۱۱ تیر ۱۴۰۳ |۲۴ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 1, 2024
اربعین حسینی در کربلا

हौज़ा/ बहुत सारी हादसे जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की अज़मत को बयांन करती है जो इमामों से नकल हुई हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,बहुत सारी हादसे जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की अज़मत को बयांन करती है जो इमामों से नकल हुई हैं।

हज़रत पैग़म्बरे इस्लाम (स.ल.व.व.) ने अपने दोनों नवासों हज़रत इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बारे में यह प्रसिद्ध वाक्य फ़रमायाः

_اَلْحَسَنُ وَ الْحُسَیْنُ سَیِّدا شَبابِ أَهْلِ الْجَنَّةِ _

  हसन और हुसैन जन्नत के जवानों के सरदार हैं।(1)

  एक दूसरी हदीस में बयान हुआ है किः कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) के साथ एक मेहमानी में गये, आप (स) इस सारे लोगों से आगे आगे चल रहे थे। आपने रास्ते में इमाम हुसैन (अ) को देखा। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने चाहा कि अपनी गोद में उठा लें, लेकिन हुसैन (अ) एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ भाग जाते थे, पैग़म्बर (स) यह देखकर मुस्कुराए और आप को गोद में उठा लिया, एक हाथ को आप के सर के पीछे और दूसरे हाथ को ठुड्डी के नीचे लगाया और अपने पवित्र होठों को हुसैन के होठों पर रखा और चूमा फिर फ़रमायाः

«حُسَینٌ مِنّی وَ أَنَا مِنْ حُسَین أَحَبَّ اللهُ مَنْ أَحَبَّ حُسَیناً»؛

  हुसैन मुझ से हैं और मैं हुसैन से हूँ जो भी हुसैन को दोस्त रखता है, अल्लाह उसको दोस्त रखता है।(2)

पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी और इमाम हुसैन (अ.स.)

  शिया और सुन्नी रिवायतों में बयान हुआ है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी जनाबे उम्मे सलमा कहती हैं: एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) आराम कर रहे थे कि मैंने देखा इमाम हुसैन (अ) ने प्रवेश किया और पैग़म्बर (स) के सीने पर बैठ गये, पैगम़्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः शाबाश मेरी आंखों के नूर, शाबाश मेरे दिल के टुकड़े, जब हुसैन (अ) को पैग़म्बर (स) के सीने पर बैठे बहुत देर हो गई तो मैंने स्वंय से कहा कि शायद पैगम़्बर (स) को परेशानी हो रही हो और मैं आगे बढ़ी ताकि हुसैन को आप के सीने से उतार दूँ। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः उम्मे सलमा! जब तक मेरा हुसैन स्वंय जब तक चाहता है उसे मेरे सीने पर बैठने दो और जान लो कि जो भी एक बाल के बराबर भी मेरे हुसैन को दुख दे वह ऐसा ही है जैसे उसने मुझे दुख दिया हो।

  जनाबे उम्मे सलमा कहती है: मैं घर से बाहर चली गई और जब वापस आई और पैग़म्बर (स) के कमरे में पहुँची तो मैंने देखा कि पैग़म्बर रो रहे हैं, मुझे बहुत आश्चर्य हुआ! और मैंने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! अल्लाह कभी आप को न रुलाए, आप क्यों दुखी हैं? मैंने देखा कि पैग़म्बर (स) के हाथ में कोई चीज़ है और उसको देख रहें हैं और रो रहे हैं। मैं आगे गईं तो देखा एक मुट्ठी ख़ाक़ आपके हाथ में है। मैंने सवाल किया: ऐ अल्लाह के रसूल! यह कौन सी ख़ाक है जिसने आपको इतना दुखी कर दिया। पैग़म्बर ने फ़रमायाः ऐ उम्मे सलमा! अभी जिब्रईल मुझ पर नाज़िल हुए और कहा कि यह करबला की मिट्टी है और यह मिट्टी वहां की है जहां आप का बेटा हुसैन दफ़्न होगा। ऐ उम्मे सलमा! इस मिट्टी को लो और एक शीशी में रख दो, जब भी देखों कि इस ख़ाक का रंग ख़ून हो गया है, तब समझ जाना कि मेरा बेटा हुसैन शहीद कर दिया गया है।

  जनाबे उम्मे सलमा कहती हैं: मैंने उस ख़ाक को पैग़म्बर (स) से ले लिया जिसमें से एक अजीब तरह की सुगंध आ रही थी, जब इमाम हुसैन (अ) ने करबला की तरफ़ यात्रा आरंभ की तो मैं बहुत परेशान थी और हर दिन उस ख़ाक को देखती थी, यहां तक कि एक दिन मैंने देखा कि पूरी ख़ाक ख़ून में बदल गई है और मैं समझ गई इमाम हुसैन शहीद कर दिये गये हैं। इसलिये मैंने रोना शुरू कर दिया और उस दिन रात तक हुसैन (अ) पर रोती रही, उस दिन मैंने खाना नहीं खाया, यहां तक की रात हो गई और मैं दुख के साथ सो गई। मैंने स्वप्न में पैग़म्बरे इस्लाम (स) को देखा कि वह आये हैं लेकिन आप का सर और चेहरा मिट्टी से अटा है! मैंने आपके चेहरे से मिट्टी और ख़ाक को साफ करना शुरू कर दिया और कहने लगी: ऐ अल्लाह के रसूल! मैं आप पर क़ुरबान, यह मिट्टी और ख़ाक कहा की है जो आप पर लगी है? पैग़म्बर ने फ़रमायाः ऐ उम्मे सलमा! अभी अभी मैंने अपने हुसैन को दफ़्न किया है!(3)

हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स) और इमाम हुसैन (अ.स.)

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से रिवायत है कि क़यामत के दिन हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) नूर के एक गुंबद में बैठी होंगी। उसी समय इमाम हुसैन (अ) महशर में आएंगे, इस हालत में कि उनका कटा सर उनके हाथ में होगा, फ़ातिमा (स) इस दृश्य को देखकर चीख़कर रोती हैं और गिर जाती है और सारे नबी और दूसरे लोग इस दृश्य को देखकर रोने लगते हैं फिर इमाम हुसैन (अ) के हत्यारे आएंगे और उन पर मुक़द्दमा चलेगा और फिर उनको भयानक अज़ाब दिया जाएगा...(4)

हज़रत अली (अ) और इमाम हुसैन (अ)

  एक दिन हज़रत अली (अ) करबला की तरफ़ से गुज़रे और फ़रमायाः

قال على (عليه السلام): هذا... مصارع عشاق شهداء لا يسبقهم من كان قبلهم و لا يلحقهم من كان بعدهم.

  यह आशिक़ों की क़त्लगाह और शहीदों के शहीद होने का स्थान है पर वह शहीद जिनके बराबर ना पिछले शहीद हो सकते हैं और ना आने वाले शहीद हो सकेंगे।(5)

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और रोना

امام حسين عليه السلام: أنَا قَتيلُ العَبَرَةِ لايَذكُرُني مُؤمِنٌ إلاّ استَعبَرَ؛

  इमाम हुसैन (अ) ने फ़रमायाः मैं आँसूओं का मारा हूँ, जो भी मोमिन मुझे याद करे, उसके आँसू जारी हो जाएंगे। (6)

इमाम सज्जाद (अ) और इमाम हुसैन (अ) पर गिरया

  इमाम सज्जाद ज़ैनुल आबिदीन (अ) जिन्होंने स्वंय करबला के मैदान में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफ़ादार साथियों पर होने वाले भयानक अत्याचारों और मसाएब को देखा था, आशूरा की घटना के बाद आप जब तक जीवित रहे आपने कभी भी इस दिल दहला देने वाली घटना को नहीं भुलाया और सदैव इन शहीदों पर रोते रहते थे और जब भी आप पानी पीने चलते तो पानी को देखते ही आपकी आँखों से आँसू जारी हो जाते, जब लोगों ने आपसे इसका कारण पूछा तो आप फ़रमाते थे: मैं कैसे न रोऊँ जब कि यज़ीदियों ने पानी को जानवरों और दरिंदों पर तो खोल रखा था लेकिन मेरे पिता पर बंद कर दिया और उनको प्यासा शहीद कर दिया।

  इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम कहते हैं: जब भी मैं फ़ातिमा (स) के बेटे की शहादत को याद करता हूँ मुझे रोना आ जाता है। जब लोग आपको सात्वना देते थे तो आप फ़रमाते थे:

«كيف لا أبكي؟ و قد منع أبى من الماء الذى كان مطلقا للسباع والوحوش».

  मैं कैसे न रोऊँ जब कि मेरे पिता पर पानी बंद किया गया जब कि जानवर और दरिंदे वही पानी पी रहे थे।(7)

  इमाम सज्जाद (अ) अपने पिता पर इतना रोए कि उनको इतिहास के पाँच रोने वालों में रखा गया और जब भी आप से इतना अधिक रोने के बारे में पूछा जाता तो आप करबला के मसाएब को याद करते और फ़रमातेः मुझे ग़लत न कहो, याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपना एक बेटा युसूफ़ अलैहिस्सलाम खोया था लेकिन इतना रोए थे कि ग़म से उनकी आँखें सफ़ेद हो गईं थी, जब कि उनको विश्वास था कि उनका बेटा जीवित है जब कि मैंने अपनी आँखों से देखा कि आधे दिन में मेरे परिवार के चौदह लोगों का गला काट दिया गया, फिर भी तुम कहते हो कि मैं उनके ग़म को दिल से निकाल दूँ?!(8)

  आप न केवल यह कि स्वयं इमाम हुसैन (अ) के ग़म में आँसू बहाया करते थे बल्कि मोमिनों को भी आप पर रोने और अज़ादारी करने के लिये कहा करते थे।

«ايما مؤمن دمعت عيناه لقتل الحسين حتى تسيل على خده بواه الله بها فى الجنة غرفا يسكنها احقابا».

  हर मोमिन जो इमाम हुसैन (अ) की शहादत पर इतना रोए कि आँसू उसके गाल पर बहने लगें तो अल्लाह उसके लिये स्वर्ग में महल बनाता है जिसमें वह सदैव रहेगा।(9)

  इमाम सज्जाद ज़ैनुल आबेदीन (अ) फ़रमाते हैं:

أنَا ابنُ مَنَ بَكَت عَلَيهِ مَلائِكَةُ السَّماءِ أنَا ابنُ مَن ناحَتْ عَلَيهِ الجِنُّ فِي الأرضِ و الطِّيرُ فِي الهَواءِ؛

  मैं उसका बेटा हूँ जिस पर आसमान के फ़रिश्तों ने आँसू बहाए। मैं उसका बेटा हूँ जिस पर जिन्नातों ने ज़मीन पर और पक्षियों ने हवा में आँसू बहाए।(10)

इमाम हुसैन (अ.स.) और इमाम मुहम्मद बाक़िर (अस.)

इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) इमाम हुसैन (अ) पर आँसू बहाते थे और जो भी घर में होता था उस को भी रोने का आदेश दिया करते थे।(11)

  और आपके घर में इमाम हुसैन (अ) की मजलिस और अज़ादारी हुआ करती थी और उपस्थित होने वाले इमाम हुसैन (अ) के मुसीबतों पर एक दूसरे के सामने शोक प्रकट किया करते थे।

इमाम मूसा काज़िम (अ) और इमाम हुसैन (अ.स.)

  इमाम अली रज़ा (अ) फ़रमाते हैं:

كان ابى اذا دخل شهر المحرم لا يرى ضاحكا و كانت الكابة تغلب عليه حتى يمضى منه عشرة ايام، فاذا كان اليوم العاشر كان ذلك اليوم يوم مصيبته و حزنه و بكائه...

  मेरे पिता इमाम मूसा काज़िम (अ) की रविश यह थी कि जब भी मोहर्रम आता था हमेशा दुखी रहते थे यहां तक कि आशूरा के दस दिन पूरे हो जाए, आशूरा का दिन उनके रोने और मातम का दिन था... और आप फ़रमाते थे:

 «هو اليوم الذى قتل فيه الحسين. (12)

इमाम अली रज़ा (अ) और इमाम हुसैन (अ.स.)

  इमाम अली रज़ा (अ) ने फ़रमायाः

إن بَكَيتَ عَلَى الحُسَينِ حَتّى تَصيرَ دُموعُكَ عَلى خدَّيكَ غَفَرَاللّه ُ لَكَ كُلَّ ذَنبٍ أذنَبتَهُ

  अगर तुम हुसैन (अ) पर रोओ, इस प्रकार कि तुम्हारे आँसू तुम्हारे गालों पर जारी हो जाएं, तो अल्लाह तुम्हारे सारे पापों को क्षमा कर देता है।(13)

  इमाम अली रज़ा (अ) ने फ़रमायाः मोहर्रम वह महीना है कि जिसमें जाहेलियत के ज़माने में लोग युद्ध को वर्जित समझते थे, लेकिन शत्रुओं ने इस महीने में हमारा रक्त बहाया और हमारे सम्मान को ठेस पहुँचाई और हमारी संतान को बंदी बनाया और हमारे ख़ैमों में आग लगाई, हमारी सम्पत्ति लूटी और हमारे हक़ में पैग़म्बर (स) के सम्मान का ख़याल नहीं किया।(14)

«ان يوم الحسين اقرح جفوننا و أسبل دموعنا و أذل عزيزنا بأرض كربلا.... على مثل الحسين (عليه السلام) فليبك الباكون، فان البكاء عليه يحط الذنوب العظام.»

  इमाम हुसैन (अ) की शहादत ने हमारे आँसूओं को जारी कर दिया और हमारी आँखों की पलकों को घायल कर दिया और करबला में हमारे मान मर्यादा का अपमान किया... रोने वालों को हुसैन पर रोना चाहिये, उन पर रोना बड़े पापों को समाप्त कर देता है।(15)

  इमाम अली रज़ा (अ) ने रय्यान बिन शबीब से फ़रमायाः

«ان كنت باكيا لشى‏ ء فابك للحسين بن على فانه ذبح كما يذبح الكبش و قتل معه من أهل بيته ثمانية عشر رجلا ما لهم فى الارض شبيهون...».

  अगर किसी चीज़ पर रोना चाहो तो हुसैन (अ) पर गिरया करो क्योंकि उनकी गर्दन को भेड़ की गर्दन की तरह काट दिया गया और उनके साथ उनके अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम (परिवार वालों) के अट्ठारह मर्द शहीद हुए जिनके जैसा दुनिया में कोई नहीं था।

  फिर इब्ने शबीब से फ़रमायाः अगर चाहते हो कि स्वर्ग में हमारे साथ ऊँचे दर्जे पर रहो, तो दुखी रहो हमारे दुख में और प्रसन्न रहों हमारी ख़ुशी में।(16)

हज़रत इमाम महदी (अ) और इमाम हुसैन (अ)

  इमाम महदी (अ) पवित्र ज़ियारते नाहिया में फ़रमाते हैं:

 لأَندُبَنَّكَ صَباحا و مَساءً و لأَبكِيَنَّ عَلَيكَ بَدَلَ الدُّمُوعِ دَما؛

  मैं हर सुबह शाम आप पर रोता हूँ और आपकी मुसीबत पर आँसू की जगह ख़ून रोता हूँ।(17)

  इमाम हुसैन (अ) पर रोने के बारे में आने वाली बहुत सी रिवायतों से पता चलता है कि इमाम हुसैन (अ) पर इस संसार की सारी चीज़ें रोती हैं।

  ज़मीन रोती है आसमान रोता है। ग़मे हुसैन में सारा जहान रोता है।

लेखक: सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी
(हवाला)

(1) सुनने तिरमिज़ी, जिल्द 5, पेज 426

(2) सुनने तिरमिज़ी, जिल्द 5, पेज 424 / अल इरशाद शेख़ मुफ़ीद, जिल्द 2, पेज 127

(3) तोहफ़तुज़्ज़ाएर, मरहूम मजलिसी, पेज 168

(4) सवाबुल आमाल, जलाउल उयून के हवाले से जिल्द 1, पेज 227

(5) अबसारुल ऐन फ़ी अनसारिल हुसैन, पेज 22 /  बिहारुल अनवार, जिल्द 44, पेज 298

(6) बिहारुल अनवार जिल्द 44, पेज 284

(7) बिहारुल अनवार जिल्द 46, पेज 108

(8) अमाली, शेख़ सदूक़, मजलिस 29, पेज 121

(9) तफ़सीरे क़ुम्मी, पेज 616

(10) मनाक़िबे आले अबी तालिब, जिल्द 3, पेज 305

(11) वसाएलुश्शिया, जिल्द 10, पेज 398

(12) बिहारुल अनवार, जिल्द 44, पेज 293

(13) बिहारुल अनवार, जिल्द 44, पेज 286

(14) बिहारुल अनवार, जिल्द 44, पेज 283

(15) अमाली, शेख़ सदूक़, जिल्द 1, पेज 225

(16) वसाएलुश्शिया, जिल्द 14, पेज 502

(17) बिहारुल अनवार, जिल्द 101, पेज 238

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