हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत इमाम रज़ा अ.स.की ज़िंदगी पर एक निगाह:हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम 11 ज़िलक़द 148 हिजरी को दुनिया में तशरीफ लाए,आप के बहुत अलक़ाब (उपाधियां) हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध रज़ा है जिसका अर्थ है राज़ी व प्रसन्न रहने वाला। इस उपाधि का बहुत बड़ा कारण यह है कि इमाम अलैहिस्सलाम ख़ुदा की हर इच्छा पर प्रसन्न रहते थे और इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के साथी एवं अनुयाई भी आप से प्रसन्न रहते थे और इमाम के दुश्मन उनकी अप्रसन्नता का कोई कारण नहीं ढूंढ पाते थे।
इसी प्रकार इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम का एक लक़ब ग़रीब भी है जिसका अर्थ है अपने देश से दूर। क्योंकि इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम को अब्बासी शासक मामून रशीद ने विवश करके उनकी मातृभूमि मदीना से अपनी सरकार की राजधानी (मशहद) बुलाया था और वहीं पर उन्हें शहीद कर दिया था।
अत्याचारी शासक मामून रशीद यह सोचता था कि जब वह इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी बना देगा तो इस प्रकार वह अपनी अवैध सरकार के विरुद्ध पैग़म्बरे इस्लाम (स.ल.) के पवित्र परिजनों के चाहने वालों के आंदोलन को रोक सकेगा और साथ ही वह इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम पर पूर्ण निगरानी रख सकेगा और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वह अपनी अवैध सरकार को वैध दर्शा सकेगा परंतु इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी दूरगामी सोच से इस ख़तरे को इस्लाम को जीवित करने और मुसलमानों के मार्गदर्शन के अवसर में परिवर्तित कर दिया।
इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम जब अपने पैतृक नगर मदीना से ख़ुरासान के मर्व नगर के लिए रवाना होने वाले थे तब वे इस प्रकार मदीना से निकले कि लगभग समस्त लोग इस बात से अवगत हो गये कि इमाम विवशतः मदीना छोड़कर मर्व (ईरान) जा रहे हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम जब पवित्र नगर मदीना छोड़ रहे थे तब उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.ल.व.व.) की पावन समाधि पर इस प्रकार विलाप किया और दुआ की जिससे वहां मौजूद लोगों ने समझ लिया कि यह उनके जीवन की अंतिम यात्रा है और इसके बाद फिर कभी वे पवित्र नगर मदीना लौटकर नहीं आयेंगे। इसी तरह इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उस समय तक उत्तराधिकारी के पद को स्वीकार नहीं किया जब तक उन्हें जान से मार देने की धमकी नहीं दी गयी। जब इमाम को उत्तराधिकारी बनने का प्रस्ताव दिया गया तो उन्होंने पहले तो उसे स्वीकार नहीं किया और जब स्वीकार करने के लिए बार बार कहा गया तो उन्होंने स्वीकार न करने पर इतना आग्रह किया कि सब लोग इस बात को समझ गये कि मामून रशीद उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने पर आग्रह कर रहा है। काफ़ी आग्रह के बाद इमाम ने कुछ शर्तों के साथ मामून रशीद का उत्तराधिकारी बनना स्वीकार कर लिया। इमाम ने इसके लिए एक शर्त यह रखी कि सरकारी पद पर किसी को रखने और उसे बर्ख़ास्त करने, युद्ध का आदेश देने और शांति जैसे किसी भी मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस प्रकार जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने मामून रशीद का उत्तराधिकारी बनना स्वीकार कर लिया तब भी मामून अपने अवैध कार्यों का औचित्य नहीं दर्शा सकता था।
इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम का यह व्यवहार न केवल इस बात का कारण बना कि मामून की चालों व षडयंत्रों पर पानी फिर जाये बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों और उनके अनुयाइयों के लिए वह अवसर उत्पन्न हो गया जो उससे पहले नहीं था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम द्वारा मामून का उत्तराधिकारी बन जाने से पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों के चाहने वालों का मनोबल ऊंचा हो गया और उन पर डाले गये दबावों में कमी हो गयी। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों को सरकारें सदैव ख़तरे के रूप में देखती और उन्हें प्रताड़ित करती थीं परंतु इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के मामून का उत्तराधिकारी बन जाने से सभी स्थानों पर उन्हें अच्छे नामों के साथ याद किया गया और जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों की विशेषताओं एवं उनके सदगुणों से अवगत नहीं थे वे परिचित हो गये और शत्रुओं ने अपनी कमज़ोरी एवं पराजय का आभास कर लिया।
लोगों की दृष्टि में इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की जो गरिमा व महत्व था मामून रशीद ने उसे ख़त्म करने के लिए एक चाल चली और वह चाल धार्मिक सभाओं एवं शास्त्राथों (मुनाज़रे) का आयोजन था। मामून ऐसे लोगों को शास्त्रार्थ में आमंत्रित करता था जिससे थोड़ी से भी उम्मीद होती थी कि वह शास्त्रार्थ में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को हरा देगा। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इन शास्त्रार्थों में विभिन्न धर्मों के लोगों को हरा देते थे और दिन- प्रतिदिन इमाम की प्रसिद्धि चारों ओर फैलती जा रही थी। ऐसे समय में मामून को अपनी पराजय और घाटे का आभास हुआ और उसने सोचा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों से मुक़ाबले के लिए मुझे भी वही रास्ता अपनाना होगा जो अतीत के अत्याचारी शासकों ने अपनाया है। यानी इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को शहीद कर देने का। इस प्रकार मामून का उत्तराधिकारी बने हुए इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को एक वर्ष का समय ही हुआ था कि उसने एक षडयंत्र रचकर उन्हें शहीद करवा दिया।
इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम यद्यपि अपनी मातृभूमि से दूर शहीद हुए परंतु ख़ुदा ने उनके पावन अस्तित्व से मार्गदर्शन का जो चिराग़ प्रज्वलित किया था वह कभी भी बुझने वाला नहीं है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कथन के रूप में जो अनमोल मोती छोड़े हैं वह बहुत ही मूल्यवान हैं और आज इस लेख में हम इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के एक कथन की व्याख्या करेंगे जिसमें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अच्छे बंदों की पांच विशेषताएं बयान की हैं:
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की दृष्टि में अच्छे इंसानों की पहली विशेषता यह है कि जब वे अच्छा कार्य अंजाम देते हैं तो ख़ुश होते हैं। इतिहास में आया है कि एक व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कहा कि मैं अपने अमल को गोपनीय रखता हूं और इस बात को पसंद नहीं करता हूं कि कोई उससे अवगत हो परंतु लोग मेरे गोपनीय कार्य को जान जाते हैं और जब मुझे पता चलता है कि लोग मेरे अमल से अवगत हो गये हैं तो यह जानकर मुझे ख़ुशी होती है। इस पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया: इसके तुम्हें दो सवाब (पुण्य) मिलेंगे एक गुप्त रखने का और दूसरे स्पष्ट होने का।
हां! अगर यह ख़ुशहाली दिखावे के कारण हो तो अमल अकार्य है और यह भी संभव है कि यह अच्छा कार्य कभी भी स्पष्ट न हो परंतु यदि मोमिन की प्रसन्नता का कारण ख़ुदा की प्रसन्नता के कारण है तो प्रसन्नता न तो दिखावा है और न ही अहंकार बल्कि एक आध्यात्मिक स्थिति है जो अच्छा कार्य करने के बाद इंसान में पैदा होती है।
अच्छे इंसानों की दूसरी विशेषता इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की दृष्टि में यह है कि जब भी उनसे कोई बुरा कार्य हो जाता है तो वे ख़ुदा से क्षमा याचना करते हैं। ख़ुदावंदे करीम पवित्र क़ुरआन में फ़रमाता है: “और जिन लोगों से पाप हो जाते हैं या वे स्वयं पर अत्याचार कर बैठते हैं तो उन्हें अल्लाह की याद आ जाती है और वे अपने पापों के लिए क्षमा याचना करते हैं और अल्लाह के अतिरिक्त कौन है जो पापों को क्षमा करे वे पाप करने पर आग्रह नहीं करते हैं जबकि वे जानते भी हैं।”
पवित्र क़ुरआन की इस आयत में जो बात कही गयी है उससे स्पष्ट होता है कि भले आदमी से भी पाप हो जाता है और जब वह पाप कर बैठता है तो उसे ख़ुदा की याद आ जाती है और अपने किये हुए पापों से अल्लाह से क्षमा याचना करता है और ख़ुदावंदे करीम के अतिरिक्त कोई भी इंसान के पापों को क्षमा नहीं कर सकता।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के अनुसार भले इंसानों की तीसरी विशेषता यह है कि जब उन्हें कोई नेअमत दी जाती है तो वे ख़ुदा का शुक्र (आभार) करते हैं। वास्तव में ख़ुदा के वास्तविक सच्चे बंदे वे हैं जो ज़बान के अतिरिक्त दिल से भी उसके आभारी होते हैं यानी दिल से वे उसके शुक्रगुज़ार होते हैं और उन्हें इस बात का विश्वास होता है कि उन्हें जो भी नेअमत प्रदान की जाती है वह अल्लाह की ओर से है। जब उन्हें इस बात का विश्वास होता है कि उन्हें जो कुछ प्रदान किया जा रहा है वह अल्लाह की ओर से है तो वे अपनी समस्त शक्ति व संभावना का प्रयोग ख़ुदा की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए करते हैं जो महान व सर्वसमर्थ ख़ुदा का आभार व्यक्त करने का एक उच्च चरण यह है कि इंसान नेअमतों को केवल ख़ुदावंदे करीम की प्रसन्नता प्राप्त करने के मार्ग में ख़र्च करे। उदाहरण स्वरूप अपने शरीर के अंगों का प्रयोग जिसे ख़ुदा ने ही प्रदान किया है, उसकी उपासना में और पापों से दूरी में करना चाहिये।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की दृष्टि में भले इंसान की चौथी विशेषता यह है कि वह दुनिया की कठिनाईयों पर धैर्य करता है। ख़ुदावंदे करीम पवित्र क़ुरआन में कहता है कि निश्चित रूप से हम तुम सबकी भूख, जानी व माली नुक़सान और कम पैदावार के माध्यम से परीक्षा लेंगे और ऐ पैग़म्बर! आप धैर्य करने वालों को शुभ सूचना दे दीजिये कि जो मुसीबत पड़ने पर कहते हैं कि हम अल्लाह की ओर से हैं और उसी की ओर पलट कर जायेंगे। यह वही लोग हैं जिन पर ख़ुदा की कृपा हुई है और वे सहीह मार्ग पाने वाले हैं।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की दृष्टि में भले लोगों की एक अन्य विशेषता यह है कि वे क्रोध के समय दूसरों को क्षमा कर देते हैं। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं: कोई बंदा नहीं है कि जो अपने क्रोध को पी जाये मगर यह कि ख़ुदा दुनिया और आख़ेरत में उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि कर देगा।
दूसरों को माफ़ कर देना क्षमा का चरम शिखर है क्योंकि माफ़ कर देने से शांति की सुरक्षा होती है और माफ़ कर देने वाला व्यक्ति उस मामले को अल्लाह के हवाले कर देता है कि इसका जो भी दंड होगा उसे ख़ुदा देगा परंतु दूसरे की ग़लती को इस प्रकार माफ़ कर देना कि ख़ुदा भी उसे माफ़ कर देगा और क़यामत में उसे दंडित नहीं करेगा यह क्षमा का चरम शिखर है।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के ज्ञान के अथाह सागर के यह कुछ मोती हैं जिन्हें पेश किया गया। महान व सर्वसमर्थ अल्लाह से हम प्रार्थना करते हैं कि हमारी गणना पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके अहलेबैत (पवित्र परिजनों) के अनुयाइयों में करें और हमारी आत्मा को उनके ज्ञान के अथाह सागर से तृप्त करे।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया है: हमारे शरीर का एक टुकड़ा ख़ुरासान में दफ़्न होगा, कोई दुःखी और पापी उसकी ज़ियारत नहीं करेगा मगर यह कि ख़ुदा उसके दुःख को दूर कर देगा।