हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत इमाम अली इब्नुल हुसैन अलैहिस्सलाम के कई उपनाम थे जिनमें सज्जाद, सैयदुस्साजेदीन और ज़ैनुल आबेदीन प्रमुख हैं इनकी इमामत का काल करबला की घटना और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद शुरू हुआ। इस काल की ध्यान योग्य विशेषताएं हैं।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने इस काल में अत्यंत अहम और निर्णायक भूमिका निभाई। करबला की घटना के समय उनकी उम्र 24 साल थी और इस घटना के बाद वे 34 साल तक जीवित रहे। इस अवधि में उन्होंने इस्लामी समाज के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी संभाली और विभिन्न मार्गों से अत्याचार व अज्ञानता के प्रतीकों से मुक़ाबला किया।
इस मुक़ाबले के दौरान इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के चरित्र में जो बात सबसे अधिक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है वह करबला के आंदोलन की याद को जीवित रखना और इस अमर घटना के संदेश को दुनिया तक पहुंचाना है। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम को वर्ष 95 हिजरी में 25 मुहर्रम को उस समय के (बनी उमय्या) उमवी शासक वलीद इब्ने अब्दुल मलिक के आदेश पर एक षड्यंत्र द्वारा ज़हर देकर शहीद कर दिया गया।
कभी कभी एक आंदोलन को जारी रखने और उसकी रक्षा करने की ज़िम्मेदारी, उसे अस्तित्व में लाने से अधिक मुश्किल व संवेदनशील होती है। ख़ुदा की इच्छा थी कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम करबला की घटना के बाद जीवित रहें ताकि पूरी सूझ-बूझ व बुद्धिमत्ता के साथ अपने पिता इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन का नेतृत्व करें।
उन्होंने ऐसे समय में इमामत का पद संभाला जब बनी उमय्या के शासकों के हाथों धार्मिक मान्यताओं में फेरबदल कर दिया गया था और अन्याय, सांसारिक मायामोह और संसार प्रेम फैला हुआ था। उमवी शासन धर्मप्रेम का दावा करता था लेकिन इस्लामी समाज धर्म की मूल शिक्षाओं से दूर हो गया था।
सच्चाई यह थी कि उमवी, धर्म का चोला पहन कर इस्लामी मान्यताओं को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने आशूरा की घटना को अपने हित में इस्तेमाल करने और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व उनके साथियों के आंदोलन को विद्रोह बताने की कोशिश की।
इन परिस्थितियों में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने दायित्वों को दो चरण में अंजाम दिया, अल्पकालीन चरण और दीर्घकालीन चरण।
अल्पकालीन चरण: इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत और इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम व उनके अन्य परिजनों की गिरफ़्तारी के तुरंत बाद आरंभ हुआ था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के दायित्व का दीर्घकालीन चरण उनके दमिश्क़ से मदीना वापसी के बाद शुरू हुआ। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद इमाम सज्जाद और हज़रत ज़ैनब समेत उनके परिजनों को उमवी शासन के अत्याचारी सैनिकों ने गिरफ़्तार कर लिया था।
उन्हें गिरफ़्तार करने के बाद कूफ़ा नगर लाया गया जहां इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने लोगों के बीच इस प्रकार ख़ुत्बा दिया कि उसी समय वहां के लोगों की आंखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे और उन्होंने इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से माफ़ी मांगी।
इमाम ने उनके जवाब में कहा था: ऐ लोगों! मैं हुसैन का बेटा अली हूं। उसका बेटा जिसका तुमने सम्मान न किया। ऐ लोगों! ख़ुदा ने हम पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों को अच्छी तरह से आज़माया है और कल्याण, न्याय व अल्लाह का भय व पवित्रता को हमारे अस्तित्व में रखा है। क्या तुमने मेरे पिता को पत्र नहीं लिखा था और उन्हें आज्ञापालन का वचन नहीं दिया था? लेकिन इसके बाद तुमने धोखा दिया और उनसे लड़ने के लिए उठ खड़े हुए, कितने बुरे लोग हो तुम!
इमाम अली इब्नुल हुसैन ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की बातें आशूरा के आंदोलन और लोगों के मन व विचारों के बीच एक पुल के समान थीं। उन संवेदनशील परिस्थितियों में यद्यपि मर्म स्पर्षी दुख इमाम सज्जाद को तड़पा रहे थे लेकिन वे अच्छी तरह जानते थे कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सत्यता को लोगों के समक्ष बयान करने का सबसे प्रभावी मार्ग, उमवी शासकों की पोल खोलना है
ताकि सोई हुई आत्माओं को जगाया जा सके और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व उनके साथियों के ख़िलाफ़ उमवियों के झूठे व विषैले प्रोपेगंडों को नाकाम बनाया जा सके। बंदि बनाए जाने के दिन इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अन्य परिजनों के लिए बहुत कड़े थे। इस दौरान हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन और हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का अस्तित्व अन्य बंदियों के लिए बहुत बड़ा सहारा था।
करबला के आंदोलन के संदेशवाहक इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के जीवन के अहम दिनों में से एक वर्तमान सीरिया की उमवी मस्जिद में उनका ठोस ख़ुत्बा भी है। जब उन्हें गिरफ़्तार करके मुआविया के पुत्र यज़ीद लानती के दरबार में लाया गया तो उन्होंने देखा कि यज़ीद मलऊन जीत के नशे में चूर है।
यज़ीद सोच रहा था कि हालात उसके हित में हैं लेकिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम पूरे साहस के साथ मिम्बर पर गए और उन्होंने एक ज़बरदस्त ख़ुत्बा दिया। उन्होंने कहाः ऐ लोगो! ख़ुदा ने हम पैग़म्बर के परिजनों को ज्ञान, धैर्य, दानशीलता, महानता, शब्दालंकार और साहस जैसी विशेषताएं प्रदान की हैं और ईमानवालों के दिलों में हमारा प्रेम रखा है।
ऐ लोगों! जो मुझे नहीं पहचानता मैं उसे अपना परिचय देता हूं। इसके बाद उन्होंने अपने आपको पैग़म्बर इस्लाम (स) का नाती बताया और कहाः मैं सबसे उत्तम इंसान का पुत्र हूं, मैं उसका बेटा हूं जिसे मेराज की रात मस्जिदुल हराम से मस्जिदुल अक़्सा ले जाया गया।
फिर उन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शौर्य और पैग़म्बर की सुपुत्री हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) के गुणों व विशेषताओं का उल्लेख किया और फिर अपने पिता इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बारे में कहा: मैं उसका बेटा हूं जिसे प्यासा शहीद कर दिया गया। उसे अत्याचार के साथ ख़ून में नहला दिया गया और उसका शरीर करबला की ज़मीन पर गिर पड़ा। उसकी पगड़ी और वस्त्र को चुरा लिया गया जबकि आसमान पर फ़रिश्ते रो रहे थे।
मैं उसका बेटा हूं जिसके सिर को भाले पर चढ़ाया गया और उसके परिजनों को बंदी बनाकर इराक़ से शाम (सीरिया) लाया गया। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की बातें इतनी झिंझोड़ देने वाली थीं कि यज़ीद और उमवी शासन हिलकर रह गया और उन्हें करबला के आंदोलन की उफ़नती हुई लहरों में अपना तख़्त डूबता हुआ महसूस हुआ। यही कारण था कि उन्हों ने जल्द से जल्द बंदियों के कारवां को मदीना लौटाने का फ़ैसला किया।
मदीने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की वापसी के बाद उनका दायित्व एक नए चरण में पहुंच गया। उन्होंने इस चरण में दीर्घकालीन लक्ष्यों को हासिल करने की कोशिश की। उस समय की अनुचित परिस्थितियों के दृष्टिगत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने लोगों की धार्मिक आस्थाओं को सुधारने और उन्हें मज़बूत बनाने की कोशिश की। इसी कारण उन्होंने अपनी इमामत के 34 वर्षीय काल में अत्यंत मूल्यवान धार्मिक शिक्षाएं अपनी यादगार के रूप में छोड़ीं और ज्ञान व सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
करबला की घटना के बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का एक मूल्यवान काम, अत्यंत समृद्ध दुआओं का वर्णन है। उनकी यह दुआएं सहीफ़ए सज्जादिया नामक एक पुस्तक में एकत्रित कर दी गई हैं।
इस किताब में बंदा अपने पालनहार से अपने दिल की बातें करता है लेकिन अगर इन दुआओं को गहरी नज़रों से देखा जाए तो पता चलता है कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने दुआ के माध्यम से जीवन, सृष्टि, आस्था संबंधी मामलों और व्यक्तिगत व सामूहिक नैतिकता को बड़ी गहराई से बयान किया है बल्कि इन दुआओं के ज़रिए उन्होंने कुछ राजनैतिक मामलों की भी समीक्षा की है।
सहीफ़ए सज्जादिया, इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के ज्ञान व अध्यात्म की महानता के एक आयाम को समझने का उत्तम माध्यम है। हम इस मूल्यवान किताब को जितना अधिक ध्यान से पढ़ते जाएंगे उतना ही नए नए क्षितिज हमारे सामने खुलते चले जाएंगे। उन्होंने दुआ के सांचे में ख़ुदा के आदेशों और इस्लामी शिक्षाओं के प्रसार के मार्ग में बहुत बड़े बड़े क़दम उठाए हैं जिस पर विद्वान और बुद्धिजीवी आश्चर्यचकित हैं।
एक वरिष्ठ धर्मगुरू शैख़ मुफ़ीद कहते हैं: सुन्नी धर्मगुरुओं ने इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम से इतने अधिक ज्ञान हासिल किए हैं कि जिन्हें गिना नहीं जा सकता। दुआओं, उपदेशों और क़ुरआने मजीद की हलाल व हराम बातों के बारे में उनसे बहुत अधिक हदीसें उद्धरित की गई हैं। अगर हम उनके बारे में विस्तार से बात करना चाहेंगे तो फिर बात बहुत लंबी हो जाएगी।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम को अपनी इमामत की पूरी अवधि में उमवी शासकों के द्वेष व शत्रुता का सामना रहा। उनमें से हर एक शासक ने इस्लाम के इस प्रकाशमान दीपक को बुझाने की कोशिश की। 25 मुहर्रम, 95 हिजरी में उनमें से एक दुष्ट शासक की कोशिशें सफ़ल हो गईं और वलीद बिन अब्दुल मलिक बिन मरवान लानती ने उन्हें ज़हर के माध्यम से शहीद करवा दिया।