रविवार 17 अगस्त 2025 - 12:34
विलायत ए फ़क़ीह की दलीले (नक़ली दलीले)-भाग 2

हौज़ा /  जिसे फ़कीहों ने विलायत ए फ़क़ीह को साबित करने के लिए बयान किया है: उमर बिन हनज़ला की रिवायत है ।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार,  विलायत ए फ़क़ीह के सबसे महत्वपूर्ण सबूतों में रिवायते हैं। पिछले अंक में हमने इमाम ज़माना (अलैहिस्सलाम) की एक तौक़ीअ का जिक्र किया था। इस अंक में हम एक और नक्ली (हदीसी) दलील पर चर्चा करेंगे।

मक़बूला ए उमर बिन हनज़ला 1 

एक ऐसी हदीस है जिसका उपयोग फ़कीहों ने विलायत ए फ़क़ीह को साबित करने के लिए किया है। यह हदीस उमर बिन हनज़ला ने बयान की है।

उमर बिन हंज़ला ने इमाम सादिक़ (अ) से पूछा: "जब दो शिया लोगों के बीच कर्ज़ या विरासत के मामले में विवाद हो, तो क्या यह ठीक है कि वे अपनी लड़ाई और विवाद को उस शासक (ना हक़ सुल्तान) या उसके नियुक्त किए हुए जज (क़ाज़ी) के पास ले जाएं?"

इमाम सादिक़ (अ) ने जवाब मे फ़रमाया: "जो कोई भी ऐसे लोगों के पास न्याय के लिए जाता है, वह असल में एक ज़ालिम (ताक़तवर लेकिन गलत) के पास गया होता है और उसने उसे अपना जज मान लिया है। उनके द्वारा दिया गया जो फैसला होगा, चाहे उसका हक़ भी सही हो, वह गलत होगा, क्योंकि उस फैसले को ज़ालिम के आदेश पर दिया गया है। यानी उस व्यक्ति का आदेश, जिसे अल्लाह ने कहा है कि उस से नफ़रत करो। जैसा कि क़ुरआन में भी कहा गया है:"

"یرِیدُونَ أَنْ یتَحَاکَمُوا إِلَی الطَّاغُوتِ وَقَدْ أُمِرُوا أَنْ یکْفُرُوا بِهِ योरिदीनू अय यताहाकमू एलत ताग़ूते व क़द ओमेरू अय यकफ़ोरू बेहि वे चाहते हैं कि वे अपने मामलों का फैसला ज़ालिम के पास ले जाएं, जबकि उन्हें आदेश दिया गया है कि वे ज़ालिम की निंदा करें।" (सूरा ए नेसा 60)

उमर बिन हनज़ला कहते हैं: (जब मैंने देखा कि इमाम इतनी सख्ती से शिया लोगों को ज़ालिम शासक और उसके जज के पास मामलों को ले जाने से मना कर रहे हैं, तो मैंने पूछा:) "तो ऐसी स्थितियों में शिया लोग क्या करें?"

इमाम (अलैहिस्सलाम) ने फ़रमाया:
"یَنْظُرَانِ إِلَی مَنْ کَانَ مِنْکُمْ مِمَّنْ قَدْ رَوَی حَدِیثَنَا وَ نَظَرَ فِی حَلَالِنَا وَ حَرَامِنَا وَ عَرَفَ أَحْکَامَنَا فَلْیَرْضَوْا بِهِ حَکَماً فَإِنِّی قَدْ جَعَلْتُهُ عَلَیْکُمْ حَاکِماً فَإِذَا حَکَمَ بِحُکْمِنَا فَلَمْ یَقْبَلْهُ مِنْهُ فَإِنَّمَا اسْتَخَفَّ بِحُکْمِ اللَّهِ وَ عَلَیْنَا رَدَّ وَ الرَّادُّ عَلَیْنَا الرَّادُّ عَلَی اللَّهِ وَ هُوَ عَلَی حَدِّ الشِّرْکِ بِاللَّهِ. यंज़ोराने एला मन काना मिनकुम मिम्मन कद रवा हदीसना व नज़रा फ़ी हलालेना व हरामेना व अरफ़ा अहकामना फ़लयरजौ बेहि हकमन फ़इन्नी क़द जअलतहू अलैकुम हाकेमन फ़इज़ा हकमा बेहुकमेना फ़लम यक़बलहू मिन्हू फ़इन्नमा इस्तख़फ़्फ़ा बेहुकमिल्लाहे व अलैना रद्दा वर राद्दो अलैनर राद्दो अलल्लाहे व होवा अला हद्दिश शिरके बिल्लाह  वे अपने बीच से उस शख्स की तरफ देखे जो हमारी हदीसों को जानता हो, हमारे हलाल और हराम पर गौर करने वाला हो, और हमारे (अहले-बैत) फ़ैसलों को समझता हो। ऐसे व्यक्ति को वे अपना फ़ैसला करने वाला मानें, क्योंकि हमने उसे तुम्हारे ऊपर हाकिम (शासक) नियुक्त किया है। और जब वह हमारे हुक्म के अनुसार फैसला करे और उसे मानने से इनकार किया जाए, तो ऐसा करने वाला अल्लाह के हुक्म को हल्का समझता है और हमारा हुक्म अस्वीकार करता है। जो हमारा हुक्म अस्वीकार करता है, वह अल्लाह के हुक्म को अस्वीकार करता है और यह अल्लाह के साथ शिर्क के बराबर है।" (काफ़ी, भाग 1, पेज 67)

इस हदीस में कई महत्वपूर्ण और मूल बातें हैं:

1- विवादों में ज़ालिम शासक और उसके नियुक्त किए हुए जज के पास नहीं जाना चाहिए, क्योंकि क़ुरआन और हदीस ने इसे हराम बताया है।

2- इमाम सादिक़ (अ) ने कहा: "ऐसे मामलों में उस व्यक्ति के पास जाओ जो हमारी हदीसें सुनाता हो और हमारे फतवों (हुक्मों) को समझता हो।" यह स्पष्ट है कि फकीह या मुज्तहिद के अलावा कोई भी पूरी तरह से इन फतवों को नहीं जानता।

3- इस हदीस में सवाल लड़ाई-झगड़े का था, लेकिन इमाम सादिक ने अंतिम में एक सार्वभौमिक और व्यापक कानून बताया: "मैंने उसे तुम्हारे ऊपर हाकिम (शासक) बनाया है।" इसका मतलब है कि फकीह को शियो के बीच "हाकिम" यानी शासक के रूप में स्थापित किया गया है। हाकिम वह होता है जो दूसरों पर शासन करता है, उनका नेतृत्व करता है और उनके कामों का प्रबंधन करता है।

4- इमाम ने यह भी कहा कि यदि यह हाकिम, जो इमाम द्वारा नियुक्त है, कोई फ़ैसला करता है, तो उसे ज़रूर मानना चाहिए। अगर उसे नकारा जाए, तो इसका मतलब इमाम के फ़ैसले को अस्वीकार करना है, और इमाम के फ़ैसले का इनकार करना मतलब खुद अल्लाह के फ़ैसले का इनकार करना है। इस बयान के साथ इमाम ने फ़क़ीह को हर तरह के मामलों—व्यक्तिगत हो या सामाजिक, न्याय से जुड़ा हो या अन्य—में लोगों के लिए आखिरी हक़ीक़त और हुक़म देने वाला माना।

मशहूर शिया फ़क़ीह, मोहम्मद हसन नजफी जिन्हें साहिब जवाहर (मृत्यु 1266 हिजरी) 2 के नाम से जाना जाता है कहते हैं:

फ़क़ीह की नियुक्ति सभी मामलों में सामान्य है; जैसा कि जो अधिकार इमाम के पास है, वैसा ही फ़क़ीह के पास भी है। जैसा कि इमाम की हदीस से स्पष्ट होता है ("فَإِنِّی قَدْ جَعَلْتُهُ عَلَیْکُمْ حَاکِماً फ़इन्नी क़द जअलतोहू अलैकुम हाकेमन मैंने उसे तुम्हारे ऊपर हाकिम बनाया है"), इसका मतलब है कि फ़क़ीह न्याय और अन्य मामलों में व्यापक अधिकार रखने वाला है। जैसे कि इमाम ज़माना के फ़रमान में भी आया है: "मैने फ़ला व्यक्ति को तुम्हारे ऊपर हाकिम बनाया हैं।" इसका मतलब यह है कि जहाँ मैं हुक्मत करता हूँ, वहाँ फ़क़ीह भी हुकूमत करता है, जब तक कि कोई स्पष्ट दलील न हो जो इसे खारिज कर दे। (जवाहिर अल-कलाम, भाग 21, पेज 396-397)

मरहूम शेख़ अंसारी (मृत्यु 1281 हिजरी) कहते हैं:

"मकबूला उमर बिन हनज़ला में 'हाकिम' शब्द से हमारा मतलब पूरी ताक़तवर और नियंत्रण रखने वाला शासक है। जैसे इमाम ने कहा: "فَإِنِّی قَدْ جَعَلْتُهُ عَلَیْکُمْ حَاکِماً फ़इन्नी क़द जअलतोहू अलैकुम हाकेमन मैंने उसे तुम्हारे ऊपर हाकिम बनाया है" वैसे ही जैसे कोई सुल्तान अपने शहर के लोगों को कहे कि मैंने इस शख्स को तुम्हारा हाकिम बनाया है। इसका मतलब है कि वह हाकिम नागरिकों के सभी छोटे बड़े मामलों में पूर्ण रूप से आधिपत्य रखता है।" (क़ज़ा' व शहादत, शेख़ अंसारी, क्रमांक 22, पेज 8-9)

जो अब तक समझ आया है, उससे साफ है कि फ़क़ीह की विलायत इमाम मासूम से मिलती है। क्योंकि इमाम के फ़रमानो और उमर बिन हनज़ला की हदीस में फ़क़ीह को लोगों पर हुकूमत करने वाला हाकिम माना गया है। इसलिए फकीह को इमाम की नियुक्ति और आदेश के ज़रिए दरअसल सत्ता मिलती है।

हाँ, फकीह की सत्ता को स्वीकार करने और उसे अमल में लाने की संभावना, लोगों के उस सत्ता को स्वीकार करने पर निर्भर करती है। यानी लोगों की रुचि और मान्यता जरूरी है।

श्रृंखला जारी है ---

इक़्तेबास : किताब "नगीन आफरिनिश" से (मामूली परिवर्तन के साथ)

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१. उमर बिन हनज़ला इमाम बाक़िर और इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) के बहुत करीबी सहाबी और प्रसिद्ध हदीसकर्ता थे। ऐसे बड़े सहाबी जैसे ज़ुरारा, हिशाम बिन सालिम, सफ़वान बिन यह्या आदि ने उनसे हदीसें नक़ल की हैं। और "मकबूला" का मतलब ऐसी हदीस होती है जिसे विद्वानों ने स्वीकार किया हो।
२. यह महान न्यायविद शिया न्यायशास्त्र के स्तंभों में से एक हैं, जिन्होंने 43 खंडों में महान और अद्वितीय न्यायशास्त्रीय संग्रह "जवाहिर अल-कलाम" लिखा। यह पुस्तक कई वर्षों से मदरसों में शिया न्यायविदों के लिए स्रोत और संदर्भ रही है।
 

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