۱۳ تیر ۱۴۰۳ |۲۶ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 3, 2024
मौलाना सफी हैदर जैदी

हौज़ा / हर इन्क़िलाब चाहे जितना अवामी हो मुद्दत गुज़रने के साथ उसका दाएरा तंग होता है और असर कम, यहां तक के सफ़हए हस्ती से मिट जाता है। लेकिन ईमानी और दीनी बुनियादों पर इन्क़िलाब वक़्त गुज़रने के साथ जवान होता है और इसका दाएरा वसीअ होता जाता है। इन्क़िलाबे आशूरा जिसकी नुमायां तरीन मिसाल है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया का हर इन्क़िलाब चाहे जितना अवामी हो मुद्दत गुज़रने के साथ उसका दाएरा तंग होता है और असर कम, यहां तक के सफ़हए हस्ती से मिट जाता है। लेकिन ईमानी और दीनी बुनियादों पर इन्क़िलाब वक़्त गुज़रने के साथ जवान होता है और इसका दाएरा वसीअ होता जाता है। इन्क़िलाबे आशूरा जिसकी नुमायां तरीन मिसाल है।

इसी इन्क़िलाब से रूह लेकर ईरान में इस्लामी इन्क़िलाब बर्पा हुआ। शदीद मुख़ालिफ़तों और दुश्मनियों के बावजूद इसकी वुसअत, गहराई और गैराई बढ़ रही है। पैग़ामे इन्क़िलाब अपने फ़िक्री और अमली असरात के साथ साथ जुगराफ़ियाई लेहाज़ से फ़ैल रहा है और रोज़ाना आलमे बशरीअत के नए इलाक़ों तक पहुंच रहा है क्योंकि यह इंसानीयत की बक़ा की कोशिश है, हुकूमत बनाने और इक़्तेदार क़ायम करने की हवस नहीं।

इंसानीयत दुश्मन मुसलसल मुख़्तलिफ़ तरीक़ों और वसीलों से इन्क़िलाब और बानिये इन्क़िलाब की अज़ीम शख़्सीयत को मख़दोश करने की नाकाम कोशिश करते नज़र आते हैं। लेकिन हर आज़ाद फ़िक्र इंसान जिसने आपकी ज़िन्दगी का सर सरी मुतालेआ भी किया वह आप के किरदार का कलमा पढ़ता नज़र आता है। यह बानिये इन्क़िलाब की रूहानीयत के अलावा और किस बात का नतीजा है कि कल का मुख़ालिफ़ आज का मवाफ़िक़ नहीं बल्कि मुरीद बनता दिखाई दे रहा है।

यही बात हर बा शऊर इंसान को सोचने पर मजबूर करती है कि आखि़र इस मर्दे इलाही में कौन सी ख़ुसूसीयत थी कि तीन दहाईयों से ज़्यादा अरसा गुज़रने के बाद भी सिर्फ़ यह कि वह शख़्सीयत मक़बूल ख़ास व आम है बल्कि नाम ख़ुमैनी सुनते ही लोगों में एक उमंग और दिलों में एहतेराम पैदा हो जाता है और हर एक अपने क़ाएद, रहबर और पेशवा की हैसीयत से इनका एहतेराम करता है।

इसकी वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ वही है जो अमीरूल मोमनीन अलैहिस्सलाम ने बयान फ़रमाई है। ‘‘जो लोगों का पेशवा बनना चाहता है उसे दूसरों को तालीम देने से पहले ख़ुद को तालीम देना चाहिये और ज़बान से दर्से इख़्लाक़ देने से पहले अपनी सीरत व किरदार से तालीम देना चाहिये’’ (नहजुल बलाग़ा, कलमाते क़िसार 73) ज़ाहिर है जो तरबीयत ज़बानी होती है समाअत से तजावुज़ नहीं करती लेकिन जो तरबीयत अमली होती है वह नस्लों को बातिल बनाती है। इमाम ख़ुमैनी ने सिर्फ़ ज़बानी नहीं बल्कि अमली तरबीयत की। इस्लामी इन्क़िलाब से पहले जब आप चाहे क़ुम में रहे या जिला वतनी की ज़िन्दगी बसर कर रहे थे आप के घर वाले ईरान में ताग़ूती हुकूमत के ज़ेरे नज़र शदाएद व मुश्किलात से दो चार रहे। इसी राह में आप के जवान साल फ़रज़न्दे आयतुल्लाह सय्येद मुस्तफ़ा ख़ुमैनी की शहादत हुई और उन तमाम मुश्किलात में आप से न सब्र का दामन छूटा और न ही पाये सबात में लग़ज़िश आई।

जब कि दुश्मन यह समझ रहा था कि उन मुश्किलात के सामने आप शिकस्त क़ुबूल कर के अपना रास्ता बदल देंगे लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि था यह रास्ता आप ने करबला से सीखा था कि जहां चिराग़ बुझने के बाद दोबारा जब जला तो इसकी रौशनी और बढ़ गई और हर दिन रौशनी में इज़ाफ़ा ही हो रहा है।

इमाम ख़ुमैनी का यही ख़ुलूस, लिल्लाहियत और आप का ‘‘फ़ना फ़िल्लाह’’ होना था जिसने आप की शख़्सीयत को आफ़ाक़ी बना दिया। आपको अहसास ज़ात नहीं था बल्कि आप की सारी सई व कोशिश का महवर अल्लाह की इबादत और इसके बन्दों की खि़दमत थी और इस राह में आप ने न इंसानीयत दुश्मनों की दुश्मनी की परवाह की और न ही अपने ओहदे व मनसब की।

दुनिया के उमरा और हुकाम का मिज़ाज यह है कि वह अपनी तारीफ़ पर ख़ुश होते हैं, तारीफ़ करने वाले की तारीफ़ और चापलूस को मुख़्लिस समझते हैं लेकिन इमाम ख़ुमैनी क़ुद्दसा सिर्रहू की ज़ात इससे मुख़्तलिफ़ थी क्योंकि आप अलवी हुकूमती रविश पर अमल पैरा थे लेहाज़ा बारहा फ़रमाया: ‘‘मुझे रहबर के बजाये ख़ादिम कहा जाये तो वह मेरे लिए ज़्यादा मुनासिब है।’’

वफ़ात से तक़रीबन दो बरस क़ब्ल 29 सितम्बर 1987 को आइम्मा जुमा के जलसे में जिसमें आप ख़ुद मौजूद थे फ़क़िए अहलेबैत अ0 स0 आयतुल्लाह मिशकीनी रहमतुल्लाह अलैहे ने अपने खि़ताब में आप का ‘‘आलमे तशय्यो के अज़ीम मरजए तक़लीद, आलमे इस्लाम के अज़ीम रहबर और दुनिया के कमज़ोरों के हामी और पनाहगाह’’ के उन्वान से तज़किरह किया तो कोई और होता तो ख़ुश हो जाता लेकिन आप ने उन से गिला करते हुए फ़रमाया के ऐसी बातों से परहेज़ करें जो मुझे आगे बढ़ने के बजाये (राह मअनवीयत में) पीछे ले जायें बल्कि दुआ करें कि हम इंसान बन जायें। ‘‘यानि ग़ुरूर व तकब्बुर जैसी रूहानी और इख़्लाक़ी बीमारियां हमारी रूह और अख़्लाक़ को अपने लपेटे में न ले सकें।

अगरचे आप की रेहलत को 33 बरस होने वाले हैं लेकिन आप की याद और ज़िक्र आज भी वैसा ही है जैसा कि आप की ज़िन्दगी में था। मुद्दत गुज़रने के बावजूद आप के फ़ुक़दान का अहसास कम नहीं हुआ बल्कि और बढ़ता ही जा रहा है, ख़ुसूसन जब इस्लाम व इंसानीयत दुश्मनी की आंधियां तेज़ होती हैं तो यह अहसास शिद्दत इख़्तियार कर लेता है। लेकिन हम अपने करीम परवरदिगार का जितना भी शुक्र अदा करें कम है कि इसने क़ाएदे इन्क़िलाबे इस्लामी आयतुल्ला-हिल उज़मा सय्येद अली ख़ामनाई दाम ज़िल्लहुल वारिफ़ की शक्ल में वह अज़ीम बिल बसीरत मुदब्बिर, ज़ाहिद व मुत्तक़ी, शुजाअ, जहां दीदए रहबर अता किया है जो हर जहत से इस दौर का ख़ुमैनी लगता है।

ज़रूरत है कि नस्ले हाज़िर इस अबक़री शख़्सीयत को पहचाने और इनकी तालीमात और अफ़कार पर ग़ौर करे, फ़िक्र करे और उस पर अमल करे ताकि मुश्किलात में भी कामियाबी उसका मुक़द्दर बने। हक़ीक़ी इस्लाम और तशय्यो से ख़ुद भी वाक़िफ़ और दुनिया को भी वाक़िफ़ कराये। जिन अरबों ने इमाम ख़ुमैनी को अपना आईडीयल समझा वह आज मैदाने अमल में हैं। कम तादाद और बर्सों की पाबन्दियों के बावजूद दुश्मन

सामने डटे हैं। लेकिन जो इस नेअमत से महरूम हैं वह इस्तेमार के ग़ुलाम और इनके आलाकार हैं।

अए हमारे अज़ीम रहबर ! आज आप का वजूदे ज़ाहिरा हमारे दरमियान नहीं लेकिन आपके अफ़कार हमारे रहनुमा हैं। आप की तालीमात हमारे लिए मशअले राह हैं, आपकी सीरत हमारे लिए रौशनी है और आप की आवाज़ हमारे दिलों की तक़वीयत।
अए बानिये निज़ामे इस्लामी ! आप की बुलन्द रूह, अज़ीम शख़्सीयत हमें आज भी दर्से हुर्रियत दे रही है।

हम अपने तमाम तर वजूद के साथ आप को खि़राज अक़ीदत पेश करते हैं और दुआ करते हैं कि हमें आप की राह पर चलने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
सय्यद सफ़ी हैदर ज़ैदी
सिक्रेट्री तनज़ीमुल मकातिब

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