हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,सदियों से फ़लसफ़ीयों और इल्म ए क़लाम के जानकार इस सवाल पर विचार करते आए हैं अगर खुदा सबसे पहले से हर चीज़ जानता है, तो फिर इंसान की आज़ादी और इख़्तियार का क्या मक़ाम रहता है? क्या ईश्वर के पहले से जानने का मतलब यह है कि हमारे पास अपनी मर्जी और चुनाव की कोई गुंजाइश नहीं बचती?
अल्लाह तआला का 'इल्म-ए-एज़ली' और इंसान के इख़्तियार का मसला सदियों से दार्शनिकों और मुफ़्तकिरीन के बीच चर्चा का विषय रहा है। इसके संबंध में एक आम शक्ल पेश की जाती है:
शूब्ह:
अगर ईश्वर पहले से जानता है कि मैं क्या करूँगा तो मैं मजबूर हूँ?
यह सोच असल में एक ग़लतफहमी है, जिसमें कारण (अलल) और परिणाम को उल्टा समझ लिया जाता है।
हक़ीक़त यह है कि ईश्वर जानता है क्योंकि तुम चुनाव करोगे, न कि तुम चुनाव करते हो क्योंकि ईश्वर जानता है।
स्पष्टीकरण:
यह बात पहली नज़र में विरोधाभास लगती है कि अगर ईश्वर सबसे पहले से जानता है कि मैं क्या करने वाला हूँ, तो फिर मेरे पास इख़्तियार कैसे है? लेकिन असलियत यह है कि "जानना" और "मजबूर करना" दो अलग बातें हैं।
ईश्वर का ज्ञान हमारे अमलों पर वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति किसी घटना को सीधे देख रहा हो। ईश्वर समय से बाहर है, और अतीत, वर्तमान और भविष्य सब उसके सामने एक साथ हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे हम एक रिकॉर्ड की हुई फिल्म को पूरा देख सकते हैं। लेकिन फिल्म देखने का मतलब यह नहीं कि हमने किसी किरदार को मजबूर किया।
इंसान वास्तव में मालिक है, और उसकी मर्ज़ी भी इस दुनिया में एक असली कारण (अलल) है। जैसे आग जलाने का कारण होती है, वैसे ही इंसान की "इरादा और मर्ज़ी" भी उसके अमल की असली वजह है। इसलिए ईश्वर जानता है कि इंसान क्या करेगा क्योंकि वह अपनी मर्ज़ी से चुनाव करेगा, न कि वह इसलिए करेगा क्योंकि ईश्वर पहले से जानता है।
उदाहरण:
माल लीजिए एक कैमरा हर चीज़ रिकॉर्ड कर रहा है। अगर वीडियो में दिखाया जाए कि मैंने हाथ उठाया, तो इसका मतलब यह नहीं कि कैमरे ने मुझे मजबूर किया। वह बस हक़ीक़त को दिखा रहा है। उसी तरह ईश्वर का ज्ञान हमारे "इख़्तियार" की हक़ीक़त को दर्शाता है।
दार्शनिक पहलू:
(अ) समय की हक़ीक़त: हम समय को रैखिक (अतीत → वर्तमान → भविष्य) समझते हैं। लेकिन ईश्वर समय से परे है, उसके लिए सब समय एक साथ है। इसलिए उसका जानना "पूर्वानुमान" नहीं बल्कि "सीधा अवलोकन" है। और "देखना" कभी ज़बर्दस्ती पैदा नहीं करता।
(ब) इख़्तियार एक असली कारण है: इंसान का इरादा एक असली कारण है, जैसे आग जलाने का कारण। अगर हम इरादे को खत्म कर दें तो इंसान के अस्तित्व का मतलब ही खत्म हो जाएगा।
(स) नैतिक ज़िम्मेदारी: अगर सब कुछ ज़बर्दस्ती होता तो नैतिकता और कानून का कोई आधार न रहता, क्योंकि कोई अपने अमल का ज़िम्मेदार न होता। लेकिन असलियत यह है कि दुनिया के सभी लोग (यहाँ तक कि नास्तिक भी) अपनी ज़िंदगी में "इख़्तियार" और "ज़िम्मेदारी" को मानते हैं। यह इस बात की गवाही है कि इख़्तियार इंसान की फितरत का एक नकारा न जा सकने वाला पहलू है।
धार्मिक प्रमाण:
कुरान कहता है:
«إِنَّا هَدَیْنَاهُ السَّبِیلَ إِمَّا شَاکِراً وَإِمَّا کَفُوراً»
"हमने इंसान को रास्ता दिखाया, अब चाहे वह शुक्रगुजार बने या काफिर। (सूरा-ए-इंसान, आयत 3)यानि दो रास्ते दिए गए, चुनाव इंसान के इख़्तियार में है।
इमाम अली (अलैहिस्सलाम) ने फरमाया:
«لا جبر و لا تفویض، بل أمر بین الأمرین.»
ना ज़बर्दस्ती है, ना पूरी आज़ादी, बल्कि दोनों के बीच की एक हक़ीक़त है।
यानि ईश्वर ने ऐसा नज़रियात बनाया है जिसमें इंसान अपनी मर्ज़ी से फैसला करता है और अपने फैसले का जवाबदेह भी होता है।
नतीजा:
अल्लाह तआला का जानना किसी को मजबूर नहीं करता।
इख़्तियार क़ायनात के नज़मी हिस्सा है।
अगर इख़्तियार न माना जाए तो नैतिकता, कानून और यहाँ तक कि वैज्ञानिक खोज भी निरर्थक हो जाती है।
इसलिए ईश्वर का पहले से जानना और इंसान की आज़ादी एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। हक़ीक़त यह है कि ईश्वर बस यह जानता है कि इंसान अपनी आज़ादी के साथ क्या करेगा।
मसाहिब:
मआरिफ़-ए-इस्लामी व कलामी मुद्दे
छात्रों के सवाल-जवाब
आपकी टिप्पणी