۸ مهر ۱۴۰۳ |۲۵ ربیع‌الاول ۱۴۴۶ | Sep 29, 2024
کربلا

हौज़ा/4 शाबान (दूसरी रिवायत के मुताबिक़ 7 रजब) सन 26 हिजरी को हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने जिस घर में आंख खोली वह अध्यात्म के प्रकाश से भरा हुआ था। उस घर में हज़रत अब्बास ने न्याय के अर्थ को समझा और इसी घर से सत्य के मार्ग में दृढ़ता का पाठ सीखा,

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,4 शाबान (दूसरी रिवायत के मुताबिक़ 7 रजब) सन 26 हिजरी को हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने जिस घर में आंख खोली वह अध्यात्म के प्रकाश से भरा हुआ था। उस घर में हज़रत अब्बास ने न्याय के अर्थ को समझा और इसी घर से सत्य के मार्ग में दृढ़ता का पाठ सीखा,


हज़रत अब्बास जब बच्चे थे तो अपने सामने ख़ुदा पर संपूर्ण आस्था, परिपूर्णतः और तत्वदर्शिता के प्रतीक पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के वजूद को देखते कि जिनके आध्यात्म से ओत-पोत व्यवहार का उन पर असर होता था

हज़रत अब्बास अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम से ज्ञान व परिज्ञान सीखते थे। हज़रत अली अपने बेटे हज़रत अब्बास के व्यक्तित्व की परिपूर्णतः के बारे में फ़रमाते हैः "निःसंदेह! मेरे बेटे अब्बास ने बचपन में ज्ञान हासिल किया और जिस तरह कबूतर का बच्चा अपनी मां से खाना पानी पाता है, मुझसे तत्वदर्शिता सीखी।

  हज़रत अब्बास ने जिस माहौल में परवरिश पाई वहां तौहीद (एकेश्वरवाद) का सोता जारी था। हज़रत अब्बास की हज़रत अली की गोद में परवरिश ने उनके लिए नौजवानी और जवानी में पवित्र रहने की पृष्ठिभूमि तैयार की ताकि भविष्य में असत्य के ख़िलाफ़ प्रतिरोध, पुरुषार्थ और शौर्य का मज़बूत मोर्चा बने। हज़रत अब्बास का व्यक्तित्व ऐसा क्यों न होता कि उनके पिता को पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ज्ञान का द्वार और अल्लाह की याद में लीन बताया था।

  हज़रत अब्बास हमेशा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के दोनों नाती हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ हमेशा रहते हुए इन दोनों हस्तियों की संगत में शिष्टाचार के उच्च चरणों को सीखा। हज़रत अब्बास हमेशा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ रहते और उनके व्यवहार को अपने व्यक्तित्व के सांचे में ढालते थे यहां तक कि उनमें अपने भाई की विशेषताएं झलकने लगीं इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भी अपने भाई अब्बास के मन की पवित्रता की क़द्र करते हुए उन्हें अपने परिवार के सदस्यों पर वरीयता देते और उन्हें बहुत मानते थे।

हज़रत अब्बास अपने शिष्टाचारिक आदर्श से मानवता का सुधार करने वाले महापुरुषों की श्रेणी में जा पहुंचे। ऐसे महापुरुष जिन्होंने मानव समाज को बुराई से मुक्ति दिलाने और उच्च मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए अपनी तपस्या व बलिदान से इतिहास के धारे को बदल दिया। इस बच्चे ने भी अपनी परवरिश के आरंभिक दिनों में सत्य व तौहीद (एकेश्वरवाद) के ध्वज को फहराने के लिए पूरे वजूद से बलिदान का पाठ सीख लिया था।

  इतिहास बताता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी संतान के प्रशिक्षण के लिए बहुत कोशिश करते और हज़रत अब्बास की नैतिक व आत्मिक परवरिश के साथ साथ शारीरिक दृष्टि से भी परवरिश पर ध्यान देते यहां तक कि हज़रत अब्बास की क़द काठी उनकी ताक़त व शारीरिक क्षमता का पता देती थी।

हज़रत अब्बास को पिता से वंशानुगत विशेषताएं मिलने के साथ ही पिता की खजूर के बाग़ में पानी देने, नहर व कुआं खोदने में मदद और नौजवानी के खेल में भागीदारी ने भी उन्हें शारीरिक दृष्टि से बहुत मज़बूत बना दिया था। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की नौजवानों और जवानों के लिए घुड़सवारी, तीरअंदाज़ी, कुश्ती और तैराकी सीखने की नसीहतों पर अमल किया और ख़ुद हज़रत अब्बास को रणकौशल सिखाया।

  ख़ुदा पर गहरी आस्था हज़रत अब्बास की स्पष्ट विशेषताओं में थी। पिता ने ख़ुदा पर आस्था को, सृष्टि की सच्चाईयों और प्रकृति के रहस्यों के बारे में चिंतन मनन के ज़रिए पोषित किया। ऐसी आस्था कि जिसके बारे में ख़ुद हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कहना है कि अगर हमारे सामने से पर्दे हटा दिए जाएं तब भी मेरे विश्वास में वृद्धि नहीं होगी।

  यह गहरी आस्था हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम के रोम रोम में रच बस गयी थी जिसने उन्हें तौहीद व ख़ुदा पर गहरी आस्था रखने वाले महापुरुषों की पंक्ति में पहुंचा दिया। इसी दृढ़ आस्था की बदौलत उन्होंने ख़ुद और अपने भाइयों को अल्लाह के मार्ग में न्योछावर कर दिया।           

  वीरता पुरुषार्थ की सबसे स्पष्ट निशानी है क्योंकि इसी की मदद से व्यक्ति घटनाओं का दृढ़ता से मुक़ाबला करता है। हज़रत अब्बास को यह विशेषता इतिहास के सबसे वीर पुरुष अपने पिता और अपने मामूओं से विरासत में मिली थी जो अरब के मशहूर वीर थे।

  हज़रत अब्बास के पूरे वजूद से वीरता झलकती थी इतिहासकारों के अनुसार, जंग में हज़रत अब्बास के चेहरे पर कभी डर की झलक भी नहीं दिखाई देती थी। इतिहास में है कि सिफ़्फ़ीन नामक जंग जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम और सीरिया के विद्रोही शासक मुआविया के बीच हुई थी, एक नौजवान इस्लामी फ़ौज से निकला जिसके चेहरे पर नक़ाब पड़ी हुयी थी। सामने आकर उस नौजवान ने गरजदार आवाज़ से अपना मुक़ाबिल तलब किया।

उस समय एक रिवायत के अनुसार, उस नौजवान की उम्र 17 साल थी। मुआविया ने अबू शअसा नामक अपने एक सिपाही से जो अपने लश्कर में बहुत शक्तिशाली था, कहा कि जाओ लड़ो। अबू शअसा ने रुखे स्वर में मुआविया को जवाब दिया कि शाम के लोग मुझे हज़ार सवार सिपाहियों के बराबर समझते हैं, तुम मुझे एक नौजवान से लड़ने भेजना चाहते हो? उसके बाद अबू शअसा ने अपने एक बेटे को हज़रत अब्बास से लड़ने के लिए भेजा। कुछ ही क्षण में हज़रत अब्बास ने अबू शअसा के पहले बेटे को ढेर कर दिया। अबू शअसा को अपने बेटे को ख़ून में लतपथ देखकर बहुत हैरत हुई। उसके सात बेटे थे।

उसने दूसरे बेटे को भेजा उसका भी वही अंजाम हुआ। उसने बाक़ी बेटों को एक के बाद एक हज़रत अब्बास के मुक़ाबले में भेजा लेकिन सबके सब ढेर हो गए। अंत में अबू शअसा जिसे अपने परिवार के रणकौशल की इज़्ज़त ख़ाक में मिलती नज़र आई, हज़रत अब्बास से लड़ने के लिए आया। हज़रत अब्बास ने उसे भी ढेर किया। इसके बाद किसी में हज़रत अब्बास से लड़ने की हिम्मत न हुई।

हज़रत अब्बास की वीरता से हज़रत अली के साथी हैरत में पड़े हुए थे। जिस समय हज़रत अब्बास अपने लश्कर की ओर पलटे तो हज़रत अली ने अपने नौजवान बेटे के चेहरे पर पड़ी नक़ाब उलटी और उनके चेहरे को साफ़ किया।

  जब हज़रत अली 19 रमज़ान सन 40 हिजरी को मस्जिद ए कूफ़ा में सुबह की नमाज़ में सजदे की हालत में अब्दुल रहमान इब्ने मुलजिम मलऊन की तलवार से घायल हुए तो हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने अपने पिता से अपने भाइयों का साथ देने का प्रण लिया। पूरे जीवन में कभी भी हज़रत अब्बास ने इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के होते हुए किसी मामले में पहल नहीं की। जिन दिनों इमाम हसन इमाम थे और उन्होंने मुआविया से शांति संधि की, हज़रत अब्बास ने आंख बंद करके अपने इमाम का अनुसरण किया और उनका साथ दिया। उस अस्त व्यस्त हालात में एक भी मिसाल नहीं मिलती कि हज़रत अब्बास ने इमाम हसन अलैहिस्सलाम को किसी तरह का मशवरा देने की कोशिश की जबकि इमाम हसन अलैहिस्सलाम के कुछ मित्रों ने उन्हें नसीहत करने की कोशिश की थी।

जब हज़रत इमाम हसन मदीना लौट आए तो हज़रत अब्बास इमाम हसन के साथ साथ वंचितों की मदद करते और इमाम हसन की ओर से दिए जाने वाले तोहफ़ों को लोगों के बीच बांटते थे। इस दौरान उन्हें *बाबुल हवाएज* की उपाधि से पुकारा जाने लगा और वे समाज के वंचित वर्ग के लोगों की मदद का माध्यम बने।

  जब यज़ीद मलऊन शासक बना तो हज़रत अब्बास ने महसूस किया कि इस्लामी जगत उमवी (बनी उमय्या)‌ शासन के हाथ में अपमान जनक दौर से गुज़र रहा है। कुछ उमवी अपराधी लोगों के भविष्य से खेलवाड़ करते हुए उनकी संपत्ति को बर्बाद कर रहे हैं। ऐसे ख़तरनाक हालात में हज़रत अब्बास को अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन में साथ देने में इस्लामी जगत के साथ वफ़ादारी नज़र आई। तो अपने भाई के साथ उमवियों के चंगुल से आज़ादी और इस्लामी जगत की दास्तां से मुक्ति को अपना उद्देश्य क़रार दिया और उसके सम्मान को वापस लाने के लिए पवित्र संघर्ष शुरु किया और इस मार्ग में ख़ुद को अपने सभी साथियों के साथ क़ुर्बान कर दिया।

  जिस समय करबला से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिजनों से लूटी गयी चीज़ें सीरिया में यज़ीद के पास ले गए तो उन चीज़ों में एक विशाल ध्वज (अलम) भी था। दरबार में यज़ीद और उसके दरबारियों ने देखा कि पूरे अलम में सूराख़ है लेकिन उसका दस्ता सहीह था। यज़ीद ने पूछा कि यह अलम किसके हाथ में था?

उसे बताया गया कि हज़रत अली के बेटे अब्बास के पास। यह सुनकर यज़ीद हैरत से तीन बार अपनी जगह से उठा और बैठा और उसने कहाः इस अलम को देखो कि भाले और तलवार की वजह से अलम जगह जगह से फटा हुआ है लेकिन उसका दस्ता सहीह है। उसके बाद यज़ीद ने कहाः ऐ अब्बास! आपको बुरा कैसे कहा जाए कि आपने बुराइयों को अपने से दूर किया हैं।

  जी हां! भाई के साथ वफ़ादारी इसी को कहते हैं।

  हज़रत अब्बास पर सलाम हो। उस महान हस्ती पर सलाम हो जिसे भलाई व सद्कर्मों के लिए अबुल फ़ज़्ल की उपाधि मिली और अपने जगमगाते हुए चेहरे की वजह से बनी हाशिम के चांद (क़मर ए बनी हाशिम) के नाम से मशहूर हुए।

  हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने हज़रत अब्बास की ज़ियारत (दर्शन) के अवसर पर पढ़ी जाने वाली ज़ियारत में, उनके शुद्ध ईमान और गहरे आत्मज्ञान की गवाही देते हुए फ़रमायाः मैं गवाही देता हूं कि आपने एक क्षण भी अपनी ओर से सुस्ती नहीं दिखाई और न ही अपने दृष्टिकोण से पलटे बल्कि ख़ुदा पर आस्था के साथ धर्म पर चलते रहे।

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