۱۵ تیر ۱۴۰۳ |۲۸ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 5, 2024
अल्लामा सय्यद क़मरूज़्ज़मा रिज़वी छौलसी

हौज़ा / पेशकश: दानिश नामा ए इस्लाम, इन्टरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर दिल्ली काविश: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी

अल्लामा क़मरुज़्ज़मा रिज़वी छौलसी सन 1325 हिजरी में सरज़मीने छौलस सादात ज़िला बुलंदशहर सूबा यूपी पर पैदा हुए । हालांके हाले हाज़िर में छौलस का ज़िला नोएडा है । मौसूफ़ के वालिद जनाब सय्यद मौहम्मद रफ़ी रिज़वी छौलसी थे ।

अल्लामा का असली नाम “सय्यद मौहम्मद रज़ी रिज़वी” था लेकिन आप की फूफी का दिया हुआ नाम “क़मरूज़ज़मा” मारूफ़ हो गया । मौसूफ़ की उम्र पाँच साल थी के मादरे गिरामी के साया ए  उतूफ़त से महरूम हो गए और अपनी दादी के ज़ेरे साया तरबियत पाई ।

आप की इब्तेदाई तालीम छौलस सादात में अंजाम पाई और सन 1918 ईस्वी में मंसबिया अरेबिक कॉलेज मेरठ का रुख़ किया, वहाँ रह कर बुज़ुर्ग असातेज़ा की ख़िदमत में ज़ानुए अदब तेह किए जिन में से (1)यूसुफ़ुल मिल्लत आयतुल्लाह सय्यद यूसुफ़ हुसैन अमरोहवी (2)आयतुल्लाह सिब्ते हुसैन जौनपुरी वगेरा के नाम सरे फ़ेहरिस्त हैं ।

मंसबिया के बाद अमरौहा का रुख़ किया और आयतुल्लाह यूसुफ़ हुसैन अमरौहवी के वालिद ए मोहतरम अलहाज मौलाना सय्यद मुरतज़ा हुसैन की ख़िदमत में ज़ानुए अदब तेह किए । फिर सुलतानुल मदारिस लखनऊ की जानिब सफ़र किया और बाक़िरुल उलूम आयतुल्लाह सय्यद मौहम्मद बाक़िर, ज़हीरुल मिल्लत मौलाना सय्यद ज़हूर हुसैन और नज्मुल मिल्लत आयतुल्लाह सय्यद नज्मुल हसन रिज़वी वगेरा जैसे बुज़ुर्ग असातेज़ा की ख़िदमत में रह कर तफ़सीर, हदीस, फ़िक़्ह, उसूल और मनतिक़ की तालीम हासिल की ।

आप ने सन 1922 ई॰ में मुंशी, सन 1923 ई॰ में मौलवी, सन 1924 ई॰ में आलिम, सन 1925 ई॰ में फ़ाज़िले फ़िक़्ह, सन 1926 ई॰ में फ़ाज़िले तिब और सन 1928 ई॰ में सदरुलअफ़ाज़िल की सनद हासिल की ।

सन 1929 ई॰ में दुबारा शहरे मेरठ तशरीफ़ लाए, अपना मतब खोला और बहुत कम मुददत में काफ़ी शोहरत हासिल कर ली । सन 1930 ई॰ में पंजाब यूनिवर्सिटी से मेट्रिक किया ।

अल्लामा क़मरूज़ज़मा बला के ज़हीन और निहायत दर्जे के मेहनती तालिबे इल्म थे । किताबों का मुतालेआ अपना एन फ़रीज़ा समझते थे । एसी सलाहियत के मालिक थे के आप को काम की तलाश में जाने की ज़रूरत नहीं थी बल्के काम ख़ुद ही आप की तलाश में आता था यही वजह है के सत्रह (17) साल तक मदरसा ए मंसबिया में फ़लसफ़ाओ मनतिक़ की तदरीस की और किसी तालिबे इल्म को शिकायत का मौक़ा नहीं दिया । (तफ़सील के लिए मुराजेआ कीजिए: नुजूमुल हिदाया, जिल्द 1, सफ़्हा 193)

आप को तदरीस का तोहफ़ा अपने वालिद की जानिब से मीरास में मिला था यही वजह थी के आपने इस मीरास की अच्छी तरह हिफ़ाज़त फ़रमाई और बेहतरीन तरीक़े से तदरीस फ़रमाई । मंसबिया के अराकीन उन से इस क़दर ख़ुश थे के मसऊले गिज़ा और हॉस्टल का निगराँ बना दिया । ये दोनों काम यानी तदरीस के साथ हॉस्टल की निगरानी भी अंजाम देना बहुत सख़्त काम था लेकिन आपने दोनों ज़िम्मेदारयों को बख़ूबी निभा कर एक अच्छी मिसाल क़ायम कर दी । किसी की तरफ़ से कभी कोई शिकायत सुन्ने को नहीं मिली ।

अल्लामा के ज़माने में एक मेहमान ख़ाना बनवाया गया था जिस में मेहमानों को निहायत अदबो एहतेराम के साथ रखा जाता था ख़ास तौर से छौलस, जारचा, अब्दुल्लापुर, दोहोलड़ी, ईसापुर, खिरवा और सादाते बारेहा के मेहमानों का ख़ुसूसी ख़याल रखा जाता था । तमाम मेहमानों का यह मान्ना था के यह सारा एहतेराम सिर्फ़ क़मरूज़्ज़मा साहब का मरहूने मिन्नत है ।

अल्लामा मौसूफ़ की ज़िंदगी में मायूसी नाम की कोई चीज़ नहीं थी । आप निहायत बा अख़लाक़, बा मुरव्वत और आपकी गुफ़्त्गू इरफ़ानो फ़लसफ़े से भरपूर होती थी । अगर कोई मजलिस पढ़ने के लिए मदऊ करने आता तो उसे मायूस नहीं लोटाते बल्के मजलिस का वादा कर लिया करते थे ।

तज़्केरे की किताबों से मालूम होता है के आप इरफ़ानो फ़लसफ़े में माहिर थे । आपने मूताअद्दिद किताबें तालीफ़ फ़रमाईं जिन में मुंदरजा ज़ैल किताबें क़ाबिले ज़िक्र हैं : (1)राज़े क़ुदरत(फ़लसफ़ा), (2)अल हिकमतुत तालेआ फ़ी शरहे शमसिल बाज़ेगा(फ़लसफ़ा), (3)जामेउल मसाएल का तर्जेमा(फ़िक़्ह) । (तफ़सील के लिए मुराजेआ कीजिए: अनवारे फ़लक, जिल्द 1, सफ़्हा 80)

आपने राज़े क़ुदरत नामी किताब एक दहरये के जवाब में तहरीर फ़रमाई थी, वो दहरया वकील था, जब उसकी विकालत ना चल सकी तो क़ुदरते ख़ुदा पर तरह तरह के एतेराज़ करने लगा । अल्लामा ने उस के एतेराज़ात के जवाब में पूरी किताब तहरीर कर डाली ।

अल्लामा क़मरूज़्ज़मा ने सन 1948 ई॰ में हिंदुस्तान से लाहौर की जानिब सफ़र किया और वहीं पर ज़िंदगी गुज़ारने लगे । दयाल सिंघ कॉलेज लाहौर में इस्लामी प्रोफ़ेसर के उनवान से पहचाने जाते थे ।

आप नब्बाज़े अदब थे । अपने ज़माने के बेहतरीन शोअरा में शुमार किए जाते थे और आपका तख़ल्लुस “क़मर” था । मौसूफ़ अरबी, फ़ारसी और उर्दू में बेहतरीन शाएरी फ़रमाते थे ।

अल्लामा की वफ़ात से चंद रौज़ क़ब्ल के कहे हुए कलाम का एक मक़ता नमूने के तौर पर इस तरह पैश किया जा सकता है :

संजीदगी क़मर को है शौख़ी के साथ साथ  -  छुपता नहीं छुपाए से शाइर मज़ार में

अल्लामा क़मरूज़्ज़मा उन्तीस शाबान सन तेरह सौ उनासी हिजरी की शबे जुमा में चव्वन साल के हुए तो पैगामे अजल आ गया और आप जहाने फ़ानी से जहाने बाक़ी की जानिब कूच कर गए नीज़ हज़ारों मौमेनीन की मौजूदगी में लाहौर में मौजूद मौमिनपुरा मेकलोड रोड के मारूफ़ क़बरुसतान में सुपुर्दे ख़ाक किए गए ।

(माख़ूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, जिल्द 1, सफ़्हा 190, तहक़ीक़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी – मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी – दानिशनामा ए इस्लाम, नूर माइक्रो फ़िल्म, दिल्ली)

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