हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, इंतेज़ार करने वालो की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के बारे में बहुत कुछ कहा गया है; लेकिन संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस दौर में इंसान के कर्तव्य दो भागों में बंटे हुए हैं:
सामान्य कर्तव्य (आम फ़राइज़)
ये फ़र्ज, मासूमीन (अलैहिमुस्सलाम) की बातों में ग़ैबत के दौर के फ़र्ज के तौर पर याद किए गए हैं; लेकिन सिर्फ़ इस दौर के लिए नहीं हैं और हर दौर में अदा करना ज़रूरी है। शायद इनका ज़िक्र ग़ैबत के दौर के फ़र्ज के तौर पर ताक़ीद के लिए किया गया है।
इनमें से कुछ फ़र्ज इस तरह हैं:
1- हर दौर के इमाम को पहचानना
ऐसे फ़र्ज जो हर दौर में, खास तौर पर ग़ैबत के दौर में, इस्लामी तालीमात के पैग़म्बरों के फॉलोअर्स के लिए ताक़ीद के साथ कहा गया है, वो है उस वक्त के इमाम की पहचान और इल्म हासिल करना।
इमाम सादिक (अ) ने फ़रमाया:
إِعْرِفْ إِمَامَکَ فَإِنَّکَ إِذَا عَرَفْتَ لَمْ یَضُرَّکَ تَقَدَّمَ هَذَا الْأَمْرُ أَوْ تَأَخَّرَ एअरिफ़ इमामका फ़इन्नका इज़ा अरफ़ता लम यज़ुर्रोका तक़द्दमा हाज़ल अम्रो ओ तअख़्ख़रा
अपने इमाम को पहचानो, क्योंकि अगर तुमने अपने इमाम को पहचान लिया तो चाहे यह काम जल्दी हो या देर से, तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा। (काफी, भाग 1, पेज 371)
बिल्कुल, इमाम की पहचान और अल्लाह तआला की पहचान अलग नहीं है; बल्कि यह उसकी एक पहलू है; जैसे कि दुआ-ए-मारेफ़त में हम अल्लाह तआला से अर्जी करते हैं:
اللَّهُمَّ عَرِّفْنِی نَفْسَکَ فَإِنَّکَ إِنْ لَمْ تُعَرِّفْنِی نَفْسَکَ لَمْ أَعْرِفْ نَبِیکَ اللَّهُمَّ عَرِّفْنِی رَسُولَکَ فَإِنَّکَ إِنْ لَمْ تُعَرِّفْنِی رَسُولَکَ لَمْ أَعْرِفْ حجّتکَ اللَّهُمَّ عَرِّفْنِی حجّتکَ فَإِنَّکَ إِنْ لَمْ تُعَرِّفْنِی حجّتکَ ضَلَلْتُ عَنْ دِینِی अल्लाहुम्मा अर्रिफ़्नि नफ़्सका इन लम तोअर्रिफ़्नि नफ़्सका लम आरिफ़ नबीयका अल्लाहुम्मा अर्रिफ़्नि रसूलका फ़इन्नका इन लम तोअर्ऱिफ़्नि रसूलका लम आरिफ़ हुज्जतका अल्लाहुम्मा अर्रिफ़्नि हुज्जतका फ़इन्नका इन लम तोअर्रिफ़्नि हुज्जतका ज़ललतो अन दीनी
बारे इलाहा! मुझे अपने आप से परिचित करा, क्योंकि अगर तूने अपने आप से परिचित नहीं कराया तो मैं तेरे नबी को नहीं जान पाऊंगा। बारे इलाहा! अपने रसूल को पहचनवा, क्योंकि अगर तूने अपने रसूल को नहीं पहचनवाया तो मैं तेरी हुज्जत को नहीं पहचान पाऊंगा। बारे इलाहा! अपनी हुज्जत को पहचनवा, क्योंकि अगर तूने अपनी हुज्जत को नहीं पहचनवाया तो मैं अपने धर्म से भटक जाऊंगा। (काफ़ी, भाग 1, पेज 342)
2- अहले-बैत (अ) से मोहब्बत में मजबूत रहना
हर दौर और समय में हमारी एक अहम ज़िम्मेदारी है, रसूल अल्लाह (स) के अहले-बैत से, जो खुदा के दोस्तों के मकाम पर हैं, मोहब्बत और दोस्ती रखना। ग़ैबत-ए-अख़ीरा के दौरान, जब इमाम ग़ायब हैं, तो ऐसे कारण हो सकते हैं जो इंसान को इस अहम फ़र्ज़ से दूर ले जाएं; इसलिए रिवायतों में बताया गया है कि उन पाक नूरानि हस्तियो से मोहब्बत में लगातार बने रहना ज़रूरी है।
यह मोहब्बत अल्लाह तआला का हुक्म है। उस शख्स के दुनियावी जीवन शुरू करने से कई साल पहले, पाक लोगों ने उनसे मोहब्बत का इज़हार किया। रसूल-ए-अकरम (स), जो अशरफ़-ए-अनबिया और आख़िरी रसूल हैं, जब अपने आख़िरी वसी (इमाम) की बात करते हैं, तो बहुत इज़्ज़त से "बे बि वा उम्मी" यानी "मेरे वालेदैन उस पर क़ुर्बान" जैसे अज़ीम श्ब्दो का इस्तेमाल करते हैं:
بِأَبِی وَ أُمِّی سَمِیی وَ شَبِیهِی وَ شَبِیهُ مُوسَی بْنِ عِمْرَانَ عَلَیهِ جُیوبُ النُّور... . बेअबि व उम्मी समी व शबीही व शबीहोहू मूसा बिन इमरान अलैहे जोयूबुन नूरे ...
मेरे वालेदैन उस पर कुर्बान जो मेरा नाम और शक्ल रखता है, और मूसा बिन इमरान जैसा है, जिस पर नूर की परतें हैं। (किफ़ायतु असर, पेज 156)
इसी तरह, जब अली बिन अबी तालिब (अ) आख़िरी इमाम के दौर को देखते हैं, फ़रमाते हैं:
فَانْظُرُوا أَهْلَ بَیتِ نَبِیکُمْ فَإِنْ لَبَدُوا فَالْبُدُوا، وَ إِنِ اسْتَنْصَرُوکُمْ فَانْصُرُوهُمْ، فَلَیفَرِّجَنَّ اللَّهُ الْفِتْنَةَ بِرَجُلٍ مِنَّا أَهْلَ الْبَیتِ. بِأَبِی ابْنُ خِیرَةِ الْإِمَاءِ फ़नज़ोरू अहला बैते नबीयोकुम फ़इन लबदू फ़लबोदू, व ऐनिनतंसरोकुम फ़नसोरूहुम, फ़लयफ़र्रेजन्नल्लाहुल फ़ित्नता बरजोलिन मिन्ना अहलल बैते, बेअबि इब्नो ख़ैरतिल एमाए
अपने नबी के अहले-बैत को देखो; अगर वे चुप हो गए और घर में बैठे तो तुम भी चुप रहो, लेकिन अगर मदद मांगें तो उनकी सहायता करो; बेशक अल्लाह तआला हमारी औलाद में से किसी शख्स के ज़रिये फितना दूर करेगा। मेरे पिता की कुर्बानी उस पर जो बेहतरीन नौकर की संतान है। (बिहार उल अनवार, भाग 34, पेज 118)
ख़ल्लाद बिन सफ़्फ़ार ने इमाम सादिक़ (अ) से पूछा: "क्या क़ायम (इमाम महदी) दुनिया में आ चुका है?" उन्होंने फ़रमाया:
لَا وَ لَوْ أَدْرَکْتُهُ لَخَدَمْتُهُ أَیامَ حَیاتِی ला वलौ अदरकतोहू लख़दमतोहू अय्यामा हयाती
नहीं, अगर मैं उसे पाता तो अपनी ज़िन्दगी के दिन उसकी सेवा में बिताता। (बिहार उल अनवार, भाग 51, पेज 148)
और इमाम बाक़िर (अ) ने फ़रमाया:
أَمَا إِنِّی لَوْ أَدْرَکْتُ ذَلِکَ لَأَبْقَیتُ نَفْسِی لِصَاحِبِ هَذَا الْأَمْر अमा इन्नी लौ अदरकतो ज़ालेका लअबक़.तो नफ़सी लेसाहेबे हाज़ल अम्र
ज़रूर, अगर मैं उस दिन को पाता तो अपनी जान इस काम के मालिक के लिए समर्पित करता। (बिहार उल अनवार, भाग 52, पेज 243)
इन रिवायतों से साफ़ होता है किअहले बैत (अ) से, खासकर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत के प्रति मोहब्बत रखना, ग़ैबात के दौर में बहुत अहम और क़ीमती काम है।
3- खुदा की पारसाई और तक़वे की रिआयत
तक़वा ए इलाही हर वक्त जरूरी और फर्ज़ है; लेकिन ग़ैबत के दौर में खास हालात की वजह से इसकी अहमियत और बढ़ जाती है; क्योंकि इस दौर में कई ऐसे कारण होते हैं जो इंसानों को ग़लत राह पर ले जाते हैं और भटका देते है
इमाम सादिक़ (अ) ने फरमाया:
إِنَّ لِصَاحِبِ هَذَا اَلْأَمْرِ غَیْبَةً فَلْیَتَّقِ اَللَّهَ عَبْدٌ وَ لْیَتَمَسَّکْ بِدِینِهِ इन्ना लेसाहेबे हाज़ल अम्रे ग़ैबतन फ़लयत्तक़िल्लाहा अब्दुन वल यतामस्सक बेदीनेही
बिल्कुल इस काम के मालिक के लिए एक ग़ैबत है; इसलिए बन्दे को चाहिए कि वो खुदा से डरता रहे और अपने धर्म से मजबूती से बना रहे। (कमालुद्दीन, भाग 2, पेज 343)
4- मासूमीन (अ) के हुक्म और फरमान का पालन करना
क्योंकि सभी इमाम एक ही नूर (रोशनी) हैं, उनके हुक्म और फरमान भी एक ही मकसद की पूर्ति करते हैं; इसलिए किसी एक का पालन करने का मतलब सभी का पालन करना है। जब उनमे से कोई भी मौजूद नहीं होता, तो दूसरे इमामों के आदेश मार्गदर्शक की तरह होते हैं।
यूनुस बिन अब्दुर्रहमान ने मूसा बिन जाफ़र (अ) से पूछा:
يَا ابْنَ رَسُولِ اللَّهِ أَنْتَ الْقَائِمُ بِالْحَقِّ؟ या यब्ना रसूलिल्लाहे अंतल काएमो बिल हक़्क़े?
ऐ रसूल-अल्लाह के बेटे! क्या आप काइम-ए-हक़ हैं?"
उन्होंने जवाब दिया:
أَنَا الْقَائِمُ بِالْحَقِّ وَ لَکِنَّ الْقَائِمَ الَّذِی یُطَهِّرُ الْأَرْضَ مِنْ أَعْدَاءِ اللَّهِ عَزَّ وَ جَلَّ وَ یَمْلَؤُهَا عَدْلًا کَمَا مُلِئَتْ جَوْراً وَ ظُلْماً هُوَ الْخَامِسُ مِنْ وُلْدِی لَهُ غَیْبَةٌ یَطُولُ أَمَدُهَا خَوْفاً عَلَی نَفْسِهِ یَرْتَدُّ فِیهَا أَقْوَامٌ وَ یَثْبُتُ فِیهَا آخَرُونَ ثُمَّ قَالَ ع طُوبَی لِشِیعَتِنَا الْمُتَمَسِّکِینَ بِحَبْلِنَا فِی غَیْبَةِ قَائِمِنَا الثَّابِتِینَ عَلَی مُوَالاتِنَا وَ الْبَرَاءَةِ مِنْ أَعْدَائِنَا أُولَئِکَ مِنَّا وَ نَحْنُ مِنْهُمْ قَدْ رَضُوا بِنَا أَئِمَّةً وَ رَضِینَا بِهِمْ شِیعَةً فَطُوبَی لَهُمْ ثُمَّ طُوبَی لَهُمْ وَ هُمْ وَ اللَّهِ مَعَنَا فِی دَرَجَاتِنَا یَوْمَ الْقِیَامَةِ अनल क़ाएमो बिल हक़्क़े वलाकिन्नल क़ाएमल लज़ी योताहेरुल अर्ज़ा मिन आदाइल्लाहे अज़्ज़ा व जल्ला व यमलओहा अदलन कमा मोलेअत जौरन व ज़ुल्मन होवल ख़ामेसो मिन वुल्दी लहू ग़ैबतुन यतूलो अमदोहा ख़ौफ़न अला नफ़सेहि यरतद्दो फ़ीहा अक़वामुन व यस्बोतो फ़ीहा आख़ारूना सुम्मा क़ाला (अ) तूबा लेशीअतेना अल मुतामस्सेकीना बेहब्लेना फ़ी ग़ैबते क़ाएमेना अस साबेतीना अला मुवालातेना वल बराअते मिन आदाएना उलाएका मिन्ना व नहनो मिन्हुम क़द रज़ू बेना आइम्मतन व रज़ीना बेहिम शीअतन फ़तूबा लहुम सुम्मा तूबा लहुम व हुम वल्लाहे माअना फ़ी दरजातेना यौमल क़यामते
मैं हक़ के लिए काइम हूँ; लेकिन वह काइम जो ज़मीन को खुदा के दुश्मनों से साफ़ करेगा और न्याय से भर देगा, जैसे वह अन्याय से भरी है, वह मेरे बच्चों में पाँचवाँ है। उसकी ग़ैबत लंबी होगी क्योंकि वह अपने आप से खौफज़दा है। उस ग़ैबत में लोग पीछे हटेंगे और कुछ मजबूत रहेंगे।
फिर उन्होंने (अ) कहाःहमारे शिया जिनका हमारे रस्से से जमावड़ा ग़ैबत में भी कायम रहता है, जो हमारे साथ जुड़े रहते हैं और हमारे दुश्मनों से नफरत करते हैं, वे हमारे हैं और हम उनके हैं।उन्होंने आगे कहा:वे हमें अपनी इमामत के रूप में स्वीकार करते हैं और हम उन्हें अपने शिया के रूप में पसंद करते हैं। उन्हें खुशियाँ हों, और क़सम अल्लाह की, वे क़यामत के दिन हमारी साथियों में होंगे। (कमालुद्दीन व तमामुन नेअमा, भाग 2, पेज 361)
और ...
श्रृंखला जारी है ---
इक़्तेबास : "दर्स नामा महदवियत" नामक पुस्तक से से मामूली परिवर्तन के साथ लिया गया है, लेखक: खुदामुराद सुलैमियान
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