सोमवार 3 नवंबर 2025 - 08:45
हम अपने बच्चो को नेकी की तिलक़ीन और बुराई से किस प्रकार रोकें?

हौज़ा / यह बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि बच्चों की धार्मिक और नैतिक परवरिश की सबसे बुनियादी नींव “प्यार” है। माहिरों का कहना है कि माता-पिता अगर अपने बच्चों के साथ प्यार और आत्मीयता का रिश्ता बनाए रखें, तो वे उन्हें अच्छे आचरण और धार्मिक मूल्यों का पाबंद बना सकते हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों की परवरिश के इस मुश्किल और नाज़ुक दौर में माता-पिता की सबसे बड़ी चिंता यह होती है कि वे अपने बच्चों तक दीन और अच्छे संस्कार किस तरह पहुँचाएँ ताकि बच्चे में न जिद पैदा हो और न दूरी, बल्कि उसका ईमान मज़बूत हो और मां-बाप व बच्चों के बीच का रिश्ता और भरोसा बढ़े।

इसी विषय पर "हौज़ा न्यूज़" ने पारिवारिक और दीनी तालीम के माहिर हज्‍रत हज्‍जतुल इस्लाम अली असगर करीमख़ानी से बातचीत की।

सवाल: माता-पिता द्वारा बच्चों को "नेकी की हिदायत" देने और "बुराई से रोकने" की अहमियत क्या है?
जवाब: घर इंसान की पहली और सबसे मजबूत तालीमी जगह है। यहीं से बच्चे के सोच, ईमान और अख़लाक़ की बुनियाद रखी जाती है।
अगर माता-पिता घर में अच्छाई की बात प्यार और समझदारी से जारी रखें तो घर के सभी सदस्य एक-दूसरे के सुधार में मददगार बनते हैं।
अगर सही तरीक़े से तर्बियत दी जाए तो ज़्यादातर मौक़ों पर सख़्ती की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। और अगर कभी समझाना भी पड़े तो वह सलाहबद्ध तरीके से दिल में उतरता है।
इसलिए यह ज़रूरी है कि यह काम माता-पिता के ज़रिए और हालात को देखते हुए किया जाए, और अगर मामला मुश्किल लगे तो किसी भरोसेमंद आलिम या सलाहकार की मदद ली जाए।

सवाल: अगर माता-पिता में किसी गलत काम (जैसे पहनावे या मेल-जोल) को लेकर आपस में मतभेद हो तो क्या करें?
जवाब: सबसे पहला उसूल यह है कि माता-पिता के रवैये में एकरूपता हो। अगर पिता कुछ कहे और माँ कुछ और, तो बच्चा बात को गंभीरता से नहीं लेगा।
इसलिए पहले माता-पिता को अपने बीच बैठकर समझना चाहिए कि मसला महज़ पसंद-नापसंद का है या वाक़ई दीन का।
कई बार ये मतभेद सिर्फ अंदाज़ या सलीके का होता है, जैसे पिता चादर को बेहतर समझे, लेकिन बेटी ठीक तरीके से ओढ़ी हुई मंटो ठीक समझे। ऐसे में ज़रूरी है कि समझाने का तरीका अपनाया जाए, ज़बरदस्ती का नहीं।
अगर मामला वाक़ई दीन के उसूल से जुड़ा हो और बच्चा शरीअत की हदों को पार कर रहा हो, तो सबसे असरदार तरीका उसका दिल और दिमाग़ राज़ी करना है, न कि दबाव डालना।
नबी-ए-अकरम (स) ने भी लोगों को प्यार और नर्म दिली से दीनी रास्ते पर लाया, सख्त तरीक़े से नहीं। माता-पिता को भी वही तरीका अपनाना चाहिए।

सवाल: माता-पिता की निगरानी और फ़िक्र की हद क्या होनी चाहिए ताकि यह बच्चे की आज़ादी को नुकसान न पहुँचाए?
जवाब: इस्लामी तर्बियत के कुछ साफ़ सिद्धांत हैं — जब तक प्यार, सिखाने और सब्र के कदम पूरे नहीं किए गए हों, तब तक अम्र बिल मआरूफ़ (अच्छे काम का हुक्म) असरदार नहीं होता।
तर्बियत के बुनियादी उसूल ये हैं:

  1. प्यार

  2. सब्र

  3. मुनासिब निगरानी

  4. तदरीज (कदम दर कदम सिखाना)

उदाहरण के तौर पर, नमाज़ (सलात) की सिखावट इस्लाम में धीरे-धीरे दी गई है:
– पाँच साल में बच्चा दाएँ-बाएँ की पहचान सीखे।
– छह साल में वुज़ू (अज़ू धुलना) सिखाया जाए, नर्मी के साथ।
– सात साल में नमाज़ के रुक्न सिखाए जाएँ।
– आठ साल में अमल की प्रोत्साहना दी जाए।
देखिए, यह चार साल का धीरे-धीरे बढ़ने वाला तरीका है — बिना सख़्ती, सिर्फ़ मोहब्बत और सब्र से।
इसके उलट, अगर बच्चा दस साल तक कुछ न सीखे और अचानक कहा जाए "अब नमाज़ पढ़ो", तो वह स्वाभाविक रूप से विरोध करेगा।
इसलिए नसीहत तभी असर करती है जब पहले मोहब्बत, सब्र और तदरीज से बच्चे को तैयार किया गया हो।

सवाल: ऐसा क्या किया जाए कि बच्चा भलाई सिर्फ़ अल्लाह के लिए करे, न कि डर या इनाम के लोभ में?
जवाब: यही असली मकसद है — कि अच्छे काम करने की नीयत अल्लाह की रज़ामंदी के लिए हो। यह मकसद तभी पूरा होता है जब माता-पिता बच्चों से प्यार भरा रिश्ता बनाए रखें और जल्दबाज़ी न करें।
शुरुआत में बच्चे माता-पिता की खुशी के लिए अच्छे काम करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे वही अमल उनके दिल में "अल्लाह के लिए" करने का जज़्बा पैदा करता है।
हदीस में आया है कि इमाम मूसा काज़िम (अ) ने फ़रमाया: "अगर बेटे को तनबीह करनी हो तो उससे कुछ देर नाराज़ हो जाओ, मगर लंबी नाराज़ी मत रखो।"
मतलब कि डांटना भी प्यार के दायरे में होना चाहिए। अगर प्यार न हो तो नाराज़गी असर नहीं डालती, बल्कि बच्चे के लिए आराम बन जाती है।

अंत में याद रखना चाहिए कि इंसान को खुद अपने चुने फैसले करने की आज़ादी है। माता-पिता की ज़िम्मेदारी प्रयास तक है — नतीजा ख़ुदा के हाथ में है।
कुरआन में हज़रत नूह (अ) और उनके बेटे की मिसाल भी इसी बात का सबूत है कि पैग़म्बर की भी तर्बियत हर दिल पर असर नहीं डालती।

इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वो अपनी पूरी कोशिश ईमानदारी से करें और बाकी अल्लाह पर छोड़ दें।

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