रविवार 2 नवंबर 2025 - 16:39
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) नबूवत और इमामत के बीच एक हल्क़ा ए वस्ल और आइम्मा पर खुदा की हुज्जत है

हौज़ा / हुज्‍जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन तबातबाई ने कहा कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) वह इलाही हल्का-ए-इत्तिसाल हैं जो नबूवत और इमामत के बीच संबंध बनाती हैं, और जिन्हें खुद अल्लाह ने इमामों (अ) पर भी अपनी “हुज्जत” यानी प्रमाण और तर्क के रूप में पेश किया है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, हुज्‍जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन तबातबाई ने कहा कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) वह इलाही हल्का-ए-इत्तिसाल हैं जो नबूवत और इमामत के बीच संबंध बनाती हैं, और जिन्हें खुद अल्लाह ने इमामों (अ) पर भी अपनी “हुज्जत” यानी प्रमाण और तर्क के रूप में पेश किया है।

उन्होंने हज़रत सय्यद अला-उद्दीन हुसैन (अ) के पवित्र हरम में भाषण देते हुए कहा कि इतिहास में हज़रत ज़हरा (स) की शहादत की तारीख़ के बारे में दो प्रसिद्ध रिवायतें हैं — पहली जमादिल अव्वल और दूसरी जमदि-उस सानी की। ये दोनों महीने ईमान वालों के लिए मारफ़ते फ़ातिमिय में गहराई पैदा करने का बेहतरीन अवसर हैं।

उन्होंने कहा कि जैसे इंसान शबे-क़द्र में आत्मिक ऊँचाई पाने की कोशिश करता है, वैसे ही अय्याम-ए-फ़ातिमिय्या में हमें हज़रत ज़हरा (स) की असली “लैलतुल क़द्र”  उनके आध्यात्मिक रहस्य को पहचानने का प्रयास करना चाहिए।

हुज्‍जतुल इस्लाम तबातबाई ने बल दिया कि मजलिस-ए-फ़ातमिय का उद्देश्य केवल ग़म मनाना नहीं, बल्कि ज्ञान और समझ में वृद्धि करना है, क्योंकि किसी भी शख्सियत का असली दर्जा उसकी जिम्मेदारियों से तय होता है। जिस तरह नबियों और इमामों का मक़ाम उनकी जिम्मेदारी से जाना जाता है, उसी तरह हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) का ऊँचा दर्जा भी उनकी विशेष इलाही जिम्मेदारियों से समझा जा सकता है।

उन्होंने साफ किया कि उनकी पहली जिम्मेदारी नबूवत और इमामत के बीच रिश्ता कायम करना थी। रसूल (स) की बेटी और अमीरुल मोमिनीन अली (अ) की पत्नी के रूप में उन्होंने उस इलाही सिलसिले की नींव रखी, जिसके ज़रिए हिदायत का यह नूर नबूवत से इमामत की ओर चला।

उन्होंने कहा कि ज़हरा (स) के अलक़ाब जैसे “उम्मुल अइम्मा”, “उम्मुन नुज्बा” और “उम्मुल अह़िब्बा” इस बात की निशानी हैं कि आप सभी इमामों और अहले बैत के चाहने वालों की आध्यात्मिक मां हैं।

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ज़हरा (स) की दूसरी बड़ी जिम्मेदारी “इमामों पर भी अल्लाह की हुज्जत” होना थी। यानी जैसे इमाम (अ) खुद अल्लाह की हुज्जत हैं, वैसे ही हज़रत ज़हरा (स) खुद इमामों पर भी अल्लाह की दलील और प्रमाण हैं। यह दर्जा इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की रिवायत से भी स्पष्ट होता है।

उन्होंने हदीस-ए-क़ुदसी “لولا فاطمة لما خلقتکما लौला फ़ातेमा लेमा ख़लकतोकुमा” (अगर फ़ातिमा न होतीं, तो मैंने तुम दोनों को पैदा न किया होता) का हवाला देते हुए कहा कि हज़रत ज़हरा (स) का अस्तित्व ही नबी (स) और अली (अ) की सृष्टि का कारण है — यही बात उनके अद्वितीय और बेमिसाल मक़ाम को दर्शाती है।

अंत में उन्होंने कहा कि मुक्ति या निजात केवल ज्ञान से नहीं, बल्कि सच्ची समझ और गहरी पहचान से मिलती है। बुद्धि, समझ का साधन है  और अगर हम उसे अहले बैत (अ), ख़ास तौर पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) की मअरफ़त में इस्तेमाल करें, तो इंसान असली कामयाबी हासिल कर सकता है।

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