۱۱ تیر ۱۴۰۳ |۲۴ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 1, 2024
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हौज़ा/इन्क़ेलाब ए इस्लामी के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनेई ने हालिया कुछ बरसों में कुछ अरब मुल्कों के ज़ायोनी हुकूमत से समझौते करने के ख़िलाफ़ बार बार स्टैंड लिया और इसे इस्लाम और मुसलमानों से ग़द्दारी बताया।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,इन्क़ेलाब ए इस्लामी के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनेई ने हालिया कुछ बरसों में कुछ अरब मुल्कों के ज़ायोनी हुकूमत से समझौते करने के ख़िलाफ़ बार बार स्टैंड लिया और इसे इस्लाम और मुसलमानों से ग़द्दारी बताया।
अल्लामा तबातबाई यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर व इस्लामी दुनिया के मामलों के माहिर डॉक्टर सादुल्लाह ज़ारेई से एक इंटरव्यू किया जिसमें ज़ायोनी हुकूमत से सामान्य रिश्ते क़ायम करने के कुछ सरकारों के हालिया मंसूबे और इलाक़े की क़ौमों पर इसके गहरे असर का जायज़ा लिया गया।

सवालः अगर हम इतिहास की रौशनी में समीक्षा करना चाहें तो बताइए कि ज़ायोनी हुकूमत से इलाक़े की सरकारों के रिश्ते क़ायम होने का प्रोजेक्ट कब से शुरू हुआ?
जवाबः ज़ायोनी शासन का वजूद उन रिश्तों की देन है जो शुरू से ही सऊदी अरब जैसे कुछ अरब मुल्कों से क़ायम हो गए थे। ज़ायोनी हुकूमत और ब्रिटेन से, जो इस हुकूमत को वजूद में लाने वाला था, कुछ अरब मुल्कों के सहयोग के बिना ज़ायोनी हुकूमत के क़ायम होने का कोई इमकान ही नहीं था।
जब अंग्रेज़ों ने आख़िरी उस्मानी शासक सुल्तान अब्दुल हमीद पर दबाव डाला कि वह फ़िलिस्तीन में यहूदियों को बसाने में सहयोग करे तो सुल्तान ने कहा कि यह तो गवारा है कि मेरे दोनों हाथ काट दिए जाएं लेकिन यह गवारा नहीं कि हम फ़िलिस्तीन को गवां दें। इसलिए अंग्रेज़ों ने उस्मानी शासन के अधीन हुकूमत करने वाले कुछ दूसरे शासकों से संपर्क किया जिनमें नज्द के इलाक़े पर हुकूमत करने वाले शासक शाह अब्दुल अज़ीज़ भी थे। यह इलाक़ा, अरब प्रायद्वीप का क़रीब छटा हिस्सा था। अंग्रेज़ों और अब्दुल अज़ीज़ के बीच जो बातचीत हुयी उसमें यह मामला तय पा गया और शाह अब्दुल अज़ीज़ ने अपने दस्तख़त करके साफ़ लफ़्ज़ों में इस बात का एलान किया कि वो फ़िलिस्तीन में यहूदियों को बसाए जाने और वहाँ एक यहूदी हुकूमत के गठन पर सहमत हैं और इस सिलसिले में मदद करेंगे। आगे चल कर इस्राईलियों ने गुप्त रूप से मुख़्तलिफ़ अरब संगठनों और हस्तियों से संबंध क़ायम कर लिए।
इसके बाद जब ज़ायोनियों के अपराधों पर मुसलमानों के क्रोध का ज्वालामुखी फटने वाला होता तो कुछ अरब मुल्क और अरब हस्तियां फ़िलिस्तीनियों के ग़ुस्से को ठंडा कर देती थीं और उनके क्रोध को भड़कने नहीं देती थीं। उनमें से एक अहम शख़्स सऊदी अरब के शासक, शाह फ़ैसल थे। शाह फ़ैसल के भाई शाह ख़ालिद ने अपनी आपबीती में लिखा है कि मैं अपने भाई की तरफ़ से फ़िलिस्तीन जाते थे और फ़िलिस्तीनियों को यक़ीन दिलाते थे कि ब्रिटेन, ज़ायोनियों को हावी होने नहीं देगा और वह निश्चित तौर पर आप फ़िलिस्तीनियों के अधिकारों का समर्थन करेगा और मेरे भाई शाह फ़ैसल इसकी गारंटी लेते हैं।
जब भी किसी मामले में, मिसाल के तौर पर मस्जिदुल अक़्सा को आग लगाने के मामले में फ़िलिस्तीनियों का ग़ुस्सा बढ़ जाता था और यहूदियों या नव गठित हुकूमत के ख़िलाफ़ एक बड़ी लहर उठती थी तो अरब मुल्कों के शाह फ़ैसल और जॉर्डन के शासक शाह हुसैन जैसे लोगों की ज़िम्मेदारी होती थी कि उस ग़ुस्से को कंट्रोल करें और वे कंट्रोल कर लेते थे। इसलिए इस्राईल नामी इस नासूर की, इस्लामी दुनिया के जिस्म में फ़ैलने से पहले ही बड़ी आसानी से सर्जरी की जा सकती थी लेकिन इसमें देर हो गयी, अब भी सर्जरी के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

सवालः ज़ायोनी हुकूमत से संबंध बहाली का पश्चिम एशिया के इलाक़े और ख़ास तौर पर फ़िलिस्तीनी क़ौम पर क्या असर पड़ेगा?
जवाबः देखिए इस्राईल मुल्क नहीं एक एजेंडा है और पश्चिम ने भी इसके एजेंडा होने की बात मानी है। ख़ुद इस्राईलियों ने भी, जैसे बिन गोरियन ने एतेराफ़ किया है कि फ़िलिस्तीन की मुक़द्दस सरज़मीन में एक मुसलमान विरोधी हुकूमत का गठन, इस्लामी दुनिया को कंट्रोल करने, इस्लामी दुनिया को मज़बूत होने से रोकने और इस्लामी दुनिया पर यूरोप के कंट्रोल को यक़ीनी बनाने के लिए किया गया है। यह वह बात है जो ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी है और बयानों में भी खुल कर कही गयी है और इस्राईल के पूर्व शासकों ने भी इस बात को स्वीकार  किया है। इस्राईल का सिर्फ़ एक काम है और वह यह कि इस्लामी जगत को एकजुट न होने दे। इसलिए कि इस्लामी दुनिया की एकता, पश्चिम वालों को तीन ताक़तवर शासनों की याद दिलाती है। पहला उस्मानी शासन, जिसने क़रीब 700 साल तक दुनिया के एक बड़े हिस्से पर हुकूमत की, दूसरी सफ़वी सल्तनत और तीसरी मुग़ल सल्तनत जिसने भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया। इस तरह की ताक़त दोबारा तैयार न हो जाए, इसके लिए ज़ायोनी शासन को एक ख़ास रोल दिया गया है।

सवालः इस्राईल से संबंथ बहाली की प्रक्रिया की पृष्ठभूमि क्या है और इसे बेअसर बनाने के लिए कैसा ऐक्शन प्लान अपनाना चाहिए?
जवाबः इस्राईल से संबंध बहाली का मतलब एक विवादित विषय की संवेदनशीलता को ख़त्म करना है और अगर यह विवाद जारी रहता है तो इस्राईल के वजूद के स्तंभ टूट कर बिखर जाएंगे और इस शासन का अंत, इस्लामी दुनिया में पश्चिम की ताक़त के अंत की पृष्ठिभूमि है। इसी वजह से “इस्राईल को हमेशा रहना चाहिए” की रट अमरीका, यूरोप और ख़ुद ज़ायोनी शासन और इलाक़े में उसके पिट्ठुओं की संयुक्त नीति बन चुकी है। जहाँ तक ऐक्शन प्लान की बात है तो सबसे पहले मुसलमानों में एकता है, दूसरी बात फ़िलिस्तीनियों का मैदान में डटे रहना और संघर्ष से न थकना है, तीसरी बात यह है कि इस्लामी मुल्क फ़िलिस्तीनियों का समर्थन और सपोर्ट करें और इस्लामी जुम्हूरिया ईरान की तरह इस्लामी मुल्कों की विदेश नीति के एजेन्डे में फ़िलिस्तीन को हासिल प्राथमिकता कभी भी बाहर न निकले।

सवालः आख़िरी सवाल यह कि इस सियासी प्रोजेक्ट को इलाक़े के अवाम में कितनी लोकप्रियता हासिल है?
जवाबः ख़ुद पश्चिम वालों ने कई बार सर्वे कराए हैं, मिसाल के तौर पर यूएई और ज़ायोनी शासन के बीच संबंध बहाली के मौक़े पर पिछले साल जून में एक सर्वे कराया गया और कहा गया कि उन सभी अरब मुल्कों में जिनमें सर्वे कराया गया, इस्राईल से संबंध बहाली और उसे औपचारिक तौर पर मान्यता दिए जाने की मुख़ालेफ़त 70 से 90 फ़ीसद थी। यहाँ तक कि यूएई में भी, जहाँ की बड़ी आबादी लोकल नहीं है और लोकल आबादी कम है, कहा गया है कि 80 फ़ीसद से ज़्यादा लोग इस्राईल से संबंध बहाली के ख़िलाफ़ हैं। इसलिए क़ौमों का स्टैंड तो बिल्कुल साफ़ है। फ़िलिस्तीन की क़ौम पाक सरज़मीन पर क़ब्ज़ा होने के कड़वे वाक़ये को कभी भी तस्लीम नहीं करेगी। इसलिए चाहे जितना वक़्त गुज़र जाए, क़ौमें इस्राईल को कभी भी मान्यता नहीं देंगी और न ही उसके जुर्म को भूलेंगी।

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