हौज़ा न्यूज़ एजेंसी
بسم الله الرحـــمن الرحــــیم बिस्मिल्लाह अल-रहमान अल-रहीम
وَمَا لَکُمْ لَا تُقَاتِلُونَ فِی سَبِیلِ اللَّهِ وَالْمُسْتَضْعَفِینَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاءِ وَالْوِلْدَانِ الَّذِینَ یَقُولُونَ رَبَّنَا أَخْرِجْنَا مِنْ هَٰذِهِ الْقَرْیَةِ الظَّالِمِ أَهْلُهَا وَاجْعَلْ لَنَا مِنْ لَدُنْکَ وَلِیًّا وَاجْعَلْ لَنَا مِنْ لَدُنْکَ نَصِیرًا वमा लकुम ला तोक़ातेलूना फ़ी सबी लिल्लाहे वल मुस्तज़अफ़ीना मिनर रेजाले वन नेसाए वल विलदानिल लज़ीना यक़ूलूना रब्बना अखरिज्ना मिन हाज़ेहिल करयतिज़ ज़ालेमे अहलोहा वजअल लना मिन लदुनका वलीयन वज्अल लना मिन लदुनका नसीरा (नेसा 75)
अनुवाद: और तुम्हें क्या हो गया है कि तुम अल्लाह की राह में और उन कमज़ोर मर्दों, औरतों और बच्चों के लिए नहीं लड़ते जो कमज़ोर रखे गए हैं और जो बराबर दुआ करते हैं कि ख़ुदा हमें इस गाँव से बचा ले, इसके बाशिंदे ज़ालिम हैं और अपनी ओर से हमारे लिये एक अभिभावक और एक सहायक नियुक्त करो।
विषय:
अल्लाह की राह में जिहाद और मजलूमों का समर्थन: विश्वासियों की सामूहिक जिम्मेदारी
पृष्ठभूमि:
यह आयत सूरह निसा की आयत संख्या 75 है जो उस समय की स्थिति का वर्णन करती है जब मक्का के उत्पीड़ित मुसलमानों पर काफिरों द्वारा अत्याचार किया जा रहा था। वे अल्लाह से दुआ करते थे कि उन्हें इस ज़ुल्म से बचाये और उनके लिए एक मददगार और संरक्षक भेजे। आयत में उन मुसलमानों को डांटा जा रहा है जो मजलूमों के समर्थन और उनकी आजादी के लिए कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठा रहे थे.
तफ़सीर:
1. अल्लाह की राह में जिहाद को बढ़ावा: इस आयत में ईमानवालों से पूछा जा रहा है कि वे मज़लूमों का साथ क्यों नहीं देते और अल्लाह की राह में जिहाद क्यों नहीं करते, जबकि यह उनकी ज़िम्मेदारी है।
2. मजलूमों की हालत: आयत में उन कमजोर पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का जिक्र है जो जालिमों के हाथों जुल्म सह रहे हैं और अल्लाह से निजात की दुआ कर रहे हैं।
3. उत्पीड़ितों की प्रार्थना: उत्पीड़ितों की प्रार्थना इस बात का प्रमाण है कि वे अल्लाह पर विश्वास करते हैं और एक उद्धारकर्ता की आशा करते हैं जो उनका संरक्षक और सहायक होगा।
महत्वपूर्ण बिंदु:
1. अल्लाह की राह में जिहाद न सिर्फ अपने लिए बल्कि दुनिया के मजलूमों के लिए भी जरूरी है।
2. मज़लूमों की दुआ और उनकी पुकार अल्लाह की ओर से एक निशानी है जो ईमान वालों को कार्रवाई के लिए बुलाती है।
3. सामूहिक जिम्मेदारी उत्पीड़क के खिलाफ खड़ा होना और उत्पीड़ित का समर्थन करना है।
4. अत्याचारियों के विरुद्ध जिहाद अल्लाह की सेवा और न्याय स्थापित करने का एक साधन है।
परिणाम:
यह आयत ईमानवालों को उनके कर्तव्य की याद दिलाती है कि वे जुल्म के खिलाफ चुप न रहें बल्कि अल्लाह की राह में जिहाद द्वारा सताए गए लोगों की आजादी और अधिकारों के लिए व्यावहारिक कदम उठाएं।
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सूर ए नेसा की तफसीर
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