हौज़ा न्यूज़ एजेंसी
بسم الله الرحـــمن الرحــــیم बिस्मिल्लाह अल-रहमान अल-रहीम
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوا فِي أَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوا تَسْلِيمًا फ़ला व रब्बेका ला यूमेनूना हत्ता यहक्केमूका फ़ीमा शजर बैयनहुम सुम्मा ला यजदू फ़ी अनफ़ोसेहिम हरजन मिम्मा क़ज़यता व योसल्लेमू तसलीमा (नेसा 65)
अनुवाद: तो आपके रब की कसम, वे कभी ईमान नहीं लाएँगे जब तक कि वे अपने मतभेदों में आपसे फैसला न करा लें और फिर जब आप फैसला कर लें तो अपने दिल में किसी तरह की जकड़न महसूस न करें और अपने फैसले को सामने न रख दें।
विषय:
ईमान की हक़ीक़त और अल्लाह के रसूल (स) की आज्ञा का पालन करने का महत्व
पृष्ठभूमि:
यह आयत सूरह अन-निसा से है, जो मुसलमानों के बीच मतभेदों को सुलझाने में पवित्र पैगंबर (स) के अधिकार को आवश्यक घोषित करती है। यह उस समय का वर्णन करता है जब कुछ पाखंडी बाहरी तौर पर मुस्लिम थे, लेकिन पवित्र पैगंबर (स) के आदेशों को स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक थे।
तफ़सीर:
1. विश्वास की आवश्यकता: सच्चे विश्वास का एक अनिवार्य हिस्सा अल्लाह के रसूल (स) को अपने सभी मामलों में न्यायाधीश के रूप में स्वीकार करना है। यह आज्ञाकारिता केवल बाहरी तौर पर नहीं बल्कि दिल से भी होनी चाहिए।
2. पैगम्बर (स) की हाकेमियत: सभी विवादों में अल्लाह के पैगम्बर (स) के अधिकार को स्वीकार करने का अर्थ है कि उनके निर्णय को दैवीय रूप से निर्देशित माना जाना चाहिए। दिल में कोई जकड़न महसूस न होना इस बात की निशानी है कि इंसान ने अपनी आत्मा पूरी तरह से अल्लाह और रसूल को सौंप दी है।
3. दिल की संतुष्टि: नबी करीम (स) के फैसले को न केवल स्वीकार करना चाहिए, बल्कि इस फैसले पर दिल में कोई संदेह या आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए।
4. तस्लीम वा रज़ा: तस्लीम का मतलब है कि मुसलमान रसूलुल्लाह (स) के फैसलों को व्यवहार में स्वीकार करते हैं और उनके आदेशों के सामने झुकते हैं।
महत्वपूर्ण बिंदु:
1. पवित्र पैगंबर (स) की आज्ञाकारिता विश्वास का आधार है।
2. विश्वास की सच्चाई हृदय और कर्म दोनों में प्रकट होती है।
3. विवादों में अल्लाह के रसूल (स) का जिक्र करना कुरान का स्पष्ट आदेश है।
4. विश्वास तब पूर्ण होता है जब फैसले के बाद दिल में कोई भ्रम या हिचकिचाहट न हो।
5. स्वीकृति विश्वास का उच्चतम स्तर है।
परिणाम:
यह आयत यह स्पष्ट करती है कि विश्वास मौखिक स्वीकारोक्ति या बाहरी कार्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अल्लाह के रसूल (स) का पालन करने और उनके निर्णयों को पूरे दिल से स्वीकार करने से पूरा होता है। इससे यह भी साबित होता है कि पवित्र पैगंबर (स) की हाकेमियत अल्लाह की हाकेमियत का हिस्सा है।
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सूर ए नेसा की तफसीर