गुरुवार 16 अक्तूबर 2025 - 11:49
इंसान के नुकसान की असली वजह ईमान और अच्छे अमल से ग़ाफ़िल रहना हैः आयतुल्लाह हाशमी अलीया

हौज़ा / आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने ज़ोर देकर कहा है कि इंसान जितनी कोशिश ईमान और अच्छे अमल के रास्ते में करता है तकलीफ़ सहता है और दुख-मुश्किल झेलता है वह सब उसी के फायदे में है लेकिन अगर वह अपने नफ्स को आज़ाद छोड़ दे तो यह उसके लिए नुकसानदेह साबित होता है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने ज़ोर देकर कहा कि इंसान जितनी कोशिश ईमान और अच्छे अमल के रास्ते में करता है तकलीफ़ सहता है और दुख-मुश्किल झेलता है, वह सब उसी के फायदे में है लेकिन अगर वह अपने नफ्स को आज़ाद छोड़ दे तो यह उसके लिए नुकसानदेह साबित होता है।

मदरसा ए इल्मिया क़ाएम शहर चीज़र के संस्थापक, आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने अख़लाक़ की कक्षा के दौरान बात करते हुए कहा कि ज़ुल्म की कई किस्में हैं, जिनमें सबसे खतरनाक ज़ुल्म वह है जो इंसान खुद पर करता है। अमीरुलमोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया,
«اَلنّاسُ مَعادِنُ کمَعادِنِ الذَّهَبِ وَ الْفِضَّهِ»

यानी इंसान सोने-चांदी की तरह कीमती धातु की तरह हैं, इसलिए हर इंसान को चाहिए कि वह अपने नफ्स को नुकसान से बचाए।

उन्होंने सूरए अस्र की तरफ इशारा करते हुए कहा कि खुदावंद-ए-मुतआल ने इस सूरह में इंसान के नुकसान की हकीकत को साफ़ किया है। अल्लाह तआला ने कसम खाकर फरमाया है कि इंसान नुकसान में है, सिवाय उनके जिनमें दो बुनियादी सिफात पाए जाते हैं ईमान और अमल-ए-सालेह।

एक का ताल्लुक अक़ीदे. से है और दूसरे का अमल से। ईमान यानी अल्लाह, उसकी वहदानियत क़यामत अंबिया आसमानी किताबों और आइम्मा ए अतहार अलैहिमुस्सलाम पर पक्का यक़ीन रखना।

आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने वज़ाहत की कि ईमान दिल का काम है जबकि अमल-ए-सालेह अंगों से अंजाम पाता है। खुदा ने ईमान को जिस्म के सारे अंगों पर वाजिब क़रार दिया है और हर अंग की अपनी एक ज़िम्मेदारी है।

उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा जिहाद यह है कि इंसान किसी पर ज़ुल्म न करे, यहाँ तक कि खुद पर भी नहीं। जो इंसान अपने नफ्स पर ज़ुल्म करता है, वह असल में अभी जिहाद-ए-नफ्स के मुकाम तक नहीं पहुँचा।

हौज़ा एल्मिया के उस्ताद ने आगे कहा कि कभी-कभी बीमारी या तंगदस्ती (गरीबी) भी खुदा की मस्लहत (योजना) में होती है और यह इंसान के लिए लुत्फ-ए-इलाही है, इसलिए मोमिन को इन हालात में राजी और साबिर रहना चाहिए। अगर कोई शख्स मजालिस-ए-दीनी (धार्मिक सभाओं) में शिरकत (भाग लेने) के बावजूद अपने नफ्स की इस्लाह (सुधार) न करे तो वह खुदा के अज़ाब (यातना) का मुस्तहिक (हकदार) ठहरता है।

उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जो कुछ नबी-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम और आइम्मा ए अतहार अलैहिमुस्सलाम से हम तक पहुँचा है, वह सब खुदा की तरफ से है, इसलिए दीन के किसी हुक्म को रद्द नहीं किया जा सकता। अगर कोई शख्स नमाज़ या हिजाब जैसे किसी ज़रूरी हुक्म-ए-दीन का इनकार करे तो वह ईमान से ख़ारिज है।

आयतुल्लाह हाशमी अलिया ने कहा,वह औरतें जो नमाज़-ओ-ज़िक्र करती हैं मगर हिजाब का इहतिमाम (प्रबंध) नहीं करतीं, उन्हें यह नहीं कहना चाहिए कि हिजाब को नहीं मानतीं, बल्कि कहना चाहिए कि मानती हैं मगर अमल में कमज़ोर हैं। यही फर्क ईमान और इनकार के दरमियान हद-ए-फासिल है।

उन्होंने आगे फरमाया कि जो शख्स अपने नफ्स से जिहाद करे और गुनाहों से पाक रहे, वह कामिल ईमान का हामिल (धारक) है और उसका अंजाम जन्नत है। रोज़-ए-क़यामत इंसान के अंग और ज्वारिह खुद उसके अमाल की गवाही देंगे।

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