۱۵ تیر ۱۴۰۳ |۲۸ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 5, 2024
अल्लामा तफ़ज़्जुल हुसैन कश्मीरी

हौज़ा / पेशकश: दानिश नामा ए इस्लाम, इन्टरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर दिल्ली काविश: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, अल्लामा तफ़ज़्जुल हुसैन सन१७२७ई॰ में सरज़मीने सियालकोट पर कश्मीरी खानदान में पैदा हुदा, अल्लामा के वालिद सादुल्लाह खाँ थे और उनके दादा “करामुल्लाह” अपने वक़्त के बहुत बड़े आलिम थे जिन्होंने लाहोर के गवर्नर “मुईनुल मुल्क”(मीर मन्नू) के दरबार में वज़ीर की हैसियत से खिदमात अंजाम दीं।

अल्लामा  तफ़ज़्ज़ुल १३ साल की उम्र में अपने खानदान के साथ देहली मुंतक़िल हो गये वहाँ रहकर सुन्नी आलिमे दीन “मुल्ला निज़ामुद्दीन”के शागिर्द “ मुल्ला वजीह” से मनतिक़ वा फलसफ़ा की तालीम और मिर्ज़ा मोहम्मद अली से रियाज़ी की तालीम हासिल की, जब १८ साल की हुए तो अपने कुनबे के साथ लखनऊ चले गये और फ़िरंगी मदरसे में दाख़िल होकर अपनी इल्मी तशनगी बुझाने में मसरूफ़ हो गये, फ़िरंगी महल के मदरसे में रहकर मशहूर वा मारूफ़ सूफ़ी “मुल्ला सदरा” के फ़लसफे की तालीम हासिल की, जल्द ही अल्लामा के ज़हन में सुन्नी मसलक ओर रिवायती फ़लसफे की तालीमात के बारे में शुकूक वा शुबहात पैदा हो गये और उन्होने तहक़ीक़ शुरू कर दी, फ़िर उन्होंने शिया मसलक इख्तियार किया और फ़लकयात से मुताअल्लिक़ “बतलीमूस” की किताबों में महारत हासिल की।

तफ़ज़्जुल हुसैन का ताअल्लुक़ एक नामूर घराने से था जो मुगल दरबार से क़रीब था, उन्होंने शाही दारुल हुकूमत देहली में मनतिक़, रियाज़ी और फ़लसफ़ा की तालीम हासिल की और सन १७४५ई॰ में अपने वालिद के हमराह लखनऊ मुंतक़िल हो गये, उनके वालिद ने शुजा उद्दोला के दरबार में जल्द ही बुलंद मक़ाम हासिल कर लिया, अल्लामा तफ़ज़्जुल के घराने का ताअल्लुक़ शोरफ़ा के तबक़े से था और उनकी हिंदी फ़ारसी रिवायत में अक्ली उलूम और ज़बान वा अदब में महारत सियासी ताक़त हासिल करने की एक लाज़मी शर्त थी, जो उन्होने देहली और लखनऊ में तालीम के दौरान हासिल की, उनहोने अरस्तु की मनतिक़ और अक़लीदस वा बतलीमूस की रियाज़ी में महारत के साथ साथ फ़िक़ह और मुदीरियत का इल्म हासिल किया ।

नवाब आसिफ़ुद्दोला के ज़माने में अल्लामा कश्मीरी कलकत्ता में जिस वक़्त सिफ़ारत के ओहदों पर मामूर थे तो वहाँ आपने यूनानी, रूमी और अंग्रेज़ी ज़बानें सीखीं जिनके ज़रिये मगरिब में बरपा होने वाले साइंसी इन्क़लाब से आशना हुए, उन्होने हिंदुस्तानी मुस्लिम इदारों की इल्मी पसमान्दगी को ख़त्म करने के लिये मग़रिबी साइंसदानों की किताबों का अरबी में तरजमा करना शुरू किया।

अठारहवी सदी ईस्वी के दौरान यूरोप में साइंस ने तालीमी दर्सगाहों के अलावा काफ़ी घरों, होटलों, दुकानों, मेलो और दीगर अवामी मक़ामात पर मुखतलिफ़ इलमी मोज़ूआत पर होने वाले अवामी मुबाहेसे की वजह से तरक़्क़ी की, अठारवी सदी ई॰ के इखतेताम तक कलकत्ता इसी क़िस्म की सक़ाफ़ती तबदीली का अहम मरकज़ बन गया था।

ऐसे महोल में अल्लामा तफ़ज़्ज़ुल हुसैन कश्मीरी ने इन उलूम को अरबी ज़बान में मुंतक़िल करने की कोशिश की, साइमन शैफ़र के मुताबिक़  “अल्लामा तफज़्ज़ुल” सुबह के वक़्त इस्लामी रिवायत, फ़लसफे की तशरीहात और रियाज़ी का दर्स देते नीज़ सेपहर और शाम को इस्लामी फ़िक़ह के मुखतलिफ़ मसालिक का दर्स देते थे।

अल्लामा ने बहुत शागिर्दों की तरबियत की जिनमें से एक नमूना ये है कि नवाब शुजाउद्दोला ने उन्हें अपने बेटे “सआदत अली ख़ान” का उस्ताद मुक़र्रर किया गया वहाँ कुछ ओर तुल्लाब भी उनके शागिर्द बने जिनमें से: अयतुल्लाह सय्यद दिलदार अली नक़वी गुफ़रानमआब और फ़रीदुद्दीन अहमद ख़ान के असमा क़ाबिले ज़िक्र हैं।

आपने तमामतर मसरूफ़यात के बावजूद तहक़ीक़ वा तसनीफ़ का दामन नहीं छोडा जिसके सबब बहुत से आसार छोडे: अपुलूंस की टकव्वुनी क़तआत की शरह, अलजबरा पर दो मक़ाले, देवफांत की तकव्वुनी की क़तआत की शरह सरआनज़क न्यूटन की फ़लसफ़े तबीयत के रियाज़ाती उसूल का तरजमा, तबीयत पर एक किताब और मग़रिबी फ़लकयात से मुताअल्लिक़ किताब को नमूने के तोर पर पेश किया जा सकता है, अल्लामा ने दूलीच में “रायल मिलटरी अकेडमी” में रियाज़ी के प्रोफ़ेसर थामस्सेम्प्सन के रिसाला ए अल जबरा और फ़्रानसेसी रियाज़ी के तजज़ियाकार “गुलूम डी ऐल हापिटल” के रिसाला ए तकव्वुनी क़तआत को भी हल किया।

ख़ान अल्लामा की दरयादिली का ये आलम था कि आपके रोफ़क़ा में एक साहब ऐसे थे कि जिनकी बावर्चीखाने के दारोग़ा से नहीं बनती थी और वो दारोगा को नुक़सान पोंहचाने की फ़िक्र में रहते थे, दारोगा की आदत थी कि वो दस ग्यारह लोगों के साथ खाना खाते थे, एक दिन अल्लामा के रफीक़ मोक़ा पाकर आपसे अर्ज़ किया” बावर्चीखाने के दारोग़ा की फय्याज़ी हुकूमत को नुक़सान पोंहचाएगी जो खाने आपके दस्तरख़ान पर होते हैं वही खाने दारोग़ा के दसतरख़ान पर होते हैं और वो अपने अहबाब के साथ खाना खाते हैं, अल्लामा ने जवाब दिया मैं बगैर देखे यक़ीन नहीं कर सकता चुनांचे अल्लामा खाने से फारिग हुए तो उनके रफ़ीक़ उठे और बावर्चीखाने  की तरफ़ चले तो क्या देखा कि दस्तरखान हसबे मामूल वैसा ही चुना हुआ है और अहबाब दारोग़ा के मुंतज़िर हैं कि वो आयें तो खाना शुरू हो,ये हालत देखकर रफ़ीक़ वापस आये और अल्लामा से कहा चलकर मुलाहेज़ा कर लीजये, ख़ान अल्लामा बावर्चीखाने में गये देखा कि लोग जमा हैं और दस्तरख़ान चुना हुआ है दारोग़ा भी साथ में बैठे हुए थे दारोग़ा बहुत परेशान हुए और उनके साथी भी घबराए कि देखये दारोग़ा के सर क्या आफ़त आती है, अल्लामा तफज़्जुल ने उन लोगों से सवाल किया कि आप खाना तो यहाँ खाते हैं पानी कहाँ पीते हैं? उनमें से एक शख्स ने जवाब दिया आपकी सलामती में खाना तो पेट भरकर मिल जाता है मगर पानी ठेलों का पीते हैं, अल्लामा ने फ़रमाया कि आबदारखाने  में हुक्म दे दो कि आज से जितने आदमी दारोग़ा साहब के साथ खाना खाएं इतनी बर्फ़ की जमी हुई सुराहियाँ आबदारखाने से दे दी जाएँ, ये कहकर सजदे में सर रखा और कहा बारे इलाहा किस किस नेमत का शुक्र अदा करूँ, तूने आल औलाद इनायत की माल वा इज़्ज़त से सरफराज़ किया और आदमी भी ऐसे नेक नियत दिये हैं जो तेरे बंदों के साथ नेक सुलूक करते हैं।

अल्लाह ने आपको एक बेटी और एक बेटा अता किया जिसको ज़माना “नवाब टजम्मुल हुसैन ख़ान” के नाम से जनता है और उनकी नस्ल महल्ला कटरा अबूतुराब लखनऊ में आबाद है।

आखिरकार  इस इल्म के चमकते हुए आफ़ताब को सन:१७९९ई॰ में ज़हनी दबाऊ से फ़ालिज की सूरत गहन लग गया, जिसके सबब जिस्म के ज़्यदातर हिस्सों ने काम करना छोड़ दिया और ३ मार्च १८०१ई॰ में  कलकत्ता से लखनऊ जाते हुए अपने मलिके हक़ीक़े से जा मिले, नमाज़े जनाज़ा के बाद मजमे की हज़ारों आहो बुका के हमराह सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया।

माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-९ पेज-१४७ दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, २०२३ ईस्वी।         

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