हौज़ा न्यूज़ एजेंसी
بسم الله الرحـــمن الرحــــیم बिस्मिल्लाह अल-रहमान अल-रहीम
وَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تُقْسِطُوا فِي الْيَتَامَىٰ فَانكِحُوا مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاءِ مَثْنَىٰ وَثُلَاثَ وَرُبَاعَ ۖ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تَعْدِلُوا فَوَاحِدَةً أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ ۚ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَلَّا تَعُولُوا वइन खिफ़तुम इल्ला तुक़्सेतू फ़िल यतामा फ़न्केहू मा ताबा लकुम मिनन नेसाए मस्सना व सुलासा व रोबाअ फ़इन ख़िफ़तुम अल्ला तअदेलू फ़वाहेदतन औ मा मलकत एमानोकुम ज़ालेका अदना अल्ला तऊलू (सूर ए नेसा, 3)
अनुवाद: और अगर यतीमों का इन्साफ न कर पाने का ख़तरा हो तो जो औरतें तुम्हें पसंद हों उन्हें दे दो। तीन। उनमें से चार से विवाह करो, और यदि उनमें न्याय न कर सकने का खतरा हो, तो केवल एक से... या दासियों से, जो तुम्हारे हाथ की संपत्ति हैं, यह न्याय का उल्लंघन न करने से अधिक निकट है।
विषय:
यह आयत इस्लामी सामाजिक कानून में विवाह, अनाथों के अधिकारों और न्याय के सिद्धांतों से संबंधित एक महत्वपूर्ण मुद्दे का वर्णन करती है।
पृष्ठभूमि:
यह आयत तब सामने आई जब अरब समाज में सामाजिक समस्याओं के कारण अनाथ लड़कियों के अधिकारों का हनन हो रहा था। पुरुष उनकी संपत्ति पर कब्ज़ा करने के लिए अनाथों से शादी करते थे और उनके अधिकारों का उल्लंघन किया जाता था। इस्लाम ने इस तरह के अन्याय को रोकने के लिए निर्देश दिया है कि यदि अनाथों के साथ न्याय न कर पाने का डर हो तो ऐसी स्थिति में दूसरी शादी या पत्नियों की संख्या सीमित कर देनी चाहिए।
तफसीर:
- अनाथों के विषय में न्याय का उल्लेख : आयत के आरंभ में उल्लेख है कि अनाथों के अधिकार के विषय में न्याय आवश्यक है। यदि अनाथ लड़कियों की संपत्ति और अधिकारों के साथ न्याय न कर पाने का डर हो तो उनकी शादी दूसरी महिलाओं से की जा सकती है।
- बहुविवाह का उल्लेख: इस्लाम एक समय में अधिकतम चार विवाहों की अनुमति देता है, लेकिन यह भी कहता है कि पति को अपनी पत्नियों के बीच निष्पक्ष रहना होगा।
- न्याय न करने का डर: यदि किसी पुरुष को लगता है कि वह न्याय नहीं कर पाएगा, तो उसे केवल एक पत्नी रखने की आज्ञा दी जाती है।
- गुलामों के अधिकार: आयत में यह भी बताया गया है कि अगर न्याय का डर हो तो उसके कब्जे में मौजूद गुलाम महिलाओं से भी रिश्ता स्थापित किया जा सकता है, जो उस समय की सामाजिक वास्तविकता का हिस्सा था।
परिणाम:
इस्लाम ने बहुविवाह की समस्या को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है और इसके लिए न्याय की शर्तें निर्धारित की हैं। विवाह का मुख्य उद्देश्य न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए समाज का सुधार एवं सुधार करना है। इस कारण से, यह आयत न्याय की आवश्यकताओं को पूरा न करने के डर से विवाहों की संख्या को सीमित कर देती है।
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तफ़सीर राहनुमा, सूर ए नेसा