हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,जनवरी ऐसा महीना है जिसके शुरूआती दिन, दुनिया में पोस्ट अमेरिकन इरा के आग़ाज़ का सिंबल बन गए हैं। 3 जनवरी को जनरल सुलैमानी की शहादत से 6 जनवरी को अमरीकी कांग्रेस पर प्रदर्शनकारियों के के क़ब्ज़े तक, ये सब वाक़यात साफ़ पैग़ाम दे रहे हैं कि लिबरल डेमोक्रेसी और अमरीकी चौधराहट का दौर ख़त्म हो चुका है।
इस चौधराहट का पतन, ख़ास तौर पर वेस्ट एशिया में अब सबके लिए ज़ाहिर हो चुका है, बेशक प्रतिरोध के मोर्चे और उसमें सबसे ऊपर शहीद सुलैमानी के अनमोल संघर्ष का नतीजा है। अमरीकी चौधराहट को ख़त्म करने और इलाक़े में वेस्टर्न वर्ल्ड की साज़िशों की शिकस्त में शहीद सुलैमानी के रोल की गहराई को समझने के लिए ज़रूरी है कि पहले इस बात का ज़िक्र हो कि वेस्ट एशिया में अमरीका के क्या लक्ष्य थे?
11 सितंबर के हमले के बाद, अमरीका आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के बहाने वेस्ट एशिया में गंभीर रूप से दाख़िल हुआ। उस वक़्त अमरीका ओहदेदार और बर्जेन्सकी जैसे बहुत से इन्टलेक्चुअल्स ने “ग्रेटर मिडिल ईस्ट” या “न्यू मिडिल ईस्ट” जैसी अनेक साज़िशों का राज़ खोला। मिसाल के तौर पर सन 2006 में लेबनान की 33 दिन की जंग के दौरान, अमरीका की उस वक़्त की विदेश मंत्री कोन्डोलीज़ा राइस ने एक अहम स्पीच में कहा थाः “जो कुछ हम वहाँ देख रहे हैं, न्यू मिडिल ईस्ट का लेबर पेन है।
हमें इस बात का यक़ीन होना चाहिए कि हम इस मिडिल ईस्ट की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं न कि पिछले वाले मिडिल ईस्ट की ओर लौटने के लिए।” (1) यह वह स्पीच थी जिसने वेस्ट एशिया के बारे में अमरीकी सरकार की योजनाओं को अच्छी तरह बयान कर दिया था। हक़ीक़त में अमरीका की यह कोशिश थी कि इस योजना के ज़रिए पहले इलाक़े के मुल्कों को एक आज़ाद आर्थिक सिस्टम के तहत इस्राईल की अगुवाई में एक ब्लॉक में बदल दे और फिर लिब्रल डेमोक्रेसी का मॉडल पूरे इलाक़े में लागू करे। यह ऐसा विषय था कि सद्दाम हुसैन के पतन के बाद ख़ुद उस वक्त के अमरीकी राष्ट्रपति ने जिसका एतराफ़ किया था।
जॉर्ज डब्ल्यु बुश ने सन 2003 में कहा थाः “इराक़ में डेमोक्रेसी कामयाब होगी और इस कामयाबी का पैग़ाम दमिश्क़ से तेहरान तक जाएगा। यह आज़ादी हर क़ौम का भविष्य हो सकती है। मिडिल ईस्ट के सेंटर में एक आज़ाद इराक़ का सियासी व क़ानूनी ढांचा दुनिया के डेमोक्रेटिक इन्क़ेलाब में निर्णायक मोड़ होगा।” (2) इसी तरह उस वक़्त के अमरीकी वाइस प्रेज़िडेन्ट डिक चेनी ने दावोस बैठक में अपनी स्पीच में कहा थाः “अमरीकी सरकार इस बात की गैरंटी देती है कि पूरे मिडिल ईस्ट और उसके पार, डेमोक्रेसी को मज़बूत करेगी।” (3)
यह वह योजना थी जो अमरीकी सरकार बहुत सी दूसरी योजनाओं की तरह बहुत ज़्यादा पैसा ख़र्च करने के बावजूद लागू न कर सकी और किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा सकी। इसके बाद होने वाली जंगें, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान के आज के सियासी हालात इस दावे के अच्छे गवाह हैं। ऐसी जंगें जो अमरीका की इकॉनामी पर कई ट्रिलियन डॉलर का बोझ डालने के अलावा, (4) इलाक़े की क़ौमों के लिए बहुत ज़्यादा जानी नुक़सान का सबब भी बनीं। ब्राउन यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के मुताबिक़, सन 2001 के बाद, अमरीकी जंगों की वजह से 9 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए। इस आंकड़े का बड़ा दुखद पहलू यह है कि इन जंगों की वजह से अफ़ग़ानिस्तान में 70 हज़ार आम लोग (5) और इराक़ में क़रीब 3 लाख आम लोग मारे गए। (6)
इस बीच इलाक़े में पश्चिमी सरकारों की ओर से आतंकवादी और तकफ़ीरी गुटों का सपोर्ट भी इसी सिलसिले की एक कड़ी थी। (7) दाइश जैसे आतंकवादी गुट, जो डोनाल्ड ट्रम्प के खुले एतराफ़ के मुताबिक़, अमरीकी हुकूमत के हाथों बनाए गए थे, इलाक़े में अस्थिरता पैदा करके, वेस्ट एशिया के इलाक़े में तीस साल तक अनेक मसलकों के बीच जंग शुरू कराने की स्ट्रैटिजी का हिस्सा थे।
अलबत्ता पश्चिमी सरकारों ने अपने अंदाज़ों में जिस बात को बिल्कुल मद्देनज़र नहीं रखा था, वह शहीद क़ासिम सुलैमानी की हस्ती थी जिन्होंने उनकी चालों और साज़िशों पर पानी फेर दिया और इलाक़े में उनकी ख़तरनाक मौजूदगी को ख़त्म कर दिया।
लेबनान की जंग, साम्राज्यवादी मोर्चे से शहीद क़ासिम सुलैमानी का पहला संजीदा टकराव था। यहाँ 33 दिवसीय जंग में ज़ायोनी सरकार और उसके साथियों की हार और उसके नतीजे में “ग्रेटर मिडिल ईस्ट” योजना की नाकामी में उन्होंने बहुत अहम रोल निभाया। “33 दिन की जंग की अनकही बातें” नामी किताब के अनुवादक सफ़ाउद्दीन तबर्राइयान इस जंग में हिज़्बुल्लाह की फ़त्ह में शहीद क़ासिम सुलैमानी के रोल के बारे में कहते हैः “मैंने ख़ुद सैय्यद हसन नसरुल्लाह से सुना कि जंग में हमारी फ़त्ह में अलहाज क़ासिम सुलैमानी का रोल, एमाद मुग़निया से भी ज़्यादा था।” (8) फ़िलिस्तीन में रेज़िस्टेंस के मोर्चे को हथियारों से लैस करने और उसे मज़बूत बनाने में भी शहीद क़ासिम सुलैमानी का बुनियादी रोल था। फ़िलिस्तीन के इस्लामी जेहाद संगठन के जनरल सेक्रेट्री ज़्याद अन्नोख़ाला ने कुछ साल पहले इस बारे में कहा थाः “आज ग़ज़्ज़ा ने जो ताक़त और संसाधन हासिल कर लिए हैं, वह शहीद सुलैमानी की अज़ीम कोशिशों का नतीजा हैं। जनरल क़ासिम सुलैमानी की स्ट्रैटेजिक योजना, ग़ज़्ज़ा पट्टी को मीज़ाइल सहित हथियार भेजने से शुरू हुयी और यह चीज़ किसी चमत्कार की तरह थी। जनरल सुलैमानी ने ख़ुद इस सिलसिले में कोशिश की, कई मुल्कों का दौरा किया और इस फ़ौजी सलाहियत को हासिल करने का प्रोग्राम बनाया और सारे ज़रूरी क़दम उठाए। (9) यहाँ तक कि आज बहुत से लोगों के लिए इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल है कि ग़ज़्ज़ा की अंडरग्राउंड सुरंग, जिसका दायरा इस वक़्त 360 किलोमीटर तक फैल चुका है, शहीद सुलैमानी और शहीद एमाद मुग़निया का आइडिया है।(10)”
आतंकवादी गुट दाइश से निपटने मे रेज़िस्टेंस मोर्चे को लीड करने और साम्राज्यवादी मोर्चे की साज़िशों से निपटने में उनका सबसे अहम बुनियादी काम था। दाइश को मिटाने में शहीद सुलैमानी का रोल इतना अहम व निर्णायक था कि पिछले बरसों में न्यूज़वीक (11) बिज़नेस स्टैंडर्ड (12) द वीक (13) वैग़रह ने बारंबार ख़ुल कर इस बात को माना। जब जब कुछ अमरीकी अधिकारियों ने दाइश को मिटाने का क्रेडिट ख़ुद लेने की कोशिश की तब तब इंटरनैश्लन अफ़ेयर्ज़ के माहिरों और प्रोफ़ेसरों ने खुल कर इसका विरोध किया। मिसाल के तौर पर लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अदीब मोक़द्दम ने ट्रम्प की दाइश को ख़त्म करने का क्रेडिट लेने की कोशिश के जवाब में कहा थाः यह ईरान और रूस की एयरफ़ोर्स थी जिसने दाइश की कमर तोड़ने वाले वार किए जिसके मास्टरमाइंड क़ासिम सुलैमानी थे।(14)
आज वेस्ट एशिया में अमरीका और साम्राज्यवाद के पतन की बातें आम हैं और एक हक़ीक़त बन चुकी हैं। इस बदलाव, इलाक़े के मुल्कों के हालात और उनके अवाम की सोच में बदलाव का सेहरा बड़ी हद तक विश्व साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ रेज़िस्सटेंस मोर्चे के सिर जाता है और रेज़िस्टेंस मोर्चे की सबसे नुमायां हस्तियों में से एक शहीद जनरल क़ासिम सुलैमानी हैं और हमेशा रहेंगे।