हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, मौलाना सय्यद नजीबुल हसन जैदी ने लखनऊ में क़ाएद-ए-मिल्लत मौलाना सय्यद क़ल्बे जवाद नक़वी पर हुए इस बुज़दिलाना हमले की सख़्त अल्फ़ाज़ में मज़म्मत करते हुए अपने बयान में कहा कि यह हमला सिर्फ़ एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरी जाफ़रिया मिल्लत के जागरूकता, ईमान और एकता पर हमला है।
बिस्मिहे सुभहानहु
यह हमला सिर्फ़ क़ाएद-ए-मिल्लत जनाब मौलाना क़ल्बे जवाद साहब पर नहीं, बल्कि क़ौम के शऊर पर हमला है।
हम गहरे रंज और अफ़सोस के साथ हिन्दुस्तान के इल्मी और दीऩी मरकज़ लखनऊ में मशहूर आलिम-ए-दीन, मजलिस-ए-उलमा-ए-हिन्द के जनरल सेक्रेटरी और क़ाएद-ए-मिल्लत मौलाना सय्यद क़ल्बे जवाद नक़वी साहब पर होने वाले बुज़दिलाना हमले की कड़े शब्दो में निंदा करते हैं।
यह हमला सिर्फ़ एक शख्स पर नहीं, बल्कि इल्म व ईमान, मेहराब व मिम्बर और पूरी मिल्लत के शऊर पर हमला है।
यह घटना दरअसल उन पराजित ज़हनीयतों का प्रतिबिम्ब है जो मिल्लत के दरमियान इख़्तिलाफ़, बदगुमानी और फूट फैलाना चाहती हैं।
मगर हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह बुज़दिलाना हमला क़ौम और तहरीक-ए-वक्फ़ की बेदारी की रौशनाई बनेगा, न कि डर व खौफ़ का साया। जिस तरह जनाब क़ल्बे जवाद साहब हमेशा हक़ के मोर्चे पर डटे रहे, उसी तरह वह वक्फ़ ख़ोरों के खिलाफ़ अपनी तहरीक को और ज़्यादा क़ूवत के साथ जारी रखेंगे।
आज ज़रूरत इस बात की है कि हम सब — चाहे किसी भी इदारे या तन्ज़ीम से संबंध रखते हों — एक सफ़, एक ज़ुबान और एक दिल बनकर खड़े हों, क्योंकि दुश्मन ने हमारी आपसी कमज़ोरियों और इख़्तिलाफ़ात से फ़ायदा उठाकर ही इतनी जुर्रत की है।
यह कोई मामूली घटना नहीं है; इसे हरगिज़ अनदेखा नहीं किया जा सकता।
उलमा-ए-किराम, हौज़ा-ए-इल्मिया और मिल्लत के दानिशवरों से यह आजिज़ाना गुज़ारिश है कि इख़्तिलाफ़ात को किनारे रखकर एक मुश्तरका प्लेटफॉर्म पर आएं, वरना किसी शहर में कोई आलिम महफ़ूज़ नहीं रहेगा।
तारीख़ ने बारहा देखा है कि जब उलमा और अफ़ाज़िल-ए-मिल्लत मुत्तहिद हुए, तो बातिल के महल लरज़ उठे।
आज फिर वही लम्हा दरपेश है — यह वक्त ख़ामोशी या पुराने मसअलों को कुरेदने का नहीं, बल्कि बातिल के मुकाबले में इत्तेहाद और आगाही का परचम बुलंद करने का है।
यह वक्त नाराज़गियों के ख़ात्मे और फ़ासले मिटाने का है, ताकि उम्मत दुश्मनों के हाथों का खिलौना न बन जाए।
यह बुज़दिलाना हमला न सिर्फ़ एक मुजाहिद, मेहनती और क़ाबिल-ए-अज़मत आलिम के वक़ार पर हमला है, बल्कि मिल्लत के इल्म, शऊर और मुआशरती इंसाफ़ पर भी ज़ोरदार वार है।
यह सवाल फितरी है कि इतनी बड़ी जसारत के बाद उलमा कहां हैं और इदारे क्यों ख़ामोश हैं?
तन्ज़ीमुल मक़ातिब के जनरल सेक्रेटरी जनाब सफ़ी हैदर साहब क़िबला ने जिस तरह दो-टूक अल्फ़ाज़ में इस हमले की मज़म्मत की, वैसी ही जुर्रत का इज़हार दूसरे बुज़ुर्ग उलमा से भी मुतवक़्क़ा था — मगर वह क्यों ख़ामोश हैं? क्या मसलेहत है?
क्या अब इल्म व मिम्बर के वारिस सिर्फ़ ख़ामोशी को शिआर बनाएंगे?
क्या हमारी ख़ामोशी यह पैग़ाम देगी कि जान व इज़्ज़त पर हमले क़ाबिले-क़बूल हैं?
हम मुतालिबा करते हैं कि तमाम इदारे, मदरसे, यूनिवर्सिटियां और मज़हबी तन्ज़ीमें फ़ौरन अपना वाज़ेह मौक़िफ़ पेश करें, ताकि दुश्मन यह न समझे कि तशय्यु की क़ियादत महज़ कुछ जज़्बाती जवानों तक महदूद है।
आज उन पर हमला हुआ है, कल किसी और पर हो सकता है।
यह कोई आम घटना नहीं, बल्कि एक संगीन इंतिबाह है — अगर आज हम ख़ामोश रहे तो कल ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठने वाला हाथ भी बेबस हो जाएगा।
चाहे इख़्तिलाफ़ात तरीक़े-ए-अमल के बारे में हों या सियासी मौक़िफ़ पर, मगर यह वक्त उन बातों का नहीं है।
जो उलमा और मदरसे अपने आप को चारदिवारी में महफ़ूज़ समझ रहे हैं, वह अपनी बारी का इंतज़ार करें।
क़ौम को भी चाहिए कि वह अपने उलमा के पीछे मुत्तहिद हो जाए।
याद रखिए: आज की ख़ामोशी कल की शिकस्त है, और आज की बेदारी कल की फ़तह।
क़ौम से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अपने उलमा की हुरमत, ख़िदमत और हिफ़ाज़त को ईमानी फ़रीज़ा समझा जाए, क्योंकि जो क़ौम अपने रहनुमाओं की क़द्र खो देती है, वह अपनी सिम्त भी खो देती है।
हम हुकूमत से मुतालिबा करते हैं कि वह इस घटना की ग़ैर जानिबदाराना तहक़ीक़ात करे, मुजरिमों को कानून के अनुसार सज़ा दे, और भविष्य ऐसी घटनाओ की रोकथाम के लिए असरदार इक़दम करे।
आख़िर में हम तमाम उलमा, तुल्लाब और मिल्लत-ए-जाफ़रिया के तबक़ात से अपील करते हैं कि —
यह वक्त इख़्तिलाफ़ का नहीं, इत्तेहाद का है; मुक़ातअे का नहीं, राब्ते का है; तनक़ीद का नहीं, तअमीर का है।
तनक़ीद की ज़रूरत अपनी जगह मुसल्लम है, लेकिन इस वक़्त क़यादत और रहबरी से संबंधित अपनी राय और तजावीज़ को लिखित सूरत में महफूज़ रखें, मगर इस लम्हे सबको एक मौक़िफ़ और एक सफ़ में खड़ा होना होगा।
अगर हम आज एक न हुए, तो कल शायद कोई हमारे साथ न हो।
हमारी दुआ है कि खुदावंदे मुतआल मौलाना क़ल्बे जवाद साहब को दुश्मनों के शर से महफ़ूज़ रखे, और क़ौम व मिल्लत को वह बसीरत अता करे जो दुश्मन की हर साज़िश को नाकाम बना दे।
याद रखिए: वहदत ही में निजात है, बेदारी ही बक़ा का ज़रिया है। वहदत व बेदारी के लिए इतना काफ़ी है कि हम उस “दर्द” को फिर से जगाएं जो हमेशा चारागर रहा है।
अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में
कहीं हो जलता मकान, अपना घर लगे है मुझे।
उम्मीद है कि इस नाज़ुक मरहले पर तमाम उलमा, बुज़ुर्गान-ए-दीन और दानिशवरान-ए-मिल्लत तमाम इख़्तिलाफ़ात को भुलाकर एक साथ ज़रूर आएंगे — इंशा अल्लाह।
सय्यद नजीबुल हसन ज़ैदी
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