हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, मौलवी मोहम्मद बाक़िर 1780 ई॰ में सरज़मीने देहली पर पैदा हुए आपके वालिद मौलवी मोहम्मद अकबर बरजसता अलिमे दीन, बेहतरीन मुदर्रिस और देहली के नामवर औलमा में शुमार होते थे, मौलवी मोहम्मद बाक़िर का ख़ानदान ईरान के मारूफ़ शहर हमदान से हिजरत करके हिंदुस्तान आकर आबाद हुआ, आपके बाप दादा अपने अहद के सफ़े अव्वल के औलमा में शुमार होते थे नीज़ इलमे हदीस, इलमे तफ़सीर, इलमे फ़िक़ह और इलमे तारीख़ में महारत रखते थे।
घर के माहौल में इब्तेदाई तालीम हासिल की फिर अपने वालिदे माजिद के मदरसे में ज़ेरे तालीम रहे, उस मदरसे में देहली और अतराफ़े देहली के तुल्लाब इल्म हासिल करते थे, आपने मौलवी अब्दुर्राज़्ज़ाक़ के हुज़ूर भी ज़ानु ए अदब तै किये जो उस वक़्त काबुली दरवाज़े में सुकूनत पज़ीर थे, इसी मदरसे में “शेख़ इब्राहीम ज़ोक़” से उनके दोस्ताना रवाबित हुए जो उम्र के आख़िर तक बरक़रार रहे।
मौलवी अब्दुर्राज़्ज़ाक़ के मदरसे से फ़रागत के बाद 1825 ई॰में देहली कालिज में तदरीसी खिदमात अंजाम देते रहे, जिस वक़्त देहली कालिज अंग्रेज़ों की तबलीग़ का मरकज़ क़रार पाया तो आपने कालिज को तर्क कर दिया उसके बाद महकमा ए आबयारी में मुलाज़ेमत इख्तियार कर ली फिर एक मुद्दत तक तहसीलदारी के ओहदे पर फाइज़ रहे और तरक़्क़ी के बाद महकमे के सुपरिनडेंडेंट मुक़र्र हुए।
आपने बेइंतेहा मसरूफ़यात के बावजूद बहुत सी खिदमात अंजाम दीं जिनमें से देहली में दरगाह पनजा शरीफ़ के क़रीब इमामबारगाह तामीर कराया जिसे आज़ाद मंज़िल के नाम से जाना गया और इसी दरगाह के क़रीब एक मस्जिद तामीर कराई जिसे “खजूर वाली मस्जिद” के नाम से जाना जाता है ये मस्जिद आज भी मोजूद है, दरगाह पंजा शरीफ़ के क़रीब एक मारूफ़ होज़ा ए इल्मिया तामीर कराया जो शियों की इल्मी वा फ़िकरी तरबियत में कोशाँ था, उस मदरसे में सैंकड़ों तुल्लाब अरबी फ़ारसी, फ़िकह और उसूल के अलावा अंग्रेज़ी ज़बान की तालीम भी हासिल करते थे।
मोसूफ़ ने अहम तसानीफ़ भी छोड़ीं जिनमें से हादीयुत तारीख़, सैफ़े सारिम, हदियुल मखारिज, सफ़ीना ए निजात, तफ़सीरे आया ए विलायत, रिसाला ए गदीर, किताबुत तक़लीब, मुफ़ीदुल औलमा और रिसाला ए निकाह वगैरा क़ाबिले ज़िक्र हैं।
मौलवी बाक़िर ने देहली उर्दू अख़बार निकाला जिसका रस्मे इजरा जनवरी 1838ई॰ में किया और आप ही उसके एडिटर रहे मगर इदारती फ़राइज़ मुखतलिफ़ अफ़राद ने अदा किये जिनमें आपके वालिद मौलवी मोहम्मद अकबर और मौलवी मोहम्मद हुसैन आज़ाद भी शामिल थे, नेशनल आरकाइज़ में जनवरी 1840ई॰ से 1841ई॰ तक देहली उर्दू अख़बार के पर्चे महफ़ूज़ हैं।
मौलवी मोहम्मद बाक़िर ने अक्टूबर 1843ई॰ में “मज़हरुल हक़” के नाम से माहाना रिसाला भी जारी किया जिसमें शिया नुक़ते निगाह की तर्जुमानी होती थी, जिसकी मुदीरियत “इमदाद हुसैन” के ज़िम्मे थी, इसी रिसाले के मुतालए के बाद मौलवी मोहम्मद बाक़िर की फ़िकरी और नज़रयाती बुनयादों का सही इल्म होता है, इस रिसाले से ये भी मालूम होता है कि ग़ुलामी के खिलाफ़ शिया नज़रये की वज़ाहत किस तरह की जाती थी ताकि उस वज़ाहत के ज़रिये अंग्रेजों के खिलाफ़ शिया क़ौम में मज़ीद बेदारी पैदा हो, 1857 ई॰ में “देहली उर्दू अख़बार” ने सामराजी निज़ाम के खिलाफ़ और मुजाहेदीने आज़ादी की हिमायत में कारहाये नुमायां अंजाम दिये, अँग्रेज़ी साज़िशों को नाकाम करने की हर मुमकिन कोशिश की और मज़हबी वा समाजी हम आहंगी में पेशरफ्त की।
जिस वक़्त अंग्रेज़ी फ़ौज के हिंदुस्तानी सिपाही सामराज की मकरूह पालीसयों के खिलाफ़ मुत्तहिद हो रहे थे ऐसे माहौल में देहली उर्दू अख़बार ने वो किरदार अदा किया जिसे हरगिज़ फ़रामोश नहीं किया जा सकता, मौलवी मोहम्मद बाक़िर देहली उर्दू अख़बार में अंग्रेज़ो की पालिसी की मज़म्मत करते रहे और अंग्रेज़ी निज़ाम के खिलाफ़ सफ़ आरा होने वाले फ़ोजयों और हिंदुस्तानयों की तर्जुमानी करते हुए अंग्रेज़ी साज़िशों को बेनक़ाब किया।
19 जुलाई 1857ई॰ मुताबिक़ 26 ज़ीक़ादा 1273 हिजरी को देहली उर्दू अख़बार का नाम बदलकर “अखबारूज़्ज़फ़र” कर दिया ताकि तमाम इंक़लाबी, सामराजी निज़ाम के खिलाफ़ अलमे बगावत बुलंद करने वाले अफ़राद बादशाह की ज़ात को महवर मानते हुए उनके गिर्द जमा हो सकें, कम्पनी की तरफ़ से जो प्रोपैगंडे किये जा रहे थे उनका मुंह तोड़ जवाब भी अख़बार में शाए होता था, उस ज़माने में हिंदू, मुस्लिम इत्तेहाद के फ़रोग के लिये नुमायां कारनामे अंजाम दिये गये, ऐसे इशतहारात जो फ़िर्क़ा वाराना फ़साद के शोले भड़काने और इंक़लाबी जिद्दों जहद को नाकाम बनाने के लिये कंपनी की तरफ़ से छापे जा रहे थे, इस अख़बार में उनका जवाब भी लिखा गया।
मौलवी मोहम्मद बाक़िर ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भरपूर महाज़ खोल दिया था जिसके नतीजे में 1857ई॰ में बगावत की नाकामी के बाद मौलवी बाक़िर को अंग्रेज़ों ने सज़ाए मौत सुना दी उनके घर को नज़रे आतिश कर दिया गया जिसमें उनकी लाइब्रेरी, अखबारात की तमाम जिल्दें, माल वा असबाब और अहम मख्तूतात जलकर राख हो गये, मंक़ूला वा
गैरे मंक़ूला इमलाक पर सरकारी क़ब्ज़ा हो गया और मोसूफ़ के इकलोते फ़रज़ंद मौलवी मोहम्मद हुसैन आज़ाद अंग्रेज़ो के ज़ुल्म से छिपते छिपाते रहे जिसकी वजह से ज़ेहनी बीमार हो गये थे।
मौलवी मोहम्मद बाक़िर की अदबी वा सहाफ़ती खिदमात वा क़ौमी सरगरमियां ना क़ाबिले फ़रामोश हैं, सिर्फ़ देहली उर्दू अख़बार को लम्बी मुद्दत तक कामयाबी के साथ निकालना ही उनका कारनामा नहीं बल्कि क़ौमी, मुल्की खिदमात, मज़हबी वा मसलकी हमआहंगी और तहरीके आज़ादी की जिद्दों जहद में उनके बेमिसाल किरदार को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता ।
अंग्रेज़ों ने मौलवी मोहम्मद बाक़िर को उनकी हक़ बयानी, मुज़ाहेमत और मुजाहेदीने आज़ादी की हिमायत के जुर्म में 16 सितंबर 1857 ई॰ को गोली मारकर शहीद कर दिया, एक क़ौल के मुताबिक़ उन्हें तौप के दहाने पर बाँधकर उड़ा दिया गया, आखिरकार ये इलमो अमल का अफ़ताब वतन से इश्क़ में अपने मालिके हक़ीक़ी से जा मिला।
माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-9 पेज-106 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2023ईस्वी।