्बला) में थे, जब उन्होने आज़ादी और तक़सीम की ख़बर सुनी तो परेशान हुए कि कहाँ जाएँ? एक तरफ़ मादरे वतन जहाँ क़त्ले आम हो रहा था तो दूसरी तरफ़ पाकिस्तान जिसकी उन्होने मुखालेफ़त की थी  उसी वक़्त तंज़ानया के एक बाअसर और ख़ुशहाल शख़्स ने उन्हें “दारुस सलाम” में सुकुनत इख्तियार करने और पेशनमाज़ बनने की पेशकश की तो अल्लामा ने कोई जवाब नहीं दिया और पूरी रात इमामे हुसैन अ: की क़ब्र पर दुआ करते हुए गुज़ारी और रो रोकर इमाम से इलतेजा करते रहे कि मैं मज़हब को पेशा नहीं बनाना चाहता, ऐ मेरे मौला हुसैन अ: रास्ता दिखाइये।

सुबह की नमाज़ के बाद वो अपनी रिहाइशगाह पर पोंहचे तो देखा कि एक आदमी उनका इंतेज़ार कर रहा है, उस शख़्स ने पूछा क्या आप सिब्तुल हसन हैं? जब उसे हाँ में जवाब मिला तो उसने नेहरू जी का एक ख़त अल्लामा को दिया जिसमें नेहरू जी ने उनसे हिंदुस्तान वापस आने की दरखास्त की थी, इस तरह इराक़ से लखनऊ वापस पलट आये।

1953ई॰ में अल्लामा सिब्तुल हसन हंसवी को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की खाली जगह के बारे में एक ख़त मोसूल हुआ तो मोसूफ़ ने सन 1954 ई॰ में असिस्टेंट लाइब्रेरियन के तोर पर शुमूलियत इख्तियार की और जल्द ही एक सेक्शन के इंचार्ज के ओहदे पर मुक़र्रर हो गये, उन्होंने अमली तौर पर “मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी” का मखतूता सेक्शन बनाया और बड़ी तादाद में मखतूतात और मुताअल्लेक़ा नवादेरात के हुसूल, शनाख़्त और महफ़ूज़ करने में मदद की, मखतूतात के वज़ाहती बयान की एक बड़ी तादाद अब भी उनकी तहरीर में मोजूद है।

अल्लामा सन 1971ई॰ में अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से रिटायर  हो गये जिस यूनीवर्सिटी में उन्होंने बे तहाशा खिदमात अंजाम दीं उसी ने उनको पेंशन देने से मना कर दिया।

मोसूफ़ बड़े फ़ाज़िल, मोहक़्क़िक़ कुतुब शनास और माहिरे इल्मे रिजाल वा तारीख़ थे, तहक़ीक़ उनका मशग़ला था, हज वा ज़ियारात के सफ़र और तबलीगी दोरों में भी उनका महबूब मशग़ला कुतुबखानों की छानबीन था, उन्होंने बहुत से अहम मोज़ूआत पर काम किया,उनकी इल्मी खिदमात के ऐतराफ़ के तौर पर “मुंतदन नश्र नजफ़” अंजुमने तबलीगाते इस्लामी तेहरान, इस्लामिक रिसर्च एसोसी एशन मुंबई और दूसरे इल्मी इदारों ने आपको मिंबर बना लिया था, मरहूम ख़ुद भी इल्मी और तहक़ीक़ी काम करते थे और इस पर राह चलने वाले जवानों की पूरी हिम्मत अफ़ज़ाइ करते थे, इसी वजह से ईरान की बुज़ुर्ग शख्सियात भी उनका एहतराम करती थीं उनके मज़मूए में वो ख़ुतूत मिलते हैं जो इमाम खुमेनी र: ने उन्हें लिखे थे।

अल्लामा ने अलीगढ़ सिविल लाइन में अज़ादारी को दोबारा शुरू किया जो अभी तक जारी वा सारी है।

अल्लामा सिब्तुल हसन हंसवी के अहमतरीन आसार में से मिनहाजे नहजुल बलागा, अलकुतुब वल मकतबात, तारीखे अज़ादारी, तज़किरा ए मजीद, अरबी मरसिये की तारीख़ और इज़हारे हक़ीक़त शामिल हैं, मुखतलिफ़ उर्दू जराइद में शाया होने वाले मज़ामीन की एक बड़ी तादाद भी मौजूद है।

अल्लाह ने आपको तीन बेटियाँ और दो पिसर से नवाज़ा जिनको नजमुल हसन और अली नदीम रिज़वी के नाम से पहचाना जाता है।

शहीदे सालिस के मज़ार की इमारत मोसूफ़ कि हिदायत के तहत तामीर हुई और कई दहाइयों तक वही उसके मुतवल्ली और एज़ाज़ी सीक्रेटरी रहे थे, आख़िर वो वक़्त भी आया कि हरकते क़ल्ब बंद हो जाने के सबब 7 अप्रैल 1978ई॰ में सरज़मीने अलीगढ़ पर वफ़ात पाई, जनाज़ा शहीदे सालिस के मज़ार पर ले जाया गया और नासेरूल मिल्लत की क़ब्र वाले हुजरे में सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया।

उनके बेटे फ़रमाते हैं कि 19 साल बाद 1 जौलाई 1997ई॰ को मुझे इत्तेला मिली कि उनकी क़ब्र में गढ़ा हो गया है, मैं वहाँ पहुँचा और इतमेनाने क़ल्ब की ख़ातिर क़ब्र में दाख़िल हुआ कफ़न उठाया तो मालूम हुआ कि मेरे वालिद ऐसे लेटे हैं, जैसे सो रहे हों कोई इज़ाफ़ी शिकन नहीं, तारीख़ और आसारे क़दीमा के मैदान में रहते हुए ऐसे नमूने पहले भी देखे हैं जब मैंने अपने वालिद के किरदार के पेशे नज़र उनके जिस्म को महफ़ूज़ पाया तो समझ में आया कि ये चीज़ करामत के सिवा और कुछ नहीं।

माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-9 पेज-96 ­दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2023ईस्वी।     

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