हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, मौलाना शेख़ अली हुसैन क़ैसर मुबारकपुरी इबने शेख़ अब्दुल मजीद बतारीख़ 8 मार्च 1908 ई॰ में सरज़मीने मुबारकपुर ज़िला आज़मगढ़ सूबा उत्तरप्रदेश पर पैदा हुए, आपका तआल्लुक़ मुबारकपुर के इल्मी ख़ानवादे से था।
आपने इब्तेदाई तालीम अपने वालिद से हासिल की उसके बाद बनारस का रुख़ किया और मदरसे जवादिया में रहकर जय्यद असातेज़ा से कस्बे फ़ैज़ किया यहाँ तक की फखरूल अफ़ाज़िल की सनद हासिल की, फिर लखनऊ का रुख़ किया और सुलतानुल मदारिस में जय्यद असातेज़ा की ख़िदमत में ज़ानु ए अदब तै किए कि जिनमें से: बाक़ेरूल उलूम सय्यद मोहम्मद बाक़िर, आयतुल्लाह अबुल हसन नक़वी, आयतुल्लाह सय्यद सिब्ते हसन, मौलाना सय्यद मोहम्मद रज़ा फ़लसफ़ी, मौलाना आलिम हुसैन अदीब, मौलाना सय्यद मोहम्मद हादी और हकीम मुज़फ्फ़र हुसैन के नाम सरे फेहरिस्त हैं।
सुलतानुल मदारिस से सदरुल अफ़ज़िल और मदरसातुल वाएज़ीन से वाइज़ की सनद दरयाफ्त की आपने रिवायति कोर्स को अपनी इल्मी सलाहियत की बिना पर वक़्त से मुकम्मल कर लिया था, मौलाना अली हुसैन को अलवाइज़ मजल्ले का मुदीर मुंतखब किया गया जिसको आपने अपनी हिकमते अमली से बामे उरूज़ पर पोंहचाया दिया।
तालीम से फरागत के बाद मौलाना अली हुसैन ने मुंबई का रुख किया और वहाँ खिदमते खल्क़ में मसरूफ़ हो गये, मोसूफ़ रात की तारीकी में लोगों की नज़रों से पोशीदा होकर गरीब लोगों को ज़रूरयाते ज़िंदगी मुहय्या करते थे जिसके सबब गरीब लोग आपको नासिर के नाम से याद करते थे।
मौलाना फन्ने मुनाज़ेरा में महारत रखते थे मुबारकपुर में कई बार लखनऊ में एक यादगार मुनाज़ेरा में आपको फ़तेह नसीब हुई इसी वजह से आपको “रईसुल मुनाज़ेरीन” के लक़ब से सरफराज़ किया गया, आप लोगों के महबूबे नज़र थे खिदमते खल्क़ के पेशे नज़र अमृतसर के लोगों की दावत पर अमृतसर में भी तबलीग के फ़राइज़ अंजाम दिये।
मौलाना अली हुसैन मुबारकपुर के मोमेनीन ने होज़ा ए इलमिया बाबुल इल्म में तदरीस के दावत दी तो अपने मोमेनीन की दावत को कुबूल किया और बाबुल इल्म में तदरीसी फ़रीजा ब हुसनो ख़ूबी अंजाम दिया, मौलाना की इल्मी सलाहियत और वालेहाना मोहब्बत को देखते हुए आपको प्रिंसपल के ओहदे से सरफराज़ किया गया, मौलाना ने बाबुल इल्म की तरक़्क़ी के लिये अंथक कोशिशें कीं और इंतेज़ामी उमूर, दर्स व तदरीस हास्टल लाइब्रेरी और दीगर शोबों में नुमाया कम अंजाम दिये।
मौलाना अली हुसैन ने अपनी तमाम मसरूफ़यात के बावजूद अपना अक्सर वक़्त तारीख़, तफ़सीर, फलसफ़ा, कलाम और सीरत जैसी किताबों के मुतालेए में गुज़ारते थे कसरते मुतालेआ का नतीजा था की आप हर मोज़ू पर सैरे हासिल गुफ़्तगू फ़रमाते थे, आपकी गुफ़्तगू में इतनी तासीर होती थी की जिसको एक बार समझा दिया वो आपके सामने सरे तसलीम खम कर देता था।
महल्ला पुरा खिज़्र मुबारकपुर में सबसे पहले “खादेमाने इस्लाम” के बानी मौलाना अली हुसैन ही थे, ये मकतब इब्तेदा में मौलाना मोसूफ़ के मकान पर शुरू हुआ जिसमें मौलाना अली हुसैन खुद तदरीस के फराइज़ अंजाम देते थे, इस मकतब की तरक़्क़ी के पेशे नज़र मौलाना अली हुसैन ने मुबारकपुर के सात मक़ामात पर इदारए खादेमाने इस्लाम के शोबे तशकील दिये जिनमें से: इमामबारगाह हुसैनया, इमामबारगाह क़सरे हुसैनी, इमामबरगाह वफ़ादारे हुसैनी , इमामबारगाह दरबारे हुसैनी, और इमामबारगाह अलमदारे हुसैनी वगैरा के नाम सरेफेहरिस्त हैं, जिनमें तक़रीबन 800 तुल्लाब व तालेबात ज़ेरे तालीम थे, इदारा ए खादेमाने इस्लाम की तरवीज व तरक़्क़ी के लिए मौलाना अली हुसैन और मौलाना मोहम्मद असकारी ने इस इदारे के लिये इसी महल्ले ”पुरा खिज़्र” में एक मकान ख़रीदा जिसमे दर्स व तदरीस का सिलसिला बा क़ाएदा तोर पर शुरू किया, उसके अलावा तालेबात को खुद कफ़ील बनाने के लिये इदारए खादेमाने इस्लाम में सिलाई मशीन ख़रीद कर लाई गईं और वहीं माहिर लेडीज़ टेलर के ज़रिये तालेबात को सिलाई का कम सिखाया गया।
आपकी खुसुसियत ये भी थी की आपने कभी किसी मनसब के लिये कोशिश नहीं और ना ही किसी इख्तेलाफ़ की नज़्र हुए, मोसूफ़ ने अपने शख्सियत के एहसास को मफ़ाद परस्तों की सूली पर नहीं चढ़ने दिया बल्कि समाज की इसलाह से सरोकार रखते थे यही वजह है की लोग आज भी उनको याद करते हैं।
मौलाना अली हुसैन ने तमामतर मसरूफ़ियात के बावजूद क़लम हाथ से नहीं छोड़ा और अपनी आइंदा नस्ल के लिए बहुत सी किताबें विरसे के तौर पर छोडीं जिनमें से: मनाक़ेबुल हसनैन, मसीही मुनाज़ेरा, उसूले मुदर्रिस, मनाज़ेरा ए हुसैनया, दर्से मुफ़स्सल, मखज़ने इल्म, फ़न्ने तदरीस, तारीखे मदरसे बाबुल इल्म, हुसैनी शायरी और वफ़ाते क़ादयानी वगैरा के नाम सरेफेहरिस्त हैं।
मोसूफ़ एक कामयाब मुबाल्लिग भी थे लिहाज़ा सन 1958ई॰से 1990ई॰ तक अफ्रीक़ा के मुखतलिफ़ ममालिक मसलन तंज़ानया, योगेंडा, मेडागासकर और कीनया वगैरा में खिदमते खल्क़ अंजाम दी और उन ममालिक के अलावा मारेशिस में मुसलसल 10 बरस मुक़ीम रहकर लोगों को ज़ेवरे अखलाक़े मोहम्मदी से मुज़य्यन किया।
मौलाना अली हुसैन एक अच्छे ज़ाकिर होने के साथ साथ बहतरीन शायर भी थे, आपने फ़न्ने शायरी में बड़े जौहर दिखाए इब्तेदा में अपना तखल्लुस हुसैनी रखा मगर अपने उस्ताद के हुक्म से तबदील करके “क़ैसर” तखल्लुस कर लिया और ता हयात मैदाने शायरी में इसी तखल्लुस से पहचाने गये।
नमूने के तौर पर चंद अशआर पेशे ख़िदमत हैं:
क़िस्सा ए इबलीसो आदम और जन्नत की ज़मीं
जिस जगह शैतान नज़र आता था मारे आसतीं
ये असर आबिद में तेरी तरबियत का है हुसैन
कह गया दुश्मन भी आख़िर अंता जैनुल आबेदीन
आखिरकार ये इलमो अदब का चमकता आफ़ताब 6 नवंबर सन 1995 ई॰ पीर की शब में सरज़मीने मुबारकपुर ज़िला आज़मगढ़ पर गुरूब हो गया चाहने वालों का मजमा आपके दौलतकदे पर उमड़ पड़ा और गुस्ल व कफ़न के बाद औलमा, दनिशवरान और मोमेनीन की मौजूदगी में मुबारकपुर के “बनरही बाग़” नामी क़ब्रिस्तान में सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया
बड़े शौक़ से सुन रहा था ज़माना
हमीं सो गये दास्तां कहते कहते
माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-7पेज-216 दानिश नामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2021
ईस्वी।