۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
मौलाना कल्बे जवाद

हौज़ा / मौलाना ने कहा कि उपमहाद्वीप में आज जहां भी उर्दू भाषा बोलने वाले लोग हैं, वहां अज़ादारी जिस रूप मे मनाई जाती है उसका खद्दो ख़ाल हजरत दिलदार अली गुफ़रान मआब ने निर्धारित किया हैं।

हौज़ा समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, लखनऊ / पहली मुहर्रम: इमाम बड़ा ग़ुफ़रान मआब में मुहर्रम की पहली मजलिस को संबोधित करते हुए मौलाना सैयद कल्बे जवाद नकवी ने कहा कि इमाम हुसैन की अज़ादारी दिन-ब-दिन बढ़ रही है और यह किसी के दबाव से कभी खत्म नहीं होगी। जितना इसे दबाया जाएगा, उतना ही बढ़ेगी। हमने अज़ादारी को जीवित नहीं रखा है, लेकिन अज़ादारी ने हमें जीवित रखा है।

रिवायत के अनुसार, मौलाना ने पहली मजलिस मे आयतुल्लाह सैयद दिलदार अली ग़ुफ़रान मआब और ख़ानदाने इज्तिहाद की विद्वता और शोक सेवाओं का संक्षिप्त परिचय दिया।मौलाना ने कहा कि आज उपमहाद्वीप में जहां भी उर्दू बोलने वाले हैं, हां अज़ादारी जिस रूप मे मनाई जाती है उसका खद्दो ख़ाल हजरत दिलदार अली गुफ़रान मआब ने निर्धारित किया हैं।।

मौलाना ने आगे कहा कि लखनऊ की अज़ादारी का पूरी दुनिया पर विशेष प्रभाव पड़ता है और उपमहाद्वीप में अज़ादारी लखनऊ की शैली में की जाती है। अज़ादारी को फरोग़ देने और शरियत के मुताबिक इसके खद्दो ख़ाल निर्धारित करने मे हजरत दिलदार अली गुफ़रान मआब का अहम किरदार हैं। इससे पहले अज़ादारी मे रसमो का बोल बाला था जिसमें शरिया के खिलाफ चीजों को मिलाया गया था, जिसमे आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद दिलदार अली गफ्फार द्वारा सुधार किया गया मौलाना ने कहा कि आज भारत के सभी महान विद्वान परिवार हजरत ग़ुफ़रान मआब के छात्र हैं। मौलाना ने कहा नवाबीने अवध ने अपने लिए बड़े बड़े भवन और किलो और मकबरो का एहतेमाम नही किया बल्कि इमामबाड़ो और मस्जिदो का निर्माण कराया। आज दुनिया का सबसे बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ मे है। यह विद्वानो की शिक्षा और मार्गदर्शन का परिणाम था कि वह राजा महाराजा जो दुनियाई कामो मे वयस्त रहते थे उन्हे धार्मिक सेवाओ की ओर आकर्षित किया।

मौलाना ने कहा कि हर धर्म के पूजा स्थलों में एक ही धर्म और पंथ के लोग मिलेंगे। कई मंदिर हैं जहां यह घोषित किया गया है कि गैर-हिंदू यहां प्रवेश नहीं कर सकते। मगर इमाम हुसैन की अजादारी और इमामबाड़ो मे विभिन्न संप्रदायों और विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं के लोग मिलेंगे जब नदियाँ अलग हो जाती हैं, तो उनके नाम अलग अलग होते हैं, कि यह रवाई है, यह गंगा है, यह जमना है, यह झेलम है। लेकिन जब सभी नदियाँ समुद्र में मिलती हैं। तो कोई नहीं बता सकता कि कौन सी नदी का पानी कहा है। इमाम हुसैन की अजादारी एक सागर की तरह है जिसमें विभिन्न संप्रदायों और धर्मों और विभिन्न विचारधाराओं और मान्यताओं के लोग एक हो जाते हैं। मौलाना ने कहा किमुहर्रम कोई त्योहार नहीं  दुर्भाग्य से 'फेस्टिवल रजिस्टर' में लिखा हुआ है। मुहर्रम कोई त्योहार नहीं बल्कि दुख का महीना और जुल्म के खिलाफ विरोध है।

मजलिस के अंत में मौलाना ने हज़रत मुस्लिम बिन अकील की शहादत और उन पर होने वाले जुल्म का ज़िक्र किया, यह सुनते ही मातम करने वाले रो पड़े। मजलिस मे कोरोना प्रोटोकॉल का ध्यान रखा गया और इमाम बारा के गेट पर मास्क व सैनिटाइजर की व्यवस्था की गई.

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