۱ آذر ۱۴۰۳ |۱۹ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 21, 2024
मज़हब

हौज़ा/मज़हब वह मोहब्बत का सेंटर है जिसके लिए नबीयों ने इम्तिहान दिया,जिसकी मुहब्बत में आदम ने जन्नत छोड़ी वो मज़हब.जिसने इब्राहीम को आग और औलाद जैसे इम्तेहान में कामयाबी दिलाई वो मज़हब,जिसने यूसुफ़ को अँधेरे कुंवे और यूनुस को मछली के पेट से निकाला वो मज़हब.जिसने ईसा को सूली पर भी सुकून दिया वो मज़हब,

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,मज़हब यानी सुबह में दांत मांजने से लेकर रात को सोने तक का सलीक़ा सिखाने वाला एक मुकम्मल तरीक़ा,मज़हब यानी मायूसियों के अंधेरों की रूह फ़ना करता उजाला,मज़हब यानी इंसान को जानवर से अलग करने वाली “समझ” का इस्तेमाल करने पर इंसान को गुमनामियों के जंगल से निकाल कर कामयाबियों की चकाचौंध वाली बस्ती तलक पहुँचाने वाली डगर,

जिसकी मुहब्बत में आदम ने जन्नत छोड़ी वो मज़हब.जिसने इब्राहीम को आग और औलाद जैसे इम्तेहान में कामयाबी दिलाई वो मज़हब...जिसने यूसुफ़ को अँधेरे कुंवे और यूनुस को मछली के पेट से निकाला वो मज़हब.जिसने ईसा को सूली पर भी सुकून दिया वो मज़हब,

जी हाँ वही मज़हब कि जिसने नबी मुहम्मद (सव) को मुद्दस्सिर और मुज्ज़म्मिल के नाम से पहचनवाया...वही मज़हब कि जिसने उन्हें अली (अ.स.) जैसा हर हाल में साथ देने वाला साथी दिलाया और ये वही मज़हब हैंं

कि जिसने ना सिर्फ़ अरब में ज़िन्दा दफ़न होती हव्वा की बेटियों को बचाया ही बल्कि नबी मुहम्मद (स.व.) को ऐसी नेअमत भी बख्शी कि उसी अरब में रहने वाली उनकी बेटी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (सअ) की नस्ल दुनिया के कोने कोने तक पहुँच गयी.

और ये वही मज़हब है कि जो बदलती हुई दुनिया के बदलते हुए हालात के साथ ना सिर्फ़ हर तरह से रचता बसता गया बल्कि दुनिया को ख़ुद में रचाता बसाता भी चला गया.

लेकिन...लेकिन...लेकिन फिर यही मज़हब ही तो वो वजूद था कि जो हमेशा से ही निशाने पर रहा...बल्कि सच तो ये है कि ये मज़हब ही इकलौता ऐसा वजूद है कि जो किसी भी दौर में कितनी ही अच्छाइयों के बावजूद हमलों से बच ना सका.

खैर बात आदम के हव्वा को ढूंढते हुए सुनसान पड़ी दुनिया से होती हुई ख़त, टेलीग्राम , बीबीसी और आल इंडिया रेडियो के ज़माने से भी आगे निकलते हुए व्हाटसएप्प, ट्विटर और इन्स्टाग्राम के उस ज़माने तक भी पहुँच गयी कि जहाँ कोई भी बात सिर्फ़ माइक्रो सेकेंड्स में ही कहीं भी पहुँच कर कुछ ही मिनटों में शहर तो शहर मुल्क और दुनिया के हालात बदल सकती हैं।

और फिर जब संसाधनों की बढ़ोत्तरी हुई और इंसान को ज़रा तरक्क़ी क्या मिली तो इंसान ने हमेशा की तरह एक बार फिर निशाने पर मज़हब को ले लिया.और आज साल 2023 में हालात ये हैं कि अराइला और नुवेरा की रिपोर्ट के मुताबिक़ आज दुनिया में मज़हब से दूरी बनाये हुए लोगों की गिनती 450 से 500 मिलियन के आस पास पहुँच गयी है...और नास्तिकों का ये तबक़ा आज के ज़माने में सबसे तेज़ी से फैलता हुआ वर्ग...

तो फिर सवाल ये उठता है कि अगर मज़हब इतनी ही भली चीज़ है तो फिर आख़िर नास्तिकता क्यूँ और कैसे बढ़ रही है...?

और सच भी यही है कि दरअसल इसी सवाल में हर वो जवाब छिपा है कि जिसे हमें अपने इमोशंस से परे जाकर समझना होगा,

और वो जवाब ये है कि दुनिया और हालात तो बदलते गए लेकिन मज़हब पर हमले करने या हमले कराने वाले कम ना हुए...बल्कि बढ़ते ही गए...और आज हालात ये हैं कि इसी मज़हब को एक साथ कई लोगों से जंग करनी पड़ रही है!

अलबत्ता यहाँ ये भी दर्ज करना ज़रूरी है कि वैसे तो हर कोई खुद के मज़हब के टारगेट पर होने की रूदाद सुनाता है लेकिन मेरी नज़र में ऐसा नहीं है...बल्कि अगर भावनाओं को किनारे करते हुए साफ़ चश्में से देखा जाए तो दिखेगा कि जहाँ जूदाइज़्म और हिंदूइज़्म जैसे मज़हबों को ना सिर्फ़ भरपूर संरक्षण ही दिया जा रहा है बल्कि इसे तरक्क़ी दिलाने में आम आदमी के साथ ही सरकारी प्रणाली कोशिश कर रही है।

और मुझे इससे कोई दिक्कत भी नहीं है...बल्कि लोकतान्त्रिक युग में संसाधनों का ऐसा सदुपयोग तो सराहनीय है...और मेरा मक़सद इन्हें टारगेट करना तो दूर बल्कि इस पूरी तहरीर में इन पर बात करना भी नहीं है लेकिन...एक सच भी ये है कि इसी युग में कि जहाँ इतनी आज़ादी है वहीँ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला इस्लाम ना सिर्फ़ बेवजह टारगेट पे है बंदिशों में है, अलग अलग सरकारी तंत्रों के अमानवीय और बेढप तरीक़े से बुने गए ताने बाने की वजह से क़ैद सा है बल्कि इसका शिया फ़िरक़ा सही मायनों में दुनिया के सबसे ज़्यादा निशाने पर है और इस शिया कौम को मानने वाला इंसान अपनी ज़िंदगी को इज्ज़त से जीने के लिए कई फ्रंट पर झूझना होता है...

वैसे सही मायनों में मुझे इस्लाम के ख़िलाफ़ ऐसा रवैय्या अपना रहे सिस्टम के ख़िलाफ़ भी दर्ज करना चाहिए और मैंने दर्ज किया भी है लेकिन इस वक़्त वक़्त के हालात के मुताबिक़ मेरा लिखना शायद बेवजह ही होगा क्यूंकि आज इस्लामिक दुनिया उस दुनिया में जी रही है कि जहाँ उसकी आवाज़ सिर्फ़ और सिर्फ़ एक अनसुनी आवाज़ सी है जिसे ह्यूमन राईटस से जुड़े ममेलात से लेकर लोकतांत्रिक ढाँचे के ज़िम्मेदार होने का दावा करता पूरा का पूरा सिस्टम ना सिर्फ़ अनसुना करता है बल्कि उन आवाज़ों को दबाने की कोशिश भी करता है।

लेकिन मुझे उनसे ज़्यादा दिलचस्पी अपनों से है...

खैर मुद्दे पर वापस आते हुए दर्ज करूँ तो दरअसल शिया मज़हब का सामना आज सिर्फ़ पश्चिमी, चीनी , इस्राइली अमेरिकी, वहाबी सिस्टम से ही नहीं है बल्कि इसका सामना खुद इसके बीच जी रहे इसको फालो करने का दावा कर रहे लोगों से भी है...और यही वो लोग हैं जो आज दूसरों को हर तरह के मौक़े मुफ़्त में देते हैं...

ये लोग कभी सस्ती शोहरत के लिए सोशल मीडिया पर किसी शिया आलिमे दीन (रिलीजिअस स्कॉलर) को टारगेट करते हैं तो कभी कुछ नई सी कंट्रोवर्सी क्रिएट करते हैं।

दरअसल अब ऐसा भी नहीं है कि ऐसे लोग पहली बार हुए हों.बल्कि सच तो ये है कि ऐसे लोग तो हमेशा से ही रहे हैं बल्कि आज इनका सिर्फ़ चेहरा बदला है अंदाज़ और इरादा नहीं मगर तब और अब में एक फ़र्क ये भी है कि तब ऐसे लोगों के पास मौक़े कम होते थे और आज सोशल मीडिया ने इन्हें खुला मैदान दे दिया है।

लेकिन ज़रा सोचिये कि तब कि जब इनकी आवाज़ कम गूंजती थी तब इन्हीं जैसों की वजह से वो हालात हुए कि इसी शिया कौम को कर्बला की ज़ियारत के लिए भी बदन का एक हिस्सा देना पड़ा और ज़ियारतों के सफ़र भी दबी हुई साँसों के साथ रात के अँधेरे में करने मजबूर हुए तो फिर आज जब कि इनकी आवाज़ें हद से ज़्यादा गूँज रही हैं तो फिर ऐसे लोग ना जाने क्या से क्या हालात करा सकते हैं।

वैसे एक सच तो ये भी है कि इन जैसों की जमाअत ने कोई कसर छोड़ी भी कहाँ है।

बल्कि इन्होने तो वो हालात भी ला दिए हैं कि पूरी दुनिया के सामने ईरान पर अपने मज़हब पर होने की वजह से बैन लगा हुआ है...करोड़ों की आबादी वाले पाकिस्तान की सड़कों चौराहों पर शिया काफ़िर के नारे लिखे जाते हैं...45 करोड़ की आबादी वाली शिया कौम के सामने उसके मुजतहिदों की शान में गुस्ताख़ी होती है और कोई जवाबदेही तक तय नहीं की जाती...

माफ़ कीजियेगा लेकिन अगर ज़रा खुले हुए लफ़्ज़ों में दर्ज करूँ तो मुझे इसे कुछ इस तरह दर्ज करना होगा कि ऐसे लोग ना सिर्फ़ जेनोसाइड एनाब्लर और सपोर्टर हैं बल्कि ये लोग तो इतने भूके हैं कि उस जेनोसाइड के नतीजे में बहते हुए गए गर्म खून पर भी रोटियां सेंकने में ना हिचकिचाएँगें

लेकिन अफ़सोस तो इस बात का है कि जहाँ 30000 करोड़ की वक्फ़ की जागीर रखने वाली हिन्दुस्तानी 4 से 7 करोड़ की आबादी वाली शिया कौम के पास अपनी एक भी वर्ल्ड लेवल मेडिकल या आईटी यूनिवर्सिटी तक नहीं है , पर्सनल बैंकिंग इस्ट्रक्चर नहीं है...मेगा तो छोड़िये माइक्रो इंडस्ट्री तक भी नहीं है...जहाँ इसके हिस्से में कम से कम 6000 करोड़ की सालाना रक़म होनी चाहिए थी वहां इसके सबसे बड़े इदारों में से एक तंज़ीमुल मकातिब को 80 लाख के डेफिसिट में होना पड़ता है

जहाँ इसके पास जवाब देने के लिए इकोसिस्टम होना चाहिए था वही इसकी आवाज़ बिखरी हुई रहती है...

लेकिन फिर ये भी सच है कि इसी कौम के कुछ नाम नेहाद ज़िम्मेदार ही इसकी इस हालत के ज़िम्मेदार हैं...

दरअसल ये कुछ इस तरह से ज़िम्मेदार हैं कि जहाँ कभी वो ख़ुद ग़लत ताक़तवर से डरकर उसकी बोली बोलने लगते हैं तो कभी किसी मुखलिस को सिर्फ़ इसलिए इज्ज़त नहीं देते कि वो उनसे कुछ ज़्यादा ही हंसकर बात कर रहा होता है...कुछ ज़्यादा ही इन्केसारी से काम ले रहा होता है...उन लोगों और लड़कों को अहमियत नहीं देते कि जो पढ़ना या कुछ करना चाहते हैं लेकिन उनके इकोनोमिकल हालात उनके साथ नहीं होते...और नतीजे में उस क़ाबिल और दीनदार के बजाए मौक़ा मिलता है उन लोगों को कि जो दो चार विडियोज़ देख कर अशरा चलाते हैं और किसी एकोनोमिकल हालात से जूझते हुए से लिखवा कर कलाम पढ़ते हैं...या उनको कि जिन्होंने पढ़ाई पर्सनल पैशन के बजाए प्रोफेशनल इरादे से की होती है...और वो कैश कर रहे होते हैं...

और उधर दूसरी तरफ़ दुश्मन के लिए जाने अनजाने में सस्ते लिफ़ाफ़े के लिए काम कर रहा वाक़ेअन सस्ता बेवकूफ़ इंसान ऐसे शरीफ़ ओलमा को टारगेट करके दूकान चमका रहा होता है कि जो इस फ़रेबी ज़माने में इमानदारी की एक नई लकीर खींच रहे होते हैं...

वैसे मैं कितना भी दर्ज करूँगा कम ही होगा...लेकिन इस तहरीर का नतीजा ये है कि आज 2023 में हमें इन मुद्दों पर भी गौर करना चाहिए बल्कि सिर्फ़ सोचना या कहना ही नहीं चाहिए, ख़ुद से कोशिश भी करनी चाहिए अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी भी अदा करनी चाहिए...हमें कम से कम आसानी से मिल सकने वाली गूगल सोशल मीडिया रिपोर्ट्स ई बुक्स को पढ़ना चाहिए दुनिया की कामयाब क़ौमों के तरीक़े सीखने चाहिए और उनको इम्प्लीमेंट करना चाहिए...फिर चाहे वो कौमें हमारी दुश्मन ही क्यों ना हों...और अगर हम अपनी कौम अपने मज़हब की कामयाबी की कोशिश नहीं कर सकते तो फिर हमें इसके जनाज़े में शरीक होने की तय्यारी ही कर लेनी चाहिए...ताकि कम से कम हम उस जनाज़े को धूम धाम से निकाल सकें.

वैसे काश कि सस्ते लिफ़ाफ़ों के लिए खुद के साथ ही कौम की बदनामी और बर्बादी का सामान कर रहे इस नए ज़माने के ये अलग तरह के याजूज समझ सकते कि इनकी तो इनकी नस्लों की उम्र भी गुज़र जाएगी लेकिन दीवारे ज़ुल्क़रनैन के पीछे क़ैद उन्हीं याजूजों की तरह इनकी ख़्वाहिशें भी हर सुबह ज़िन्दा होंगी और हर शाम मर जाएंगी.

क्यूंकि इस कौम को खूने हुसैन अलैहिस्सलाम सी दवा और ताक़त हासिल है...जी हाँ वही ताक़त कि जो हज़ारों मुश्किलात के बावजूद हर एक बंदिश को तोड़ कर फर्शे अज़ा पर लब्बैक या हुसैन के नारे साथ इस कौम को एक अटूट धागे में पिरो देती हैं,
फ़िलहाल इस आपकी आँखों और अपनी क़लम को आराम देना ही बेहतर है...लेकिन जल्द ही मुलाक़ात होगी एक नए मुद्दे के साथ...आपकी दुआओं का मोहताज,


लेखक : सैय्यद इब्राहीम हुसैन

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