۱۳ تیر ۱۴۰۳ |۲۶ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 3, 2024
امام

हौज़ा/ इतिहासकार के अनुसार यह वह दौर था जिसमें मुसलमानों ने जंग और चढ़ाई करने के बजाए इल्म और सांस्कृति पर ध्यान दिया, लोग क़ुर्आन और पैग़म्बर स.अ. की तालीमात से प्रभावित हो कर सियासत से ज़्यादा इल्म और वैचारिक इंक़ेलाब की तरफ़ आकर्षित हो रहे थे

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. का इल्मी इंक़ेलाब के लिए की जाने वाली कोशिशों के पीछे सबसे अहम और सबसे रौशन राज़ यह है कि आपके दौर में इल्म और शिक्षा, वैचारिक और सांसकृति और अक़ीदती मामलात में ऐसी चर्चाएं और मतभेद शुरू हो चुके थे कि उससे पहले और यहां तक कि बाद में भी उस तरह से सामने नहीं आए,

एक इतिहासकार के अनुसार यह वह दौर था जिसमें मुसलमानों ने जंग और चढ़ाई करने के बजाए इल्म और सांस्कृति पर ध्यान दिया, लोग क़ुर्आन और पैग़म्बर स.अ. की तालीमात से प्रभावित हो कर सियासत से ज़्यादा इल्म और वैचारिक इंक़ेलाब की तरफ़ आकर्षित हो रहे थे, इस्लामी उलूम को जमा किया जा रहा था, बनी उमय्या और बनी अब्बास के आपसी झगड़े और जंगें एक सुनहरा मौक़ा था,

मुसलमानों के बीच इल्मी मामलात को समझने और उसमें विचार करने का जोश और जज़्बा पैदा हो चुका था, इन सारी चीज़ों को देखते हुए ज़ाहिर है उस दौर में इमाम सादिक़ अ.स. से बेहतर कोई भी इल्म और संस्कृति को फैलाने जैसे मामलात में रहबरी के क़ाबिल नहीं था। (मजमूअ-ए-आसारे शहीद मुतह्हरी र.ह., जिल्द 18, पेज 47)

लेकिन इमाम सादिक़ अ.स. का इस इंक़ेलाब में आगे आने के पीछे सबसे अहम और असली राज़ इमाम अ.स. का पहले इस्लामी हुकूमत और फिर इस्लामी संस्कृति का को क़ायम करना था, आयतुल्लाह ख़ामेनई के अनुसार इस बात को और साफ़ कर दिया जाए कि मज़हबी रहनुमाओं, जजों, मुफ़स्सिरों, हदीस के उलमा और किसी भी तरह के वह लोग जिनके हाथ में किसी भी तरह का कोई अधिकार था उन सब की ज़िंदगी इस्लामी तालीमात और इस्लामी तहज़ीब के बिना बर्बाद और तबाह हो कर रह गई था। (पेशवाए सादिक़, आयतुल्लाह ख़ामेनई, पेज 50)

इल्मी इंक़ेलाब या सियासी?

इल्म की ताक़त का फ़ायदा उठाने वाले कुछ हाकिमों की सियासत को देखते हुए इमाम अ.स. ने इस बात को पूरी तरह से ध्यान में रखा कि जंग और चढ़ाई करने (जबकि जंग के लिए हालात बिल्कुल भी मुनासिब नहीं थे) और चुपचाप एक ख़ामोश इंक़ेलाब की बुनियाद रखने में कौन बेहतर है, आयतुल्लाह ख़ामेनई ने उस दौर के हालात को देखते हुए इमाम अ.स. के सामने मौजूद दो अहम ज़िम्मेदारियों को इस तरह बयान किया है...

शिया मज़हब की आइडियोलॉजी की तफ़सीर बयान करना, ऐसा करने से जाहिलों दीन के दुश्मनों और तहरीफ़ करने वालों के रास्ते ख़ुद ब ख़ुद बंद हो जाएंगे।

हक़, आदालत और तौहीद के सिस्टम की मज़बूती जिससे मिशन को मज़बूती मिल सके।

अब ऐसे माहौल में इमाम सादिक़ अ.स. ने इस अहम अमानत को बोझ अपने कांधों पर उठा कर दो अहम ज़िम्मेदारी को संभाला, एक ही समय में दो अहम ज़िम्मेदारी उनके सामने थी और अब देखना यह था कि कौन सी ज़िम्मेदारी पहले पूरी होती है...।

यह बात भी अपनी जगह ठीक है कि सियासी कामों में परेशानियां ज़्यादा होती हैं लेकिन अक़ीदे की गुमराहियों और तहरीफ़ करने वालों का मुक़ाबला करना हक़ीक़त में छीनी हुई ख़िलाफ़त के और उस पूरे ज़ुल्म के सिस्टम के गले पर पैर रखने जैसा है, ऐसी ख़िलाफ़त जो गुमारही फैला कर ही बाक़ी रह सकती है। (पेशवाए सादिक़, आयतुल्लाह ख़ामेनई, पेज 51)

उलमा का ज़ालिम हाकिमों पर निर्भर होना

एक और अहम बात यह है कि इन ज़ालिम हुकूमतों को अपने दरबार में किसी आलिम की क्या ज़रूरत थी? और हक़ीक़त में इल्म का हूकूमत के सिस्टम में क्या दख़ल है? आयतुल्लाह ख़ामेनई ने बनी उमय्या और बनी अब्बास के दौर के उलमा के दरबारी होने के बारे में इस तरह बयान दिया है कि...

बनी उमय्या और बनी अब्बास के हाकिमों के पास या दीनी मालूमात बहुत कम थी या बिल्कुल भी नहीं थी इसीलिए वह शरई मामलात के हल के लिए मज़हबी और दीनी लोगों को बुला कर अपनी दीनी ज़रूरतों को पूरा करते थे, और उलमा, फ़ोक़हा, मुफ़स्सिरों और हदीस के आलिमों को अपनी हुकूमत से किसी न किसी तरह जोड़ कर उन्हें अपने साथ रख कर दीन और सियासत को एक साथ दिखाने की कोशिश करें।

यह लोग ज़ालिम और अत्याचारी हाकिमों की मर्ज़ी को ध्यान में रख कर दीन के अहकाम को हालात के हिसाब से बदल देते थे और अपनी निजी राय को क़ुर्आन की आयत और नबी स.अ. की हदीसों पर थोप कर अल्लाह के असली हुक्म को बदल कर उन ज़ालिम हाकिमों के इशारे पर फ़तवा देते थे। (पेशवाए सादिक़, आयतुल्लाह ख़ामेनई, पेज 78)

बातिल अक़ीदों और गुमराह फ़िर्क़ों से मुक़ाबला

अब तक आपके लिए उलमा का इल्मी रोल क्या था बयान किया गया कि वह कैसे बातिल और ज़ालिम हाकिमों के इशारों पर बोलते और फ़तवा देते थे, दूसरी तरफ़ से हम यह भी जानते हैं कि इमाम सादिक़ अ.स. के दौर में कितने ज़्यादा फ़िर्क़े और आलिम होने का झूठा दावा करने वाले बढ़ चुके थे,

समाज में बातिल उलूम और गुमराह फ़िर्क़ों का इस तरह से पैदा होना ख़ुद इस्लाम के लिए बहुत बड़ा चैलेंज था, इमाम अ.स. का इन बातिल उलूम से मुक़ाबला इसलिए था क्योंकि हुकूमत उनका समर्थन कर रही थी, वरना उनके ख़ुद के पास इतना बड़ा प्लेटफ़ार्म प्रचार के लिए नहीं था कि वह अपने बातिल अक़ीदों और गुमराह उलूम को लोगों तक पहुंचा सकें,

और ज़ाहिर है हुकूमत के समर्थन करने की वजह भी साफ़ थी क्योंकि यह हुकूमतें अहलेबैत अ.स. के फज़ाएल को मिटाने और उनकी शख़्सियत को धुंधला करने के लिए ग़लत अक़ीदे और बातिल उलूम का समर्थन करते थे, हद तो यह है कि अलहेबैत अ.स. की दुश्मनी में ज़नादेक़ा (नास्तिक) के कुफ़्र और इलहाद का भी समर्थन करते थे, इनमें से कुछ फ़िर्क़े और उलूम यह थे.... मुर्जेआ जिनका अक़ीदा था कि केवल ईमान काफ़ी है अमल की ज़रूरत ही नहीं या इसी तरह ज़नादेक़ा जिनका ज़िक्र अभी ऊपर हुआ या इसी तरह ग़ालियों (इमामों को ख़ुदा मानने वाले) का फ़िर्क़ा।

इल्म को ज़ालिम हुकूमत से छीनना

इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. ने हालात को गंभीरता से समझते हुए पूरी समझदारी और बसीरत के साथ इस इल्मी इंक़ेलाब की राह में कोशिश शुरू की और अपनी हुकूमत को क़ायम करने के लिए ज़रूरी था बातिल और ज़ालिम हुकूमत के क़ुफ़्र को ख़त्म किया जाए और दूसरे यह कि इल्म की ताक़त उन ज़ालिम हुकूमत की चूलों में से एक मज़बूत चूल थी, इमाम सादिक़ अ.स. ने इसीलिए इल्मी इंक़ेलाब को मक़सद बना कर न केवल ज़ालिम हुकूमत की आलोचना और उसकी नीतियों और इरादों पर कटाक्ष किया बल्कि हुकूमत की बुनियाद में इलाही इल्म को रखने के कोशिश की।

इमाम सादिक़ अ.स. ने इल्मी क्षेत्रों में विकास के साथ साथ फ़िक़्ही अहकाम, इस्लामी मआरिफ़, और क़ुर्आन की तफ़सीर के बयान करने के तरीक़े को दरबारी तरीक़े का मुक़ाबला करते हुए उसे बदल कर सही तरीक़े से बयान करने पर ज़ोर दिया, आपने उस मज़हबी और फ़िक़्ही संगठन जो हुकूमत के इशारे पर दीन और शरीयत बदल कर हाकिम को ख़ुश करने की कोशिश में लगे थे उन सबको हमेशा हमेशा के लिए बेनक़ाब करते हुए ज़लील कर दिया। (पेशवाए सादिक़, आयतुल्लाह ख़ामेनई, पेज 79- 80)

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