۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
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25 सितंबर 2023 - 14:39
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हौज़ा/ हमारे समाज में बहुतसी ईदें आती हैं जैसे ईद उल फ़ित्र, ईदे क़ुरबान, ईदे मुबाहिला और ईदे ज़हरा स.ल. वग़ैरह, यह सारी ईदें किसी वाक़ेए की तरफ़ इशारा करती हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हमारे समाज में बहुतसी ईदें आती हैं जैसे ईद उल फ़ित्र, ईदे क़ुरबान, ईदे मुबाहिला और ईदे ज़हरा स.ल. वग़ैरह, यह सारी ईदें किसी वाक़ेए की तरफ़ इशारा करती हैं।

  ईद उल फ़ित्र:पहली शव्वाल को एक महीने के रोज़े पूरे करने का शुकराना और फ़ितरा निकाल कर ग़रीबों की ईद का सामान फ़राहम करने का ज़रिया है।

(1)ईदे क़ुरबानः 10 ज़िलहिज्जा हज़रत इस्माईल को ख़ुदा ने ज़िबह होने से बचा लिया था और उनकी जगह दुंबा ज़िबह हो गया था जिस की याद मुसलमानों पर हर साल मनाना सुन्नत है।

(2)ईदे ग़दीरः18 ज़िलहिज्जा को ग़दीरे ख़ुम में मौला ए कायनात हज़रत अली (अ) की ताज पोशी यानी रसूले ख़ुदा (स) के बाद उन का जानशीन, मुसलमानों के ख़लीफ़ा बनाने की याद में हर साल मनाई जाती है, इस दिन रसूल अल्लाह (स) ने अपने आख़िरी हज से वापसी पर ग़दीरे ख़ुम के मैदान में इमाम अली (अ) को सवा लाख हाजियों के दरमियान अल्लाह के हुक्म से अपना जानशीन व ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया था।

(3)ईदे मुबाहिलाः 24 ज़िलहिज्जा को मनाई जाती है इस रोज़ अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के ज़रिये इस्लाम को ईसाइयों पर फ़तह नसीब हुई थी।

(4)ईदे ज़हरा (स): 9 रबीउल अव्वल को मनाई जाती है और इस ईद को मनाने की बहुत सी वजह बयान की जाती हैं।

जैसेः बाज़ लोग कहते हैं कि 9 रबीउल अव्वल को हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.ल.) का दुश्मन हलाक हुआ था, लेहाज़ा यह ख़ुशी का दिन है इसी वजह से इस रोज़ को ‘‘ईदे ज़हरा" के नाम से जाना जाता है। इस बारे में उलमा व मुअर्रेख़ीन (शोधकर्ताओं) के दरमियान इख़्तेलाफ़ पाया जाता है। बाज़ कहते हैं कि हज़रत उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबी उल अव्वल को फ़ौत हुए और बाज़ दीगर कहते हैं कि इनकी वफ़ात 26 ज़िलहिज्जा को हुई। जो लोग यह कहते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउल अव्वल को फ़ौत हुए

उनका क़ौल क़ाबिले एतबार नहीं है। अल्लामा मजलिसी इस बारे में इस तरह वज़ाहत फ़रमाते है किः उमर इब्ने ख़त्ताब के क़त्ल किये जाने की तारीख़ के बारे में शिया और सुन्नी उलमा में इख़्तेलाफ़ पाया जाता है (मगर) दोनों के दरमियान यही मशहूर है कि उमर इब्ने ख़त्ताब 26 या 27 ज़िलहिज्जा को फ़ौत हुए। (ज़ादुल मआद, पेज 470)

अल्लामा मजलिसी ने किताब 'बिहारुल अनवार' में भी इब्ने इदरीस की किताब ‘‘सरायर" के हवाले से लिखा है किः हमारे बाज़ उलमा के दरमियान उमर इब्ने ख़त्ताब की रोज़े वफ़ात के बारे में शुबहात पाए जाते हैं (यानी) यह लोग यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबी उल अव्वल को फ़ौत हुए। यह नज़रिया ग़लत है। (बिहारुल अनवार, जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान)

  अल्लामा मजलिसी किताब अनीस उल आबेदीन के हवाले से मज़ीद लिखते हैं कि: अक्सर शिया यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबी उल अव्वल को क़त्ल हुए और यह सहीह नहीं है ब तहक़ीक़ उमर 26 ज़िलहिज्जा को क़त्ल हुए... और इस पर साहिबे किताबे ग़र्रह, साहिबे किताबे मोजम, साहिबे किताबे तबक़ात, साहिबे किताबे मसारु उल शिया और इब्ने ताऊस की नस के अलावा शियों और सुन्नियों का इजमा भी हासिल है। (बिहारुल अनवार, जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान)

  अगर यह फ़र्ज़ भी कर लिया जाए कि वह 9 रबी उल अव्वल को फ़ौत हुए (जो कि ग़लत है) तब भी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) की शहादत पहले हुई और आप के दुश्मन एक के बाद एक हलाक हुए... तो फ़िर अपने दुश्मनों की हलाकत से हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) किस तरह ख़ुश हुईं? लेहाज़ा ईदे ज़हरा (स) की यह वजह ग़ैर माक़ूल है।

  बाज़ लोग यह कहते हैं कि 9 रबी उल अव्वल को जनाबे मुख़्तार ने इमाम हुसैन (अ) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया... लेहाज़ा यह रोज़ शियों के लिए सुरुर व शादमानी का दिन है। हमने मोतबर तारीख़ की किताबों में बहुत तलाश किया लेकिन कहीं यह बात नज़र न आई कि जनाबे मुख़्तार ने 9 रबी उल अव्वल को इमाम हुसैन (अ) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया था लेहाज़ा यह वजह भी ग़ैर माक़ूल है।

  बाज़ लोग यह भी कहते हैं कि जनाबे मुख़्तार ने उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद का सर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) की ख़िदमत में मदीना भेजा और जिस रोज़ यह सर इमाम की ख़िदमत में पहुँचा वह रबी उल अव्वल की 9 तारीख़ थी, इमाम (अ) ने इब्ने ज़ियाद का सर देखकर ख़ुदा का शुक्र अदा किया और मुख़्तार को दुआएं दीं और उसी वक़्त से अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की ख़वातीन ने बालों में कंघी और सर में तेल डालना और आँखों में सुरमा लगाना शुरु किया जो वाक़ेए करबला के बाद से इन चीज़ों को छोड़े हुए थीं।

  बिल फ़र्ज़ अगर सहीह मान भी लिया जाए तब भी यह ईद, जनाबे ज़ैनब (स) और जनाबे सय्यदे सज्जाद (अ) से मनसूब होनी चाहिए थी न कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) से... और हमें भी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) की पैरवी करते हुए ज़ियादा से ज़ियादा शुक्रे ख़ुदा करना चाहिए था और जनाबे मुख़्तार के लिए दुआएं ख़ैर करना चाहिए थी कि उन्होंने इमाम (अ) और उनके चाहने वालों का दिल ठंडा किया लेकिन यह ईद न तो चौथे इमाम (अ) से मनसूब हुई और न जनाबे ज़ैनब के नाम से मशहूर है, लेहाज़ा ईदे ज़हरा (स) की यह वजह भी ग़ैर माक़ूल है, अगर इस रिवायत को सहीह मान लिया जाए तो इस पर यह एतराज़ होता है कि जिनके घर में शरीयत नाज़िल हुई, जिनके सामने अहकाम नाज़िल हुए, जो अख़लाक़े इस्लामी का नमूना थे,

जिन्होंने सफ़ाई सुथराई की बहुत ताकीद की है वह इतने दिन तक किस तरह बग़ैर सर साफ़ किए हुए रहे? और किस समाज में सर को साफ़ करना या आँखों में सुर्मा डालना ख़ुशी की अलामत समझा जाता है? जो अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम ने वाक़ेए करबला के बाद एक अरसे तक न किया? लेहाज़ा इस क़िस्से पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

  बाज़ उलमा की तहक़ीक़ के मुताबिक़ 9 रबी उल अव्वल को जनाबे रसूले ख़ुदा (स) की शादी जनाबे ख़दीजा (स) से हुई थी और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) हर साल इस शादी की साल गिरह मनाती थीं और जश्न किया करती थीं, नए लिबास और तरह तरह के खाने मुहय्या करती थीं, लेहाज़ा आपकी सीरत पर अमल करते हुए शिया ख़वातीन ने भी यह सालगिरह मनानी शुरु की और यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा। आप के बाद यह ख़ुशी आप से मनसूब हो गई और इस तरह 9 रबी उल अव्वल का रोज़ शियों के दरमियान ईदे ज़हरा (स) के नाम से मनसूब हो गया, लेहाज़ा ईदे ज़हरा (स) की यह वजह मुनासिब मालूम होती है।

  एक शख़्स ने आयतुल्लाह काशिफ़ुल ग़िता से सवाल किया कि: मशहूर है कि रबी उल अव्वल की नवीं तारीख़ जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स) की ख़ुशी का दिन था और है और इस हाल में है कि उमर इब्ने ख़त्ताब के 26 ज़िलहिज्जा को ज़ख़्म लगा और 29 ज़िलहिज्जा को फ़ौत हुए लिहाज़ा यह तारीख़ हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) से बाद की तारीख़ है तो फ़िर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) (अपने दुश्मन के फ़ौत होने पर) किस तरह ख़ुश हुईं? इसका जवाब आयतुल्लाह काशिफ़ुल ग़िता ने इस तरह दिया किः शिया पुराने ज़माने से रबी उल अव्वल की नवीं तारीख़ को ईद की तरह ख़ुशी मनाते हैं किताबे "इक़बाल" में सैय्यद इब्ने ताऊस ने फ़रमाया है कि 9 रबी उल अव्वल की ख़ुशी इसलिए है कि इस तारीख़ में उमर इब्ने ख़त्ताब फ़ौत हुए हैं और यह बात एक ज़ईफ़ रिवायत से ली गयी है जिस को शेख़ सदूक़ ने नक़्ल किया है, लेकिन हक़ीक़ते अम्र यह है कि 9 रबी उल अव्वल को शियों की ख़ुशी शायद इस वजह से है कि 8 रबी उल अव्वल को इमाम हसन असकरी (अ) शहीद हुए और 9 रबी उल अव्वल इमामे ज़माना (अ) की इमामत का पहला दिन है।

  इस ख़ुशी का दूसरा एहतमाल यह है कि 9 और 10 रबी उल अव्वल पैग़म्बरे इस्लाम (स) की जनाबे ख़दीजा से शादी का दिन है और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) हर साल इस रोज़ ख़ुशी मनाती थीं और शिया भी आप की पैरवी करते हुए इन दिनों में ख़ुशी मनाने लगे, मगर शियों को इस ख़ुशी की यह वजह मालूम नहीं है।

  इस सिलसिले में बाज़ हज़रात व ख़वातीन और बिलख़ुसूस अंजुमन ए हुज्जतिया और M.i6 एजेंट जो अपने आप को अख़बारी, मलंगी कहते हैं ग़लत बयानी करते हुए कहते हैं कि इस दिन जो चाहें गुनाह करें इस पर अज़ाब नहीं होता और फ़रिश्ते लिखते भी नहीं और यह लोग अल्लामा मजलिसी की किताब "बिहारुल अनवार" की उस तवील हदीस का हवाला देते हैं जिसको अल्लामा मजलिसी ने सैयद इब्ने ताऊस की किताब "ज़वाएदुल फ़वायद" से नक़्ल किया है...

हां! बिहारुल अनवार में एक हदीस ऐसी ज़रुर लिखी हुई है, मगर यह हदीस चन्द वजहों की बिना पर क़ाबिले एतबार नहीं हैः

  1) इस हदीस में लिखा है कि 9 रबी उल अव्वल को जो गुनाह चाहें करें उस को फ़रिश्ते नहीं लिखते और न ही अज़ाब किया जाता है। मगर हम क़ुरआन मजीद के सूरए ज़लज़ला की आयत 7 और 8 में पढ़ते हैं किः यानी जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर नेकी की वह उसे देख लेगा और जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर बदी की है तो वह उसे देख लेगा।

  और हमारे सामने रसूले ख़ुदा (स) की वह हदीस भी है जिस का मफ़हूम यह है किः जब तुम्हारे पास मेरी कोई हदीस आए तो उसे किताबे ख़ुदा के मेयार पर परखो अगर क़ुरआन के मुआफ़िक़ है तो उसे क़ुबूल कर लो और अगर उसके ख़िलाफ़ है तो दीवार पर दे मारो (यानी क़ुबूल न करो) (मिरज़ा हबीबुल्ला हाश्मी, मिनहाजुल बराअत फ़ी शरह नहजुल बलाग़ा, जिल्द 17, पेज 246, तर्जुमा हसन ज़ादा आमुली, मतबूआ तेहरान)

  मज़कूरा रिवायत क़ुरआन से टकरा रही है लेहाज़ा क़ाबिले अमल नहीं है।

   2) इस हदीस के रावी मोतबर नहीं हैं। इस के बारे में जब क़ुम में आयतुल्लाह शाहरुदी से दरयाफ़्त किया गया तो आप ने यही फ़रमाया था किः इस रिवायत को अल्लामा मजलिसी ने किताबे "इक़बाल" से नक़्ल किया है और इसके रावी मोतबर नहीं हैं। 9 रबी उल अव्वल का मरफ़ू उल क़लम न होना (यानी इस दिन भी गुनाह लिखे जाते हैं) अज़हर मिनश शम्स (यानी बहुत वाज़ेह) है। लेहाज़ा यह रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।

  3) इस रिवायत में एक जुमला इस तरह बयान हुआ हैः रसूल अल्लाह (स) ने इमाम हसन (अ) और इमाम हुसैन (अ) (जो कि 9 रबी उल अव्वल को आपके पास बैठे थे) से फ़रमाया कि इस दिन की बरकत और सआदत तुम्हारे लिए मुबारक हो क्योंकि आज के दिन ख़ुदावन्दे आलम तुम्हारे और तुम्हारे जद के दुश्मनों को हलाक करेगा। रसूले ख़ुदा (स) अगर आने वाले ज़माने में रौनुमा होने वाले किसी वाक़ेए या हादसे की ख़बर दें तो सौ फ़ी सद सहीह,  सच और होने वाला है जिसमें किसी शक व शुबह की गुंजाइश नहीं है क्योंकि आप सच्चा वादा करने वाले हैं। लेकिन मोतबर तारीख़ की किताब में किसी भी दुश्मने रसूल व आले रसूल अलैहिमुस्सलाम की हलाकत 9 रबी उल अव्वल के रोज़ नहीं मिलती, लेहाज़ा रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।

  4) इस रिवायत के आख़िर में इमाम अली (अ) के हवाले से 9 रबी उल अव्वल के 57 नाम ज़िक्र किए गए हैं जिन में यौम ए रफ़इल क़लम (गुनाह न लिखे जाने का दिन), यौम ए सबी लिल्लाहे तआला (अल्लाह के रास्ते पर चलने का दिन) यौम ए क़तलिल मुनाफ़ीक़ (मुनाफ़ीक़ के क़त्ल का दिन) यौम ए ज़्ज़ोहदे फ़ील कबाइरे (गुनाहे कबीरा से बचने का दिन), यौमुल मौएज़ते (वाज़ व नसीहत का दिन), यौमुल इबादते (इबादत का दिन) भी शामिल हैं जो आपस में एक दूसरे से टकरा रहे हैं। यानी 9 रबी उल अव्वल को गुनाह न लिखने का दिन कह कर सब कुछ कर डालने का शौक़ दिलाया है तो यौमे नसीहत व इबादत व ज़ोहोद कह कर गुनाहों से रोका भी गया है और यह तज़ाद (टकराव) कलामे मासूम (अ) से बईद (दूर) है, इसके अलावा क़त्ले मुनाफ़ीक़ का दिन भी कहा गया है जिस की तरदीद (रद्द) आयतुल्लाह काशिफ़ुल ग़िता और आयतुल्लाह शाहरुदी के हवाले से बयान हो चुकी हैं, लेहाज़ा यह रिवायत मोतबर नहीं कही जा सकती।

  5) इस रिवायत में एक जुमला यह भी आया है किः अल्लाह ने वही के ज़रिए हज़रत रसूल (स) से कहलाया किः ऐ मुहम्मद! (स) मैंने किरामे कातेबीन को हुक्म दिया है कि वह 9 रबी उल अव्वल को आप और आपके वसी के एहतराम में लोगों के गुनाहों और उनकी ख़ताओं को न लिखें।जबकि दूसरी तरफ़ क़ुरआन मजीद में ख़ुदावन्दे आलम इस तरह इरशाद फ़रमाता है किः यह हमारी किताब (नामा ए आमाल) है जो हक़ के साथ बोलती है और हम इसमें तुम्हारे आमाल को बराबर लिखवा रहे थे। (सूरए जासेया, आयत 29) इस से मालूम होता है कि इन्सानों के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं और किसी भी दिन को इस से अलग नहीं किया गया है और जब नामाए आमाल सामने रखा जाएगा तो देखोगे, देखकर ख़ौफ़ज़दा होंगे और कहेंगे हाय अफ़सोस! इस किताब (नामाए आमाल) ने तो छोटा बड़ा कुछ नहीं छोड़ा है और सब को जमा कर लिया है और सब अपने आमाल को बिल्कुल हाज़िर पाएंगे और तुम्हारा परवरदिगार किसी एक पर भी ज़ुल्म नहीं करता है।

(सूरए कहफ़, आयत 49) इस आयत से भी साफ़ ज़ाहिर होता है कि इन्सानों के आमाल बराबर लिखे जाते हैं और कोई भी मौक़ा और दिन इस से अलग नहीं है। इस रोज़ सारे इन्सान गिरोह गिरोह क़ब्रों से निकलेंगे ताकि अपने आमाल को देख सकें फिर जिस शख़्स ने ज़र्रा बराबर नेकी की है वह उसे देखेगा और जिसने ज़र्रा बराबर बुराई की है वह उसे देख लेगा। (सूरए ज़लज़ला, आयत 5 व 18) इस आयत से भी ज़ाहिर होता है कि इन्सानों के छोटे बड़े हर क़िस्म के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं। यह रिवायत क़ुरआन से टकरा रही है लेहाज़ा मोतबर नहीं है।

  हो सकता है बाज़ हज़रात यह एतराज़ करें कि इतनी मोतबर शख़्सियतों जैसे अल्लामा इब्ने ताऊस, शेख़ सदूक़ और अल्लामा मजलिसी वग़ैरा ने किस तरह ज़ईफ़ रिवायतों को अपनी किताबों में जगह दे दी? इसका जवाब यह है कि शिया उलमा ने कभी भी अहले सुन्नत की तरह यह दावा नहीं किया है कि हमारी किताबों में जो भी लिखा है वह सब सहीह है, बल्कि हमें इनकी छान बीन की ज़रुरत रहती है, क्योंकि जिस ज़माने में यह किताबें मुरत्तब कि गईं वह पुर आशोब दौर था और शियों की जान व माल, इज़्ज़त व आबरू के साथ साथ कल्चर भी ग़ैर महफ़ूज़ था जिसकी मिसालों से तारीख़ का दामन भरा हुआ है, मुसलमान हुक्मरान शियों के इल्मी सरमाए को नज़रे आतिश करना हरगिज़ न भूलते थे, ऐसे माहौल में हमारे उलमा ए किराम ने हर उस रिवायत और बात को अपनी किताबों में जगह दी जो शियों से तअल्लुक़ रखती थी, जिसमें बाज़ ग़ैर मोतबर रिवायात का शामिल हो जाना बाइसे तअज्जुब नहीं है, चूँकि उस ज़माने में छान फटक का मौक़ा न था इसलिए यह काम बाद के उलमा ने फ़ुरसत से अंजाम दिया, इसीलिए तो आयतुल्लाह काशिफ़ुल ग़िता और आयतुल्लाह शाहरुदी के अलावा दीगर मराजए किराम 9 रबी उल अव्वल वाली इस रिवायत को ज़ईफ़ और ना क़ाबिले एतमाद मानते हैं। हमें चाहिए कि इस दिन भी इसी तरह अपने आप को गुनाहों से दूर रखें जिस तरह दूसरे दिनों में बचाना वाजिब है। हमारे अइम्मा अलैहिमुस्सलाम और फ़ुक़हा ए इज़ाम व मराजए किराम का यही हुक्म है, जब हम ने इस बारे में मराजए किराम हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली ख़ामनेई, आयतुल्लाह मकारिम शीराज़ी, आयतुल्लाह फ़ाज़िल लंक करानी, आयतुल्लाह अराकी और आयतुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी से शहरे मुक़द्दस क़ुम में सवाल किया किः बाज़ लोग आलिम व ग़ैर आलिम इस बात के मोतक़िद हैं कि 9 रबी उल अव्वल से (जो कि ईदे ज़हरा से मनसूब है) 11 रबी उल अव्वल तक इन्सान जो चाहे अंजाम दे चाहे वह काम शरअन नाजायज़ हो तब भी गुनाह शुमार नहीं होगा और फ़रिश्ते उसे नहीं लिखेंगे, बराए मेहरबानी इस बारे में क्या हुक्म है? बयान फ़रमाइए?

  आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामनेई साहब ने इस तरह जवाब दिया किः शरीअत की हराम की हुई वह चीज़ें जो जगह और वक़्त से मख़सूस नहीं हैं किसी मख़सूस दिन की मुनासिबत से हलाल नहीं होगी बल्कि ऐसे मुहर्रेमात (हराम) हर जगह और हर वक़्त हराम हैं और जो लोग बाज़ अय्याम में इनको हलाल की निसबत देते हैं वह कोरा झूठ और बोहतान है और हर वह काम जो बज़ाते ख़ुद हराम हो या मुसलमानों के दरमियान तफ़रक़े का बाइस हो शरअन गुनाह और अज़ाब का बाइस है।

  आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी साहब का जवाब यह थाः यह बात कि (9 रबी उल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते) सहीह नहीं है और किसी भी फ़क़ीह ने ऐसा फ़तवा नहीं दिया है, बल्कि इन अय्याम में तज़किय ए नफ़्स और अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के अख़लाक़ से नज़दीक होने और फ़ासिक़ व फ़ाजिरों के तौर तरीक़ों से दूर रहने की ज़ियादा कोशिश करनी चाहिए।

  आयतुल्लाह फ़ाज़िल लंक करानी साहब ने यूँ जवाब दिया कि: यह एतक़ाद कि (9 रबी उल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते) सहीह नहीं है, इन दिनों में भी गुनाह जायज़ नहीं है, मज़कूरा ईद (ईदे ज़हरा स.) बग़ैर गुनाह के मनाई जा सकती है।

  आयतुल्लाह अराकी साहब ने तहरीर फ़रमाया कि: वह काम जिनको शरीअते इस्लाम ने मना किया है और मराजए किराम ने अपनी तौज़ीहुल मसाइल में ज़िक्र किया है किसी भी वक़्त जायज़ नहीं हैं और यह बातें कि (9 रबी उल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते) मोतबर नहीं हैं।

  आयतुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी साहब का जवाब यह था किः यह बात कि (9 रबी उल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते) अदिल्ला ए अहकाम के उमूमात व इतलाक़ात के मनाफ़ी (ख़िलाफ़) है और ऐसी मोतबर रिवायत कि जो इन उमूमी व मुतलक़ दलीलों को मख़सूस या मुक़य्यद कर दे साबित नहीं है बिलफ़र्ज़ अगर ऐसी कोई रिवायत होती भी तो यह बात अक़्ल व शरीअत के मनाफ़ी (ख़िलाफ़) है और ऐसी मुक़य्यद व मुख़ससिस दलीलें मुनसरिफ़ है...।

  यह बात वाज़ेह और साफ़ हो जाने के बाद अब एक सवाल और बाक़ी रह जाता है वह यह कि इस ख़ुशी को किस तरह मनाएं? इसी तरह जैसे अक्सर बस्तियों में मनाई जाती है? या फ़िर इसमें तब्दीली होनी चाहिए? यह ख़ुशी इमामे ज़माना (अ) और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) से मनसूब है तो क्या हमें उन मासूमीन अलैहिमुस्सलाम के शायाने शान इस ख़ुशी को नहीं मनाना चाहिए? हमें क्या हो गया है!

अपने ज़िन्दा इमाम (अ) की ख़ुशी को इस अन्दाज़ से मनाते हैं? दुनिया की जाहिल तरीन क़ौमें भी अपने रहबर की ख़ुशी इस तरह न मनाती होंगी... अफ़सोस! आज कल अगर किसी सियासी व समाजी शख़्सियत के एज़ाज़ में जलसे जलूस मुनअक़िद किए जाते हैं तो उन को उसी के शायाने शान तरीक़े से ख़त्म करने की कोशिश भी की जाती है।

लेकिन ईदे ज़हरा (स) जो ख़ातूने जन्नत, जिगर गोशए रसूल (स), ज़ौज ए अली ए मुरतज़ा (अ) उम्मुल अइम्मा ज़हरा ए बतूल (स) के नाम से मनसूब है वह इस तरह मनाई जाती है कि इस में शरीफ़ आदमी शरीक होने की जुर्रत भी न कर सके?! इसके अलावा आलमे इस्लाम पर जिस तरह ख़तरात के बादल छाए हुए हैं वह अहले नज़र से पोशीदा नहीं है,

कितना अच्छा हो अगर ईदे ज़हरा (स) अपने हक़ीक़ी माना में इस तरह मनाई जाए जिस में तमाम मुस्लिमीन शरीक हो सकें। तबर्रा, फ़ुरु ए दीन से तअल्लुक़ रखता है और फ़ुरु ए दीन का दारो मदार अमल से है... अगर कोई मुसलमान सिर्फ़ ज़बान से कहे कि नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, ख़ुम्स वग़ैरह वाजिब हैं तो यह तमाम वाजेबात जब तक अमली सूरत में अदा न हो जाएं गरदन पर क़ज़ा ही रहेंगे

फ़ुरु ए दीन के वाजिबात वक़्त और ज़माने से मख़सूस हैं, जिस तरह नमाज़ के औक़ात बताए गए हैं इसी तरह रोज़ा, ज़कात, हज और ख़ुम्स वग़ैरा का ज़माना भी मुअय्यन है, लेकिन अम्रबिल मारुफ़, नही अनिल मुनकर, तवल्ला और तबर्रा यह दीन के ऐसे फ़ुरु हैं जिनके लिए कोई वक़्त और ज़माना मुअय्यन नहीं है, बिल ख़ुसूस तवल्ला और तबर्रा से तो एक लम्हे के लिए भी गाफ़िल नहीं रह सकते, यानी हम यह नहीं कह सकते कि एक लम्हे के लिए भी मुहब्बते अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम को दिल से निकाल दिया गया है, या एक लम्हे के लिए दुश्मनाने अहलेबैत  अलैहिमुस्सलाम के दुश्मनों के किरदार को अपना लिया गया है, जब ऐसा है तो फिर तबर्रा को 9 रबी उल अव्वल से क्यों मख़सूस कर दिया गया?

इसी दिन इसकी क्यों ताकीद होती है? बाक़ी दिनों में इस तरह क्यों याद नहीं आता? वह भी सिर्फ़ ज़बानी! ज़बान से तबर्रा काफ़ी नहीं है बल्कि अमली मैदान में आकर तबर्रा करें यानी अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के दुश्मनों की इताअत व हुक्मरानी दिल से क़ुबूल न करें और इनके पस्त किरदार को न अपनाएं।

यह कैसे हो सकता है कि कोई शिया जो ख़ुम्स न निकालता हो और बेटियों को मीरास से महरुम रखता हो वह ग़ासेबीन पर लानत करे और उस लानत में ख़ुद भी शामिल न हो जाए? वह शिया जो अपने अमले बद से अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम को नाराज़ करता हो और वह अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम को सताने वालों पर लानत करे और उस लानत के दायरे में ख़ुद भी न आ जाए! याद रखिए! लानत नाम पर नहीं, किरदार पर होती है इसीलिए उसका दायरा बहुत बड़ा होता है।

तमाम ईदें तहज़ीब के दायरे में मनाई जाती हैं लेकिन ईदे ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा में तहज़ीब की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं।

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