हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,आज 27 रजब की वह शब है जब हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.ल.व.व. ने अपना आसमानी सफ़र किया था जिसे हम शब ए मेराज कहते हैं।
आइये इस वाक़िये को हम साइंस की मदद से समझने की कोशिश करते हैं! आज की साइंसी तहक़ीक़ का सबसे बड़ा मौज़ू Time Travel है कि क्या रौशनी की रफ़्तार को पाकर वक़्त में सफ़र किया जा सकता है? Time Travel पर बहुत सी किताबें भी लिखी गई हैं और फ़िल्में भी बनाई गई हैं! क्या इंसान कोई ऐसी टाईम मशीन बना सकता है जिसके ज़रिये वह माज़ी और मुस्तक़बिल में सफ़र कर सके और फिर हाल में वापस लौट आए? आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी हमें यह बताती है कि ऐसा मुम्किन है लेकिन इसके लिए जो सूरत-ए-हाल दरकार हैं वह फ़िलहाल इंसान की पहुँच से बाहर हैं! वक़्त और ख़ला में सफ़र के तसव्वुर यानी Time Travel में मेराज का हैरत अंगेज़ वाक़िया भी शामिल है!
सूरए इसरा की पहली आयत में इरशाद है: "वह क़ादिरे मुतलक़ हर ख़ामी से पाक है, एक रात अपने बन्दे को मस्जिद अल हराम (यानी ख़ानए काबा) से मस्जिदे अक़्सा (यानी बैतुल मुक़द्दस) जिसके चारों तरफ़ हमने बरकतें रखी हैं ले गया ताकि हम उसे अपनी (क़ुदरत की) अज़ीम निशानियाँ दिखाएं, बेशक वह सुनने वाला (और) देखने वाला है!"
चलिए अब हम वाक़ेए शबे मेराज पर रौशनी डालते हैं और जानते हैं कि आज की जदीद तरीन फ़िज़िक्स इस बारे में क्या कहती है? हुज़ूरे पाक (स) ने अपनी मुबारक ज़िंदगी का सबसे बड़ा सफ़र हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम के साथ तय किया जिसमें ज़मीनी और आसमानी दोनों मरहले शामिल हैं यानी आप (स) वक़्त के एक बहुत मुख़्तसर से अरसे में मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा और फिर मस्जिदे अक़्सा से सिदरतुल मुन्तहा यानी सातवें आसमान की आख़िरी हद पहुंचे जिसके पार किसी भी मख़लूक़ को जाने की इजाज़त नहीं है न ही कोई वहाँ तक पहुँच सकता है! यह वाक़िया उस क़ादिरे मुतलक़ की निशानियों में से एक निशानी था जिसमें उसने यह पूरी सैर वक़्त के उस मुख़्तसर से लम्हे में करवाई! यह वक़्त हमारे लिए क़लील था लेकिन आप हुज़ूर (स) ने शबे मेराज में काफ़ी वक़्त बिताया, अम्बिया-ए-इकराम से मिले लेकिन जब आप ज़मीन पर वापिस लौटे तो कोई भी तब्दीली नहीं आई थी यानी आप (स) जिस तरह और जिस हालत में कुछ भी छोड़कर गए थे वह बिल्कुल वैसा ही उसी तरह और उसी हालत में मौजूद था! मतलब यह कि ज़मीन पर वक़्त में कोई तब्दीली नहीं आई थी जबकि आप (स) के लिए वक़्त मुसलसल चलता रहा! जहाँ एक तरफ़ इंसानी अक़्ल इसको तस्लीम करने से कतराती है वहीं दूसरी तरफ 20 वीं सदी इसे तहलका ख़ेज़ साबित हुई है जिसने ज़मान व मकान (Space & Time) का एक ऐसा तसव्वुर और नक़्शा खींचकर सामने रखा जिसे हज़म करना बहुत ही ज़ियादा मुश्किल है! हम जानते हैं कि आइंस्टीन का ख़ास और आम नज़रिय-ए-इज़ाफ़ियत (Special and General Theory of Relativity) महज़ एजाज़ व शुमार तक ही महदूद नहीं है बल्कि अगर कोई इन theories की शराएत को अमली जामा पहना दे तो सफ़रे वक़्त हरगिज़ मुम्किन है! यह तो हम सब जानते हैं कि आप (स) को मस्जिदे अक़्सा की तरफ़ बुर्राक़ की मदद से ले जाया गया था! यहाँ पर बुर्राक़ का मतलब है बिजली, नूर या रौशनी से है! बुर्राक़ की ख़ास बात यह थी कि यह सवारी रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ रफ़्तार से हरकत कर सकती थी! मगर यहाँ एक बहुत ही बड़ा मसला दरपेश आता है वह यह कि नज़रिया-ए-इज़ाफ़ियत (Theory of Relativity) के मुताबिक़ हमारे fourth डायमेंशन वाली दुनियाँ में कोई भी शै रौशनी की रफ़्तार से तेज़ हरकत नहीं कर सकती है यानी कि नज़रिया-ए-इज़ाफ़ियत के मुताबिक़ रफ़्तार की आख़िरी हद रौशनी की रफ़्तार है जो कि तीन लाख किलोमीटर फ़ी सेकण्ड है! तो क्या यहाँ हमारी इस तहक़ीक़ में कुछ missing है यानी कि क्या अब हम इस वाक़िये को आगे explain नहीं कर सकते? क्या बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से तेज़ नहीं थी? आइए दोस्तों! इस मसले का हल निकालते हैं कि आया हमारी क़ाएनात में महज़ रौशनी की रफ़्तार ही रफ़्तार की आख़िरी हद है या इसकी हद से तजावुज़ किया जा सकता है? इस पेचीदगी से भरी क़ाएनात में कई ऐसी तब्दीलियाँ रूकू पज़ीर हो रही हैं जो रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ हैं! साइंसदानों को इस बात के सबूत मिलने लगे हैं कि रौशनी की रफ़्तार से ज़ियादा तेज़ रफ़्तार मुम्किन है! यानी कि अब इस बात में कोई हैरानगी नहीं कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ रही होगी! स्ट्रिंग थ्योरी भी ऐसे पार्टिकल्स का ज़िक्र करती है जो रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ हरकत कर सकते हैं और इस पार्टकिल का नाम है टैकीऑन! इससे यह बात ज़ाहिर होती है कि बुर्राक़ की रफ़्तार बहुत ज़ियादा तेज़ थी और आप (स) को यह मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा की तरफ़ ले गई! दोस्तों अगर हम अब हाल की दुनियां की तरफ़ रुजू करें तो बात सामने आती है कि मस्जिदे अक़्सा और मस्जिदे हराम का फ़ासला 1461 किलोमीटर है जो कि बहुत ही ज़ियादा है और अगर फ़ासले को एक गाड़ी से तय करें तो हमे तक़रीबन 16 घण्टे दरकार होंगे और अगर हम गाड़ी के बजाएं इसी फ़ासले को जहाज़ से तय करें तो हमें तक़रीबन 2 या 3 घंटे दरकार होंगे! यानी कि जैसे जैसे हम रफ़्तार बढ़ाते चले जायेंगे वैसे वैसे वक़्त भी कम होता जा रहा है! आइये दोस्तों! अब कि सादा फ़ार्मूला की मदद लेते हैं जो कि आपने भी कभी पढ़ा होगा S = V X T. यानी फ़ासला बराबर है रफ़्तार ज़र्बे वक़्त! दोस्तों हमने यह तो जाना कि एक मामूली गाड़ी 1461 किलोमीटर के फ़ासले के लिहाज़ से 16 घण्टे में मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा पहुंचेगी! लेकिन हमारा यहाँ वास्ता मामूली रफ़्तार से नहीं बल्कि तसव्वुर की जाने वाली रफ़्तार से भी ज़ियादा रफ़्तार से है! यानी फ़ासला 1461 किलोमीटर तो है लेकिन रफ़्तार तीन लाख किलोमीटर फी सेकंड है और अब अगर हम इस फ़ासले और रफ़्तार को तक़सीम करके वक़्त निकालें तो यह 0.00487 सेकंड के क़रीब आता है जो कि वक़्त की बहुत ही ज़ियादा क़लील मिक़दार है! अब तसव्वुर कीजिये तो वह बुर्राक़ जो रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ थी इसे कितना वक़्त लगा होगा यह फ़ासला तय करने में लेकिन अगर रौशनी ही यह फ़ासला इतने क़लील वक़्त में तय करवा सकती है तो बहस क्यों हो रही है कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से ज़ियादा तेज़ थी?
आइए इसे भी जान लेते हैं! अगर हम बुर्राक़ की रफ़्तार को रौशनी की रफ़्तार तसव्वुर करके चलें तो यहाँ थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी हमारे सामने एक बार फिर एक बड़ा मसला पेश करती है जबकि इसी मसले को मुख़्तलिफ़ websites और स्कॉलर्स शबे मेराज का हल बताते हैं जो कि बिल्कुल ग़लत है! थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी के मुताबिक़ अगर कोई मफ़ऊल रौशनी की रफ़्तार के 99 फ़ीसद से हरकत करने लगे तो इसके लिए वक़्त आहिस्ता हो जाता है जबकि गिर्द व नवाँ का वक़्त तेज़ हो जाता है यानि एक जहाज़ 99.99 फ़ीसद या रौशनी की रफ़्तार की ऐन बराबर हरकत करने लगे तो इसके लिए वक़्त बहुत आहिस्ता हो जायेगा बनिस्बत इसके गिर्द व नवां कि और अगर यह जहाज़ इसी रफ़्तार से हरकत करता रहे तो ज़मीन पर एक हफ़्ता गुज़र जायेगा! जबकि जहाज़ के अंदर महज़ 24 घाटे गुज़रे होंगे! यानी रौशनी की रफ़्तार से हरकत करते हुए जहाज़ के लिए वक़्त आहिस्ता होगा न की गिर्द व नवाँ का लेकिन अगर हम इसी उसूल को मेराज-उन-नबी (स) पर लागू करें तो इसका मतलब बुर्राक़ की रफ़्तार अगर रौशनी की रफ़्तार के बराबर थी तो आप (स) के लिए वक़्त आहिस्ता होना चाहिए था! जबकि ज़मीन का वक़्त तेज़ होना चाहिए था! लेकिन हक़ीक़तन ऐसा नहीं बल्कि मामला इसके बरअक्स है यानी आप हुज़ूर (स) के लिए वक़्त चलता रहा जबकि गिर्द व नवाँ का वक़्त रुक चुका था! यानी आप हुज़ूर (स) ने वक़्त की इन्तेहाई क़लील मिक़दार में यह सैर और सफ़र मुकम्मल किया! लिहाज़ा थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी यहाँ एक बार फिर रुकावट पैदा करती है! जो कि यह कि रौशनी की रफ़्तार से हरकत करता मफ़ऊल वक़्त को अपने लिए आहिस्ता महसूस करता है लेकिन मेरे अज़ीज़ दोस्तों! आप के इल्म में इज़ाफ़े के लिए अर्ज़ है कि इसी उसूल को तोड़ने के लिए बुर्राक़ की रफ़्तार को रौशनी की रफ़्तार से तेज़ रखा गया था! क्योंकि थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी उसी वक़्त लागू होती है जब कि ऑब्जेक्ट रौशनी की रफ़्तार या इसके 99 फ़ीसद रफ़्तार तक हरकत करे! चूँकि दोस्तों बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से ज़ियादा थी इसलिए अब यहाँ नजरिया-ए-इज़ाफ़ियत लागू नहीं कर सकते यानी इस मर्तबा नज़रिया-ए-इज़ाफ़ियत के मुताबिक़ वक़्त न तो आप हुज़ूर (स) आहिस्ता होगा और न ही गिर्द व नवाँ के लिए! लेहाज़ा हम तसव्वुर कर सकते हैं कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी की रफ़्तार का दोगुना है जोकि 6 लाख किलोमीटर फ़ी सेकंड है और अगर हिसाब से मस्जिदे हराम और मस्जिदे अक़्सा के दरमियान दरकार वक़्त निकालें तो जवाब 0.002435 सेकंड आएगा! लिहाज़ा दोस्तों! इससे हम यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आप हुज़ूर (स) को मस्जिदे अक़्सा तक पहुँचने में महज़ 0.002435 सेकंड का वक़्त लगा होगा! लेकिन मैं यहाँ पर थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी को ध्यान में रखते हुए बुर्राक़ की रफ़्तार को रौशनी की रफ़्तार के बराबर मान रहा हूँ जिसके हिसाब से बुर्राक़ को मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा तक पहुँचने में महज़ 0.00487 सेकण्ड लगे! जब आप हुज़ूर (स) मस्जिदे अक़्सा पहुंचे तो आप ने वहां जमात भी करवाई और फिर सात आसमानों का सफ़र भी तय किया और फिर क़ाएनात के इख़्तेतामी मुक़ाम सिदरतुल मुंतहा भी पहुंचे और दोस्तों अगर हम यही मानें कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी की दोगुना थी तो फिर भी बुर्राक़ को सिदरतुल मुंतहा पहुँचने में अरबों साल दरकार होंगे! क्योंकि दोस्तों इस लिहाज़ से बुर्राक़ को सूरज तक पहुँचने में 8 मिनट लगेंगे जो की सिदरतुल मुंतहा के मुक़ाबले ज़मीन के बहुत नज़दीक है! इसकी वजह यह है कि सूरज से ज़मीन तक रौशनी पहुँचने में 8 मिनट से कुछ ज़ियादा का वक़्त लेती है और इसी लिहाज़ से बुर्राक़ भी 8 मिनट लेगी! लिहाज़ा सिदरतुल मुंतहा जो कि खरबों खरबों नूरी साल या तसव्वुर की जाने वाली किसी भी दूरी से भी ज़ियादा नूरी साल दूर है वहाँ बुर्राक़ को जाने में कई अरबों साल दरकार होंगे जबकि आप हुज़ूर (स) ने यह सफ़र पलक झपकते ही तय कर लिया लिहाज़ा अभी भी सवाल बहुत बाक़ी हैं! अगर आप हुज़ूर (स) बुर्राक़ पर ही आसमानी सफ़र करते जो आज तक भी बुर्राक़ सिदरतुल मुन्तहा तक नहीं पहुँच पाता लेकिन अल्लाह ने यही सफ़र आप हुज़ूर (स) को उसी रात के उसी सेकंड से भी कम वक़्त में मुकम्मल करवाया! आख़िर यह कैसे मुम्किन है? दोस्तों! अगर हम ग़ौर करें तो हमें मालूम होता है कि आप हुज़ूर (स) जब मस्जिदे अक़्सा उतरे तो बुर्राक़ को वहाँ बांध दिया गया था! यानी इसके बाद बुर्राक़ पर मज़ीद सफ़र नहीं किया गया बल्कि आप हुज़ूर (स) को एक आसमानी सीढ़ी की मदद से सातों आसमानों की सैर करवाई गई! लेकिन दोस्तों अगर हम सात सीढ़ियों को भी सात आसमानों से मुनसलीक़ करें तो भी सिदरतुल मुन्तहा और ज़मीन के दरमियान का फ़ासला बहुत ही ज़ियादा होगा क्योंकि हम जानते हैं कि एक सीढ़ी फ़ासला कम नहीं करती बल्कि वह तो हमें निचली ज़मीनी सतह से ऊंचाई उपरी सतह तक ले जाने में मदद देती है! तो अब हम यह कैसे मान लें कि मस्जिदे अक़्सा और आसमानी सफ़र सीढ़ी की मदद से मुकम्मल हुआ? क्योंकि बुर्राक़ का इस्तेमाल तो इस मरतबा नहीं किया गया और अगर सीढ़ी को भी सच मानें तो भी सफ़र बहुत तवील फ़ासले की वजह से आज भी जारी होता! मगर घबराईए नहीं इसका जवाब यह है कि यह सीढ़ी हमारी तसव्वुर की जाने वाली सीढ़ी नहीं बल्कि यह वह सीढ़ी है जो आइंस्टीन और थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की कैलकुलेशन के दौरान कैलकुलेट की थी! जी हाँ! यह हक़ीक़त है और इस सीढ़ी को जदीद फ़िज़िक्स की ज़बान में नाम 'वॉर्म होल' कहते है!
आइये अब जान लेते हैं कि कैसे यह सीढ़ी एक वॉर्म होल है और क्या इसका क़ुरआन में कोई ज़िक्र मौजूद है? दोस्तों जब आप (स) ने मस्जिदे अक़्सा से आसमानी सफ़र किया तो वह क़ाएनात के इख़्तेतामी मुक़ाम पर पहुंचे और मज़ीद आप (स) ने जन्नत और जहन्नम को भी देखा और कई लोग भी देखे जो जहन्नम में अपने किये की सज़ा काट रहे थे! अब यहाँ यह मसला आता है कि क़यामत तो अभी आयी ही नहीं तो यानी इंसानों के जन्नती और जहन्नमी होने का फ़ैसला तो हुआ ही नहीं तो फिर यह कैसे मुम्किन हुआ कि आप हुज़ूर (स) ने इंसानों को जहन्नम में देखा मगर मेरे अज़ीज़ों मेरा यक़ीन कीजिये कि यही सवाल हमारे इस वाक़िये का सबसे बड़ा हल है! जी हाँ! जब आप हुज़ूर (स) ने जहन्नमियों को देखा तो दरअसल उस वक़्त आप हुज़ूर (स) मुस्तक़बिल (भविष्य) में मौजूद थे! यक़ीनन आप को यह सब कुछ अजीब सा मालूम हो रहा होगा! मगर यह हक़ीक़त है! दोस्तों आज साइन्स यह साबित करती है कि माज़ी मुस्तक़बिल और हाल (भूतकाल, वर्तमान, भविष्यकाल) ब एक वक़्त मौजूद होते हैं लिहाज़ा अब सवाल यह है कि आप हुज़ूर (स) मुस्तक़बिल (भविष्य) में कैसे पहुँचे? आइये इसे तफ़सील से जान लेते हैं और इस मक़सद के लिए वॉर्म होल को टटोलते हैं!
दोस्तों! वॉर्म होल ख़ला ए वक़्त यानी मकान व ज़मान में एक ऐसा शार्ट कट और मुख़्तसर तरीन रास्ता बनाते हैं जिनका तसव्वुर इंसानी सोच को हैरान कर देता है! वॉर्म होल एक ऐसा क़ुदरती सुराख़ है जो कि वक़्त के मुख़्तलिफ़ हिस्सों को आपस में जोड़ता है यानी वॉर्म हॉल स्पेस में पाए जाने वाले ऐसे होल्स हैं जो खरबों खरबों और ट्रिलियन नूरानी सालों के फ़ासले को महज़ क़दमों की मुसाफ़त में तब्दील करने की क़ुव्वत रखते हैं और साथ ही यह वक़्त के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को आपस में मुन्सलीक़ करते हैं यानी अगर एक वॉर्म होल के एक सिरा सन एक हज़ार में खुलता है तो इसका दूसरा सिरा मुम्किन है कि सन चार हज़ार यानी मुस्तबील में खुले! और यह कोई तसव्वुराती ख़याल नहीं बल्कि थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी इस बात को सच साबित करती है लिहाज़ा इससे हम यह मान सकते हैं कि आप हुज़ूर (स) मस्जिदे अक़्सा से रवाना हुए तो दरअसल वह सीढ़ी एक वॉर्म होल थी जो मस्जिदे अक़्सा से आसमानों की तरफ़ आप को ले गई! क्योंकि आप हुज़ूर (स) ने इस तसव्वुर भी न किये जाने वाले फ़ासले को महज़ चंद लम्हात में ही मुकम्मल कर लिया और वह सात दरवाज़े जहाँ से आप हुज़ूर (स) गुज़रे वह सात मुख़्तलिफ़ वॉर्म होल्स थे जो मतलूब जगहों और वक़्त में खुलते गए!
मैं आपको मज़ीद बताता चलूँ कि वॉर्म होल्स मकान व ज़मान (Space & Time) में पाए जाने वाले ऐसे शॉर्टकट व खुफ़िया रास्ते हैं जिनकी मदद से क़ाएनात की बहुत लम्बी-लम्बी दूरियों को पल भर में तय किया जा सकता है! वॉर्म होल्स के बारे में आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी हमें बहुत कुछ बताती है कि कैसे वॉर्म होल्स के ज़रिये स्पेस-टाईम में शार्ट कट पैदाकर के बहुत तवील सफ़र पल भर में तय किया जा सकता है!
वॉर्म होल्स का तस्सव्वुर सबसे पहले 20 वीं सदी के सबसे ज़हीन तरीन साइंसदान अल्बर्ट आइंस्टीन ने सन 1905 में अपनी जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी में किया था! बाद में 1935 में आइंस्टीन और एक दूसरे साइंसदान नाथन रोसेन ने जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी के इस तसव्वुर की मदद से इस पर मज़ीद रौशनी डाली और स्पेस-टाईम के दरमियान कुछ तरह के ब्रिजों (Bridges) या सीढियों का तसव्वुर पेश किया! यह ब्रिज स्पेस-टाईम दो अलग अलग हिस्सों को आपस में जोड़ने का काम करते हैं और नज़रियाती तौर पर स्पेस-टाईम के दरमियान एक ऐसा शार्ट कट पैदा करते हैं जो दूरी और सफ़र के वक़्त को घटा देते हैं! इन शॉर्टकट्स को हम Einstein-Rosen Bridges या wormholes भी कहते हैं! वॉर्महोल्स स्पेस-टाईम के दरमियान एक तरह के tunnel के जैसे होते हैं जिसके एक सिरे से अगर आप अंदर जाओगे तो दूसरा सिरा अरबों नूरानी साल दूर खुलेगा और यह सफ़र आप चंद लम्हों में तय कर सकते हैं! यह सब आपको जादुई तिलिस्मी दुनियाँ के जैसा लगता है लेकिन यह महज़ साइंस फ़िक्शन नहीं बल्कि आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी ख़ला में इनकी मौजूदगी की निशानदेही और मौजूद होने की पेशनगोई करती है!
अब वॉर्म होल्स की मौजूदगी के लिहाज़ से क़ुरआन की यह आयत मुलाहेज़ा फ़रमाएं: "और इन्साफ़ का दिन ज़रूर वाक़ेह होगा और आसमान की क़सम जिसमें कई रास्ते हैं! (सूरए ज़र्रियत, आयत 6)
इस आयत में अल्लाह ने महज़ आसमानों में रास्तों का हल्का सा इशारा दिया है। क़ुरआन में मज़ीद इरशाद है: "और अगर हम आसमान का कोई दरवाज़ा उन पर खोल दें और वह उसमें चढ़ने भी लगें तो भी वह यही कहेंगे कि हमारी आँखें बाँध दी गई हैं बल्कि हम पर जादू कर दिया गया है! और हमने आसमान में बुर्ज बनाए हैं और देखने वालों के लिए उसको सजा दिया है! (सूरए हिज्र, आयत 13, 17)
इस आयत में हक़ीक़त खुलकर सामने आती है क्योंकि यह आयतें साफ़ तौर पर दरवाज़ों और फिर इन पर चलने का ज़िक्र भी करती है! यही आसमानी दरवाज़े आज की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी के मुताबिक़ वॉर्म होल्स हैं! दोस्तों अब अच्छी समझ के लिए सात दरवाज़ों के बजाए महज़ दो दरवाज़ों यानी दो वॉर्म होल्स का तसव्वुर कीजिये! पहला वह जिसका एक सिरा मस्जिदे अक़्सा से मुन्सलीक़ था और दूसरा वह जो आप हुज़ूर (स) को सबसे आख़िरी मुक़ाम सिदरतुल मुन्तहा तक ले गया! इन्हीं वॉर्महोल्स का तसव्वुर ध्यान में रखते हुए मज़ीद तसव्वुर कीजिये कि आप हुज़ूर (स) बुर्राक़ की मदद से मस्जिदे हराम से मग़रिब की नमाज़ के बाद 8 बजे निकले और मस्जिदे अक़्सा पहुँचने में 0.00487 सेकंड लगे! और हम जानते हैं कि हुज़ूर (स) ने वहाँ नमाज़ भी पढ़ाई! मान लीजिये कि आप हुज़ूर (स) को नमाज़ पढ़ाने में 10 मिनट का भी वक़्त लगा होगा! यानी वक़्त अब 8 बजकर 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड रहा होगा और इसी वक़्त नमाज़ की अदाएगी के बाद आप हुज़ूर (स) ने अपना आसमानी सफ़र शुरू किया जोकि आसमानी सीढ़ी यानी वॉर्महोल्स की मदद से हुआ! यहाँ एक बात क़ाबिले ग़ौर है वह यह कि ज़मीन और सिदरतुल मुन्तहा के दरमियान फ़ासला जितना तवील था मगर वॉर्महोल की मदद से वह फ़ासला बिल्कुल ना कि बराबर था! क्योंकि वॉर्महोल के दोनों सिरे मतलूब जगह पर फ़िक्स होते हैं और इनके दरमियान में कोई फ़ासला नहीं यानी जैसे ही एक सिरे से दाख़िल हुआ जायेगा वैसे ही तवील फ़ासला पलक झपकते ही तय हो जाएगा और इंसान दूसरे सिरे से ख़ारिज हो चुका होगा लिहाज़ा इस आसमानी सीढ़ी ने आप हुज़ूर (स) को मस्जिदे अक़्सा से सिदरतुल मुन्तहा बाआसानी पहुँचा दिया और वहीं दूसरी तरफ़ आप हुज़ूर (स) मुस्तक़बिल में पहुँचे जहाँ आप हुज़ूर (स) ने जहन्नमियों को देखा! जैसा कि मैंने आप को बताया ख़ुद यहाँ माज़ी, मुस्तक़बिल व हाल ब एक वक़्त एक साथ मौजूद रहते हैं!
आइये इसे थोड़ा तफ़सील से जान लेते हैं! तसव्वुर कीजिये कि जंगल में एक शेर अपनी ख़ुराक (हिरन) की तलाश में निकलता है मगर वह यह नहीं जानता कि ख़ुराक इससे दो दिन की दूरी पर मौजूद है! यानी अगर वह दो दिन तक मुसलसल चले तो ही इसे ख़ुराक मिलेगी! इसका मतलब यह हुआ कि दो दिन के बाद मुस्तक़बिल में ख़ुराक इसके पास मौजूद होगी लेकिन फ़िलहाल शेर को यूँ मालूम हो रहा है ख़ुराक इस दुनियां में इसके लिए आयी ही नहीं जबकि दो दिन बाद वह ख़ुराक इसके पास होगी यानी मुस्तक़बिल में वह ख़ुराक अभी भी मौजूद है! दोस्तों अब शेर और इसका मुस्तक़बिल यानी कि ख़ुराक ख़ुदा के यहाँ ब एक वक़्त एक साथ मौजूद हैं! इसी तरह दोस्तों आज के इंसान और मुस्तक़बिल जहाँ वह जन्नत में होगा या दोज़क में होगा ख़ुदा के यहाँ ब एक वक़्त मौजूद हैं और इसी वक़्त के दो पहलुओं को अल्लाह वॉर्म होल्स के ज़रिये आपस में जोड़कर आप हुज़ूर (स) को मुस्तक़बिल के जहन्नमियों को दिखाया क्योंकि थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी इस बात की ऐन इजाज़त देती है कि वॉर्म होल्स हमें माज़ी, मुस्तक़बिल और हाल तीनों में पहुँचा सकते हैं यानी अब अगर हम यह मानकर आगे चलते हैं कि आप हुज़ूर (स) मस्जिदे अक़्सा से 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड पर अपना आसमानी सफ़र शुरू करते हैं और फिर चन्द ही लम्हों में सिदरतुल मुन्तहा तक पहुँचते हैं और अपनी आसमानी सैर जारी रखते हैं और जब आप हुज़ूर (स) यह सैर मुकम्मल करके दोबारा मस्जिदे अक़्सा आते हैं तो फिर वही वॉर्म होल का इस्तेमाल करते हैं! जिसका ज़िक्र आसमानी सीढ़ी के नाम से किया जाता है चूंकि दोस्तों इस सीढ़ी का सिरा मस्जिदे अक़्सा से मुन्सलिक़ था तो यहाँ यह बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि वही वॉर्म होल यानी आसमानी सीढ़ी वक़्त के उसी पहलू पर खुलती थी जब वक़्त 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड था यानी जब आप हुज़ूर (स) 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड पर आसमानी सीढ़ी का इस्तेमाल करते हैं तो आप हुज़ूर (स) चन्द लम्हात में ही क़ाएनात के आख़िरी मुक़ाम तक पहुँच जाते हैं और फिर तक़रीबन 27 साल का सफ़र मुकम्मल करके ज़मीन पर वापस आ जाते हैं!
आइये दोस्तों! हम अब कुल वक़्त टोटल करते हैं यानी जब आप हुज़ूर (स) मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा रवाना हुए तो आप हुज़ूर (स) को 0.00487 लगे फिर मस्जिदे अक़्सा में नमाज़ की अदायगी में 10 मिनट लगे और फिर मस्जिदे अक़्सा से आसमानी सफ़र में ज़ीरो सेकंड लगे क्योंकि वॉर्म होल यानी आसमानी सीढ़ी ने मस्जिदे अक़्सा वाले सिरे को 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड पर फ़िक्स किया था! थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी भी यही कहती है कि वॉर्म होल के हम एक सिरे से दाख़िल होकर हाल से मुस्तक़बिल में और मुस्तक़बिल से दोबारा हाल के उसी वक़्त में वापिस लौट सकते हैं और ऐन यह ही शबे मेराज के आसमानी सफ़र में हुआ यानी कि दोस्तों अब आसमानी सफ़र के लिए वक़्त ज़ीरो सेकण्ड लगा! इस कैलकुलेशन के लिहाज़ से आप हुज़ूर (स) को इस पूरे सफ़र में 600.00487 सेकण्ड लगे लेकिन दोस्तों यह वक़्त बहुत ज़ियादा है जबकि इस्लामी तालीमात के लिहाज़ से आप हुज़ूर (स) ने पलक झपकने के दौरान यह सफ़र मुकम्मल कर लिया जबकि 10 मिनट में ज़मीन पर बहुत कुछ किया जा सकता है लिहाज़ा यह कैलकुलेशन भी ग़लत हैं! और एक बार फिर हमारी कोशिश पर पूरी तरह से पानी फेर देती है! पर मेरा एतबार कीजिये कि हम इसे बिल्कुल ठीक कर सकते हैं! चलिए थोड़ा सा पीछे चलते हैं! यह तो मैंने आपको बताया कि 'वॉर्म होल' हाल और मुस्तक़बिल (वर्तमान और भविष्य) को जोड़ते हैं लेकिन ध्यान देने वाली बात यह थी कि मैंने आपको यह भी ज़िक्र किया था कि वॉर्म होल्स मुस्तक़बिल व हाल को तो जोड़ता ही है लेकिन साथ ही वह मुस्तक़बिल को माज़ी (भविष्य को भूतकाल) के साथ भी जोड़ता है यानी कि वह आसमानी सीढ़ी जिसे हम वॉर्म होल कह रहे हैं और जिसका सिरा सिदरतुल मुन्तहा और मस्जिदे अक़्सा से मुन्सलिख़ था वह आसमानी सफ़र के इब्तेदा में 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड के वक़्त से मुन्सलिख़ था लेकिन जब आप हुज़ूर (स) वापस लौटे तो वह सिरा 8 बज कर 10 मिनट और 0.00487 की बजाएं 8 बजकर 0.00487 सेकण्ड के वक़्त से मुन्सलिख़ था! ऐन वह वक़्त जब आप (स) बुर्राक़ से उतरे ही थे क्योंकि अगर 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड से मुन्सलिख़ होता तो इस हिसाब से आप (स) को 10 मिनट और एक सेकंड का भी बहुत छोटा हिस्सा लगता जो कि ग़लत है लिहाज़ा इस मरतबा हमारी कॅल्क्युलेशन्स कुछ इस तरह से होंगी! मस्जिदे अक़्सा तक पहुँचने का वक़्त, नमाज़ की अदाएगी का वक़्त और फिर मस्जिदे अक़्सा से सिदरतुल मुन्तहा तक का वक़्त जो कि ज़ीरो सेकण्ड है! सिदरतुल मुन्तहा से मस्जिदे अक़्सा तक का वापसी का सफ़र जोकि ज़ीरो सेकंड की बजाएं (-10 मिनट) होगा क्यों इस मर्तबा वॉर्म होल का सिरा 8 बजकर 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड की बजाएं माज़ी के 8 बजकर 0.00487 सेकण्ड खुला जिसके लिए हम 10 मिनट घटा देंगे! इन सब कैलक्युलेशन्स के बाद वक़्त की यह मिक़दार बहुत ही ज़ियादा क़लील है और यह वक़्त की वह मिक़दार है जिसमें न तो परिंदा पर मार सकता है और न ही कोई इंसान पलक झपक सकता है जबकि आप हुज़ूर (स) ने वक़्त के इसी हिस्से में जो कि एक सेकण्ड से भी कम है में पूरा ज़मीनी और आसमानी सफ़र इत्मीनान और ख़ुशी से मुकम्मल किया! लिहाज़ा यह ही वजह थी कि जब आप हुज़ूर (स) वापस लौटे तो आप का बिस्तरे मुबारक गर्म था और ज़ंजीर अभी भी हिल रही थी क्योंकि दोस्तों वक़्त की इस क़लील मिक़दार में कोई भी इंसान कोई काम नहीं कर सकता है इसीलिए आप हुज़ूर (स) जब वापस लौटे तो ज़मीन पर कोई तब्दीली नहीं हुई थी!
Total Time = 0.00487s + 10m + 0s + (-10m) + 0.00487 seconds
= 0.00974 second
मैं आपको मज़ीद बताता चलूँ कि अभी हमें बुर्राक़ की असल रफ़्तार का अंदाज़ा नहीं है कि वह कितनी थी लेकिन इतना अंदाज़ा है कि वह रौशनी से ज़ियादा तेज़ थी और अगर हम इस लिहाज़ से बुर्राक़ की रफ़्तार को बिजली की रफ़्तार के दोगुना के बजाए 10 गुना या इससे भी ज़ियादा मानें तो इस लिहाज़ से हमारे पास इस सैर और सफ़र का वक़्त एक सेकण्ड के करोड़वें हिस्से या इससे भी ज़ियादा कम आएगा जो कि तक़रीबन ज़ीरो सेकण्ड के बराबर है और यही बात इस्लामी तालीमात भी बयान करती हैं कि आप (स) पलक झपकने के ही पहले यह सफ़र मुकम्मल कर गए और इसी बात को हम ने तफ़सीलन कैलकुलेशन से भी जान लिया!
इधर एक सवाल ज़हन में आ सकता है कि क़ुरआन के मुताबिक़ नबी ए करीम (स) ज़ाहिरी तौर पर एक इंसान हैं तो यह कैसे मुम्किन है कि कोई इंसान इतनी तेज़ रफ़्तार और वॉर्म होल की ज़बरदस्त ग्रेविटी को बर्दाश्त करें!? जवाब: इससे साबित होता है कि रसूले ख़ुदा (स) को अल्लाह ने अपने नूर से ख़ल्क़ किया तभी तो इतनी तेज़ रफ़्तार और वॉर्म होल की ज़बरदस्त ग्रेविटी को बर्दाश्त कर सके और सहीह
सलामत फिर उसी वक़्त में लौट आए.
लेखक: अली अख़्तर नौगांवी