۳۱ اردیبهشت ۱۴۰۳ |۱۲ ذیقعدهٔ ۱۴۴۵ | May 20, 2024
امام

हौज़ा/शेख़ अबू मोहम्मद हसन इब्ने अली इब्ने शोअबा अपनी किताब तोहफ़ुल उक़ूल में में नक़्ल करते हैं अनसार में से एक शख़्स इमाम हुसैन अ.स. के पास आया और उनसे अपनी हाजत तलब करना चाहता था, इमाम ने उससे फ़रमाया, ए भाई अपनी इज़्ज़त का ख़्याल रखो, अपनी ज़रूरत को लिख कर मुझे दो इंशा अल्लाह मैं तुमको इतना अता करूंगा कि तुम राज़ी रहोगे। इमाम के उन्हें सिफत में से यह एक हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,शेख़ अबू मोहम्मद हसन इब्ने अली इब्ने शोअबा अपनी किताब तोहफ़ुल उक़ूल में में नक़्ल करते हैं अनसार में से एक शख़्स इमाम हुसैन अ.स. के पास आया और उनसे अपनी हाजत तलब करना चाहता था, इमाम ने उससे फ़रमाया, ए भाई अपनी इज़्ज़त का ख़्याल रखो, अपनी ज़रूरत को लिख कर मुझे दो इंशा अल्लाह मैं तुमको इतना अता करूंगा कि तुम राज़ी रहोगे। इमाम के उन्हें सिफत में से यह एक हैं।

आपका लोगों को माफ़ करना:
कुछ अख़लाक़ी किताबों में मौजूद है कि एसाम इब्ने मुस्तलिक़ का कहना है कि मैं मदीने में दाख़िल हुआ तो इमाम हुसैन अ.स. के चेहरे पर अजीब तरह की नूरानियत और हैबत देखी, यह देख कर मैं हसद की आग में जल गया और उनके वालिद और उनके लिए मेरे दिल में जितनी ईर्ष्या और नफ़रत भरी थी वह सब उभर कर बाहर आ गई, मैंने उनसे कहा कि: तो अबू तुराबी आप ही हैं?

उन्होंने कहा हां, जब उन्होंने हां कहा मैंने जो कुछ मेरे मुंह में आया मैंने उनको और उनके वालिद को कह डाला और जी भर के गालियां दीं, इमाम हुसैन अ.स. ने मोहब्बत भरी निगाहों से मेरी तरफ़ देखा और फ़रमाया:माफ़ करने को अपनी आदत बना लो, नेकी और सब्र की तलक़ीन करो, जाहिल लोगों से मुंह मोड़ लो, और जब शैतान तुम्हें बहकाना चाहे तो अल्लाह की बारगाह में पनाह लो वह सुनने वाला और जानने वाला है, मुत्तक़ीन जब शैतानी बहकावे में फंसते हैं

अल्लाह को याद करते हैं और तुरंत आपे से बाहर आ जाते हैं, लेकिन शैतान अपने भाइयों को गुमराही की तरफ़ खींचते हैं और उसके बाद उन्हें गुमराह करने में संकोच नहीं करते। (सूरए आराफ़, आयत 199 से 202)
इन आयात की तिलावत के बाद मुझसे फ़रमाया:
थोड़ा हद में और होश में रहो, मैं अपने और तुम्हारे लिए अल्लाह से मग़फ़ेरत की दुआ करता हूं, अगर तुम्हें मदद की ज़रूरत है तो तुम्हारी मदद किए देता हूं, अगर रास्ता भूल गए हो तो रहनुमाई किए देता हूं।

एसाम कहता है: मुझे अपने किए पर पछतावा होने लगा और इमाम ने जब मेरे चेहरे पर शर्मिंदगी के आसार देखे तो फ़रमाया:
कोई बात नहीं, अल्लाह आपको माफ़ कर देगा, वह सबसे ज़्यादा मेहरबान है। (सूरए यूसुफ़, आयत 92)
उसके बाद इमाम ने पूछ: क्या शाम के रहने वाले हो? मैंने कहा जी हां
फिर आपने फ़रमाया: अल्लाह हमें और तुमको महफ़ूज़ रखे, घबराओ नहीं और शर्माओ मत, जो चाहिए मुझे बताओ, अगर तुमने हमसे कुछ मांगा तुम अपनी सोंच से ज़्यादा हमें अता करने वाला देखोगे।

एसाम कहता है कि: मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई, मैं सोच रहा था कि ज़मीन फटे और मैं उसमें धंस जाऊं क्योंकि मैं शर्म से पानी पानी हो रहा था, धीरे धीरे इमाम से दूर होता हुआ बहुत दूर हो गया था लेकिन आज के बाद इस ज़मीन पर इमाम हुसैन अ.स. और उनके वालिद से बढ़कर किसी की इज़्ज़त मेरी निगाह में नहीं है। सफ़ीनतुल बिहार, जिल्द 2, पेज 116)

फक़ीर के साथ इमाम का बर्ताव:
शैख़ अबू मोहम्मद हसन इब्ने अली इब्ने शोअबा अपनी किताब तोहफ़ुल उक़ूल में में नक़्ल करते हैं: अनसार में से एक शख़्स इमाम हुसैन अ.स. के पास आया और उनसे अपनी हाजत तलब करना चाहता था, इमाम ने उससे फ़रमाया: ऎ भाई अपनी इज़्ज़त का ख़्याल रखो, अपनी ज़रूरत को लिख कर मुझे दो इंशा अल्लाह मैं तुमको इतना अता करूंगा कि तुम राज़ी रहोगे।
उसने लिखा: मैं फलां शख़्स के 500 दीनार का क़र्ज़दार हूं और उसे वापस करने पर ज़ोर दे रहा है, आप उससे कह दें कि मुझे इतना समय दे दे कि मैं उसका क़र्ज़ अदा कर सकूं।
जब इमाम ने उसके उस लिखे हुए को पढ़ा तो तुरंत घर में तशरीफ़ ले गए और उस थैली जिसमें हज़ार दीनार थे लाकर उसे दिया और फ़रमाया: 500 दीनार उसका क़र्ज़ दे दो और 500 अपने पास रखो ताकि ज़रूरत के समय काम आ सके, और याद रखो अपनी ज़रूरत को तीन तरह के आदमियों के अलावा किसी और से मत मांगना; 1- दीनदार, 2- करीम, 3- वह शख़्स जो शरीफ़ ख़ानदान से हो।

आपका एहसान:
अनस का बयान है कि: मैं इमाम हुसैन अ.स. के पास था एक कनीज़ दाख़िल हुई और फूलों का गुलदस्ता इमाम की बारगाह में पेश किया।
इमाम ने फ़रमाया: तुम अल्लाह की राह में आज़ाद हो।
मैंने कहा: उसने आपको इतना क़ीमती तोहफ़ा तो नहीं दिया कि आप उसे आज़ाद कर दें!!
इमाम ने फ़रमाया: अल्लाह ने यही अदब हमें सिखाया है, कि जब तुम्हें कोई सलाम करे या कोई तोहफ़ा दे तो या तुम वैसे ही लौटा दो या उससे बेहतर वापस लौटाओ, और उसके एहसान से बेहतर तोहफ़ा उसे आज़ाद करना ही था। (कश्फ़ुल ग़ुम्मा, जिल्द 2, पेज 31)

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